Tuesday, September 3, 2013

खतो-किताबत

बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की हमारी जनरेशन शायद वो आखरी जनरेशन होगी जिसने ख़त लिखने या ख़त पाने के रोमांच का अनुभव किया हो...( कुछ गंभीरतम मामलों में ख़त पहुंचवाने का भी रोमांच हुआ करता था.. ) हमारे बाद तो दुनिया हाईटेक हो गई... एसएमएस, ईमेल, बीबीएम, फेसबुक चैट, मोबाइल कालिंग आदि नए जमाने के संभाषण के तरीकों की ईजाद के बाद ख़त लिखना जैसे आउटडेटिड होकर रह गया है.... आजकल खतो-किताबत सिर्फ दफ्तरी कामों का हिस्सा बन कर रह गई है... dear sir/madam से शुरू होने वाले और thanking you पर ख़त्म होने वाले इन खतों में वो बात कहाँ जो उन खतों में हुआ करती थी जो, प्यारे दोस्त, आदरणीय पिताजी या जान से प्यारी बहना जैसे आत्मीय संबोधनों से शुरू होकर 'आपके प्यार के लिए प्रतीक्षारत' या 'आपकी मुहब्बतों का कर्ज़दार' जैसे जुमलों पर ख़त्म हुआ करते थे....

दूर-दराज के गांवों में रहने वाले लोगों के पास अपने परिजनों की खैरियत मालूम करने का एकमात्र जरिया हुआ करता था, पत्र लिखना.... शहर में रहते बेटे का ख़त आने पर माता-पिता को ऐसे लगता था जैसे कोई त्यौहार आ गया हो. डाकिये को गले लगाने की कसर रह जाती थी बस. अगर माता-पिता निरे अनपढ़ हो तो उस ख़त को पढ़कर सुनाने की जिम्मेदारी भी डाकिये की ही हुआ करती थी. या अगर डाकिया काबिले-यकीन ना हो तो पड़ोस के किसी बन्दे या बन्दी की मदद ली जाती थी. ऐसे मददगारों में कभी मेरा भी शुमार हुआ करता था. अपने बचपन में, पड़ोस में रहती एक आंटी को उनकी बेटी द्वारा उसकी ससुराल से लिखे गए कई ख़त मैंने पढ़कर सुनाये है. हर ख़त पढने पर एक रूपया मिला करता था. वो अनुभव अनोखा हुआ करता था. या यूं कहिये कि तब तो वो सब सामान्य ही लगता था पर आज के परिप्रेक्ष्य में वो ज्यादा अनोखा प्रतीत होता है. मेरे द्वारा पढ़े जा रहे हर शब्द को वो ऐसे ग्रहण किया करती थी जैसे गीता-पाठ हो रहा हो. उनकी बेटी के क्लिष्ट हस्तलेख को पढना यूं तो वैसे ही मसला था, ऊपर से वो शायद ख़त भी जल्दबाजी में लिखा करती थी. तो कई बार उसने क्या लिखा है ये समझना मुश्किल हो जाता था. और मैं उस समूचे वाक्य को ही गायब कर आगे बढ़ जाया करती थी. इससे होता ये था कि अगर उसमे कोई जरुरी बात लिखी हुई होती थी तो वो हमेशा के लिए राज ही रह जाती थी. ख़त पूरा करने के बाद उन आंटी के चेहरे पर जो भाव हुआ करते थे वो अद्भुत होते थे. यूं लगता था जैसे अभी अभी वो अपनी प्यारी बिटिया के गले लग के हटी हो..वो ज़माना अब सिर्फ यादों में सिमट कर रह गया है. जब की ये सिर्फ एक दशक पुरानी बात है. अब ना तो ख़त भेजने वाले रहे और ना ही उन्हें पढ़ाने वाले. बेटा शहर जाते ही अम्मा-बाबा के लिए मोबाइल भिजवा देता है. किस्सा ही ख़तम.

जब से शब्दों का अस्तित्व है लगभग तब से ही पत्रलेखन का सिलसिला चला आ रहा है. सदियों तक कागजों पर लिखे गये चंद अल्फाजों ने आत्मीय जनों के बीच की दूरियां मिटाई है. चाहे वो हज़ारों मीलों की ही क्यूं न हो. उनके तड़पते, तरसते कलेजे पर मुहब्बत भरे शब्दों का फाहा रखा है. उनकी बिछडन के दर्द को झेलती संतप्त आत्माओं को करार बक्शा है. बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की वो वैभवशाली युग समाप्ति की ओर अग्रसर है. या लगभग समाप्त ही है. और कमाल की बात ये की मानव-सभ्यता की होने वाली इस अपूरणीय क्षति की ओर हमारा ध्यान ही नहीं है.

पत्रलेखन की एक और किस्म का उल्लेख किए बिना ये दास्तान अधूरी होगी. प्रेम पत्र.... एक पीढ़ी पुराने लोगों की बात की जाए तो उनमे कोई विरला ही ऐसा होगा जिसने कभी कोइ प्रेम पत्र लिखने या पाने की अभिलाषा ना रखी हो.. प्रेम-पत्रों का तो अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है. अपने प्रेमी/प्रेमिका तक अपनी भावनाएं शब्दों के माध्यम से पहुंचाना एक लाजवाब अनुभव हुआ करता था. इसकी जगह ई-ग्रीटिंग्स,एसएमएस स्माइलीज या फेसबुक emoticons कभी नहीं ले सकते. किसी ने आपके लिए चोरी-छुपे, रातों को जागकर कुछ लिखा है ये फीलिंग ही एवेरेस्ट फतह करने के बराबर हुआ करती थी. फिर वो ख़त आपके लिए एक अमूल्य धरोहर बन जाता था. जिसको की छुपाना भी होता था और दिखाना भी. और फिर उसका जवाब लिखने का मजा तो कुछ और ही चीज़ हुआ करता था. वो लाइने लिखना, फिर उन्हें काटकर कुछ और लिखना, वो इस कशमकश में घंटो बरबाद करना की महबूब/महबूबा की तारीफ़ वाला शेर ख़त के शुरू में लिखा जाए की आखिर के लिए छोड़ा जाए. या दोनों जगह अलग अलग शेर चेंप दिए जाए. फिर ऊपर से उसमे रद्दोबदल करने की भी गुंजाइश हुआ करती थी. अब के फास्ट मेसेजिंग के दौर में फ़र्ज़ कीजिये की आपने कोई ग़ालिब का शेर टाइप किया और जल्दबाजी में send कर दिया. भेजते ही आपको कोई फराज का या फैज़ का या बशीर बद्र साहब का और ज्यादा बेहतरीन शेर याद आ गया. पर तब तक तो गाडी निकल चुकी न... तब तक तो सामने वाला उसे पढ़कर जवाब में 'मीर' का कोई शेर रवाना कर भी चुका होता है.. हट... ये भी कोई तरीका हुआ...? जरा ठहराव नहीं... जरा इत्मीनान नहीं... वो ज़माना भी क्या ज़माना था जब ख़त लिखने से लेकर उसका जवाब आने तक का वक्त एक अजीब सी बेकरारी में गुजरा करता था. पत्रों का आदान-प्रदान भी एक लम्बी प्रक्रिया हुआ करती थी. पहले तो घंटो बरबाद कर के ख़त लिखना, फिर उसे भिजवाने के लिए निश्चित किए गए बिचौलिए की जी-हुजूरी करना, उसकी जायज-नाजायज मांगे पूरी करना, फिर उससे 'सक्सेसफुल डिलीवरी' की रिपोर्ट प्राप्त करना, फिर एक लम्बा इन्तजार ( जो कुछ मामलों में वाकई लम्बा होता है और बाकी मामलों में ना होकर भी लम्बा लगता है ), फिर एक बार फिर बिचौलिए के नखरे उठाना, फिर जवाब की प्राप्ति..... कुल मिलाकर बोर्ड एक्जाम्स जितना ही गंभीर हुआ करता था ये सिलसिला.. बड़ा दुःख होता है ये जानकर की हमारी आने वाली पीढियां एक ऐसे अनुभव से विमुख ही रहेंगी जो सदियों मानव-सभ्यता का एक अभिन्न अंग रहा है...

इस मरती हुई विधा को बचाने की जरुरत है मित्रों... वरना पत्र-लेखन इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगा. वो दिन दूर नहीं जब हमारे नाती-पोते हमसे ये पूछ बैठे की ये अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के प्रिंसिपल को पत्र क्यूं लिखा था..? एक फोन कॉल क्या ज्यादा 'बेटर आप्शन' नहीं था...? उन्हें 'बेटर आप्शन' और 'बेस्ट आप्शन' का फर्क समझाने के लिए इस विधा का जिंदा रहना जरुरी है. और ये हम ही कर सकते है. इसकी जिम्मेदारी हम पर ही है. क्यूं की हम ही हैं जो आखरी पायदान पर खड़े है. हम ही है जो ये जानते है की एक सादा कागज़ पर लिखे गए सादा से अल्फाज़ कितने मायने रखते है. हमें ये जानकारी अगली पीढ़ी तक पहुंचानी ही होगी. और ये ज्यादा मुश्किल भी नहीं. माना के संचार के माध्यमों की इतनी भव्य मात्रा में उपलब्धता के बाद पत्र लिखना थोडा अटपटा लगता होगा आपको. पर यकीन जानिये इसकी सार्थकता में कोई कमी नहीं आई है. दूरदराज के रहने वाले अपने मित्रों को ख़त लिखिए.. चाहे महीने में एक बार ही सही. इत्मीनान से, ठहराव से, आप अपनी ज़िन्दगी की कई घटनाएं उनके साथ साझा कर सकते है. शब्दों के माध्यम से उन्हें अमर भी कर सकते है. पत्रलेखन यादों को जिंदा रखने का एक सशक्त माध्यम है. इसकी अनदेखी ना कीजिये. ख़त लिखिए, ख़त प्राप्त कीजिये और उस ज़माने की यादों में लौट जाइए जहां संदेसा आने में भले ही वक्त लगा करता था पर ज़ज्बात आर्टिफिशियल नहीं हुआ करते थे...

इतने जरुरी विषय की तरफ मेरा ध्यानाकर्षण करने के लिए हितेंद्र भाई को धन्यवाद.

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कुछ जरूरी टिप्पणियाँ - 

हितेन्द्र अनंत-   कुछ मित्रों का कहना है कि इस युग में पत्र लेखन की कोई भी उपयोगिता नहीं है। चूँकि संवाद के नये माध्यम (ईमेल, चैट, फोन आदि) आ गये हैं, इसलिये इस जमाने में पत्र लिखना पिछड़ेपन का परिचायक होगा।

समाचार और प्रसार के माध्यमों का उदाहरण लीजिये। रेडियो, टीवी, छपा हुआ अख़बार, ब्लॉग, इंटरनेट, सभी एक साथ जी रहे हैं। एक के बाद जब कभी अगला नया माध्यम आया तो कहा गया कि अब पुराना माध्यम खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। माध्यमों का उपयोग न्यूनाधिक मात्रा में हो सकता है, लेकिन प्रत्येक माध्यम की अपनी एक उपयोगिता होती है।

1. कुछ बातें होती हैं जिन्हें सिर्फ प्रत्यक्ष कहा जा सकता है।
2. जिन बातों को प्रत्यक्ष कहना संभव न हो उन्हें लिखकर कहा जा सकता है।
3. बहुत से समाचार फोन पर कहे नहीं जा सकते।
4. बहुत से भाव कहने से व्यक्त नहीं हो पाते, लिखने से हो जाते हैं।
5. बहुत सी बातें "तत्काल" कहीं जाएँ ऐसा आवश्यक नहीं होता, उन्हें सोच-समझकर आराम से लिखा जा सकता है।
6. प्रत्येक माध्यम का अपना सौंदर्य है। फोन पर आवाज है, तो अन्य माध्यमों में शब्द हैं।
7. पत्र के आने में जो "प्रतीक्षा" का तत्व है, वह अनेक सशक्त भावों को जन्म दे सकता है, वह संवादकर्ताओं के बीच रोमांच, व्याकुलता और धैर्य का संतुलन भी पैदा करता है।
8. फोन का अति-उपयोग हानिकारक है। कई बार तो यह बोझिल भी हो जाता है।
9. इस जमाने में यदि पत्र लिखे जाएँगे तो उनकी विषय वस्तु अलग होगी। वे संवाद के अन्य माध्यमों के बीच अपनी जगह स्वयं बना लेंगे।
10. पत्रों का संवाद के अन्य माध्यमों के साथ "सम्मानपूर्वक-सहअस्तित्व" संभव है।
11. पत्रों के पाने में स्पर्श की गर्माहट, लिखावट का सौंदर्य और अपनेपन की जो सुगंध है वह अन्य माध्यमों में नहीं।
12. पत्र वह माध्यम है जिसे जीवित रखने की आवश्यकता है। उसे कम से कम मरने से बचाने की आवश्यकता है।
-हितेन्द्र


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 इतने गंभीर विषय को छेड़ कर गायब हो जाने के लिए माफ़ी चाहूंगी मित्रों.. पर उम्मीद है आप समझते होंगे की और भी गम हैं ज़माने में फेसबुक के सिवा.....
खैर, मुझे इस बात की ख़ुशी है की ज्यादातर मित्रों ने पत्र-लेखन के महत्व को जाना है और अपने माजी के कुछ किस्सों के माध्यम से इससे अपना जुड़ाव भी व्यक्त किया है... उम्मीद है की हम इस विधा को बचाए रखने के लिए जरुरी प्रयत्नों में अपना अपना गिलहरी का हिस्सा जरुर अदा कर पायेंगे...
. मेरी मंशा आज की टेक्नोलॉजी में कीड़े निकालने की नहीं है... मैंने ये कभी नहीं कहा की हमें ये सब त्याग कर उस दौर में लौट जाना चाहिए... हर एक चीज़ का अपना महत्व है... मेरा सिर्फ इतना कहना है की हमें पत्रलेखन जैसी विधा को यूं त्याग नहीं देना चाहिए... आप माने या ना माने लेकिन अपने हाथ से लिखा गया ख़त आपकी भावनाओं की सबसे गहरी अनुभूतियां समेटे होता है.. उसकी बराबरी नहीं की जा सकती...

और आपकी ये बात की मैं चिट्ठी लिखकर अपनी बात पूरी दुनिया तक नहीं पहुंचा सकती थी मुझे समझ नहीं आई... पत्रलेखन को मैं अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का जरिया नहीं बनाना चाहती, ये तो नितांत व्यक्तिगत लेखन है सर... ख़त आप अपने किसी अज़ीज़ को लिखेंगे ना की उसका यूज पब्लिक ब्रोडकास्टिंग टूल के तौर पर करेंगे... हमें व्यक्ती से व्यक्ती के भावनात्मक जुड़ाव की जड़ें मजबूत करनी है... और मेरा दृढ़ता से मानना है की पत्रलेखन इसमें बहुत ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकता है... यकीन ना आये तो इस बार अपने उन दोस्तों को जिन्हें आप उनके जन्मदिन पर एक sms भेजकर छुट्टी पा लेते है, इस बार एक छोटा सा ख़त लिखिए... बधाई संदेस के साथ कुछ आत्मीयता जताने वाले शब्द... यकीन जानिये उस शख्स को ये एक अमूल्य भेंट प्रतीत होगी... आजमा कर देख लीजियेगा...
 

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