Thursday, September 26, 2013

नसीम - फिल्म समीक्षा


Photo: अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब.... 

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...
अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब....

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...

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