Monday, October 27, 2014

क्या वो सुबह आयेगी ?

"उड़ने खुलने में है खुशबू, ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं..."


कैफ़ी आज़मी साहब लिख तो गए लेकिन समझा नहीं गए. आने वाले हज़ार-पांच सौ सालों में शायद समझ जायें लोग. लेकिन तब तक मर्द के पहलू की अहमियत बरकरार रहेगी. उसे नकारने वाली रेहानाओं को हम भेजते रहेंगे जन्नत के सफ़र पर. अपने वजूद से मर्द का पहलू गुलजार न किया तो किस काम की है औरत ? यही तो धर्म है उसका. इसी काम के लिए तो बनी है वो. पता नहीं वो कौन सी सदी होगी जब औरत को उसके जिस्म से बाहर निकाल कर भी सोचा जाएगा. साहिर उम्मीद बंधा गए हैं कि,

"वो सुबह कभी तो आएगी."

न जाने कब आयेगी ! न जाने कितनी अंधी रातों का सहरा पार करने पर दिखाई देगी ! पता नहीं आएगी भी या नहीं ! शायद तब आये जब हम जैसों के लिए उसकी अहमियत ही ख़त्म हो चुकी हो. हमें तो साहिर साहब की उम्मीद झूठी नज़र आती है और ग़ालिब का कहा तर्जुमाने ज़िन्दगी लगता है.

"हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को खबर होने तक..."

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