Sunday, December 21, 2014

मन की बात

हमारे भारतीय परिवेश में लड़कियों के लिए शादियाँ किसी जुए से कम नहीं होती. अधिकतर तो हार ही जाती हैं ये जुआ, बाकी बची हुई जीत के मुगालते में ख़ुशी ख़ुशी जिंदगियां निकाल लेती हैं. शादी का अमूमन अर्थ हमारे यहाँ लड़की नाम की बूँद का पति और उसके परिवार वालों रूपी महासागर में विलय हो जाना ही है. जिसे आसान शब्दों में कहा जाए तो खुद का अस्तित्व खोना. एक फला-फूला वृक्ष जड़ों समेत उखाड़ कर किसी और आँगन में प्रतिरोपित करने का ये सिस्टम कई बार समझ से बाहर होता है. ख़ास तौर से तब जब ना पनपने की सूरत में कोई और आँगन ढूँढने का या पुराने गुलशन में लौट आने का विकल्प उसके पास उपलब्ध ना हो. ऐसे किसी विकल्प के बारे में सोचना भी लड़कियों के लिए चारित्रिक हमले को न्यौता देने के बराबर है. कुल मिला कर हमारी सामाजिक मशीनरी का एक एक पुर्जा इस बात पर दृढ-प्रतिज्ञ दिखाई देता है कि लड़कियां अपना अस्तित्व मिटा कर किसी और जूते में अपने पैर फिट कर लें. इस अपेक्षा से इतनी ज्यादा चिढ़ नहीं होती बशर्ते कि उम्मीदों का ये ट्रैफिक एकतरफा ना होता. खैर, फिलहाल तो इस समस्या का ( जिसे समस्या ना मानना भी एक बड़ी समस्या है ) कोई हल दिखाई नहीं देता. कोई अल्टरनेटिव नहीं होने की वजह से इसे चुपचाप कबूलने के सिवा और कोई चारा नहीं. कई लोगों को मेरी ये बातें बेहद अजीब, डिप्रेसिंग और गैर-जरुरी लग रही होंगी. ख़ास तौर से तब जब एक हफ्ते बाद मेरी खुद की शादी है. लेकिन जहाँ तक मैं समझती हूँ अपनी बात कहने के लिए मेरे पास ये शायद आखिरी मौका है. अभी नहीं कहा तो शायद कभी नहीं कह पाउंगी. आप सब लोगों ने मेरी बातें अब तक बेहद संजीदगी से सुनी हैं. एक आखिरी बार मैं चाहती हूँ कि आप तवज्जों से मुझे सुनें. लम्बा या बोरिंग लगे तब भी.

मुझे बहुत कुछ कहना है.

मैं शुरू से शुरू करती हूँ. दो साल हुए मुझे फेसबुक पर. मेरी ज़िन्दगी को बेहद आसानी से दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वो तेईस साल जो मैंने शिक्षा के लिए परिवार वालों से लड़ते भिड़ते, किताबों से ज़बरन उन्सियत बनाते और दुनिया को समझने की नाकाम कोशिशें करते हुए गुजारें. और दूसरी तरफ वो दो साल जो इस चेहरे की किताब पर आ कर खुद को डिस्कवर करते, अपने मूल्यों के प्रति संजीदा होते और सही-गलत को उनकी प्रचलित परिभाषाओं के परे जा कर समझते हुए बिताये. एक रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण लोगों से मेलजोल पे लगी पाबंदियों के बीच जीते हुए कभी मौका ही नहीं मिला ये समझने का कि इस दुनिया का आम आदमी किस तरह सोचता है. इस मामले में ये फेसबुक बेहद क्रांतिकारी टूल साबित हुआ मेरे लिए. इस की सबसे बड़ी खासियत यही है कि अमूमन लोगों की थॉट-प्रोसेस यहाँ स्पष्ट रूप से नज़र में आ जाती है. और इसी वजह से अपने आसपास के समाज का एक कलेक्टिव जजमेंट आसानी से हासिल हो जाता है. शुरू शुरू में सिर्फ नज्में/ग़ज़लें शेयर करने में व्यस्त रहा करती थी मैं. फिर मित्र अवनीश कुमार जी के कहने पर खुद भी कुछ लिखना शुरू किया. अपना लिखा पसंद करते लोग देख कर सुखद हैरानी होती थी कि क्या मुझे सच में ही लिखना आता है ? अब तक मैं सिर्फ एक पाठक रही थी. कलम पकड़ने का तजुर्बा नया था. लेकिन जब सिलसिला शुरू किया तो रुकी ही नहीं. आप सब ने कदम कदम पर हौसला-अफजाई की. तारीफ़ में पीठ ठोंकी तो गलतियों पर चेताया भी. आहिस्ता आहिस्ता आप सब की नज़रों में मेरा वजूद आकार लेता चला गया. Nobody से Somebody तक के इस सफ़र में बेशुमार नये रिश्तें मिलें. बेहद अनमोल.

फिल्में, किताबें, धर्म, राजनीति हर विषय पर मैंने जी भर के लिखा. सार्थक था या नहीं पता नहीं लेकिन आप सबने खूब पसंद किया. मुझे इस एहसास से लबालब भर दिया आप लोगों ने कि मुझे भी कुछ आता है. मैं इस दुनिया की भीड़ बढाने वाली एक नग मात्र नहीं हूँ. बल्कि मेरा भी एक वजूद है. जिसका एहतराम किया जाता है. जब सरासर अनजान लोग मेरे इनबॉक्स में आ कर मुझ से मशवरा मांगते हैं कि दीदी मुझे क्या करना चाहिए तो मुझे हैरानी होती है अपने दोहरे व्यक्तित्व पर. ये ज़ारा उस ज़ारा से कितनी अलग है जिसकी राय को एहतराम देना तो दूर कोई पूछना भी जरुरी नहीं समझता असली दुनिया में. बेहद परेशान करता रहा है ये सवाल मुझे कि क्या मेरे अन्दर सचमुच वो काबिलियत है कि लोग अपनी परेशानियों को मुझ से शेयर करें और मेरी राय मांगे. अगर हाँ तो मैं अपनी इस सलाहियत से अपने परिवार को क्यूँ नहीं मुतमईन कर पाईं कभी ? आपमें से कुछ एक ख़ास मित्रों को छोड़ कर बाकी किसी को नहीं पता होगा कि मैंने सिर्फ बीए तक की पढ़ाई की है. वो भी प्राइवेट. कॉलेज की शक्ल नहीं देखी कभी. एक अदद इन्टरनेट कनेक्शन लगवाने के लिए मुझे जितना संघर्ष करना पड़ा उसकी मिसाल दूसरी न होगी. ज़माने भर में मशहूर ज़ारा के खुद के परिवार वालों को इस बात की भनक भी नहीं है कि उनकी बेटी फेसबुक जैसी सोशल साईट पर है और इतने ज़बरदस्त तरीके से है. और लग जाने पर नतीजा सुखद किसी हाल में नहीं निकलेगा. यही वजह रही कि मेरी वाल पर प्रोफाइल पिक्चर वाला आयताकार टुकड़ा मेरी शक्ल के लिए हमेशा ही तरसता रहा. यही वजह है कि मेरी शादी की ख़ुशी में मुझे गिफ्ट्स देने के लिए बेकरार आत्मीय जनों को मैं अपना पता तक नहीं बता सकी. क्यूँ कि इस ‘ज़ारा खान’ को अपने परिवार के सामने एक्सप्लेन करना नामुमकिन है मेरे लिए. ना सिर्फ नामुमकीन है बल्कि घातक भी. आप सब लोग समझदार हो. अनकही बातें समझ जाने की काबिलियत आपमें यकीनन होगी.

खुद को परदे में रखने की अपनी इस मजबूरी के चलते मुझे कई बार बेहद शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी. हमारे फेसबुक पर ये चलन आम है कि गाहे-बगाहे लोगों को फेक घोषित करते रहना. इस राय-शुमारी की चपेट में मैं कई बार आई. विदेश में रहते और एनजीओ के बिजनेस में दखल रखते एक मशहूर कामरेड साहब ने सब से पहले मुझे फेक कहा और मेरे तमाम सवालों को वो इस एक इलज़ाम के आड़ में डक करतें गए. फिर उसके बाद गाहे बगाहे कई जगहों पर मेरी प्रोफाइल का लिंक चेंपते रहे. ऐसे ही एक बार एक महिला की वाल पर जारी ऐसे ही डिस्कशन के बीच मेरी लिस्ट में शामिल Santosh Singh सर ने उनसे वो सवाल पूछ लिया जो मेरी जुबान पर हमेशा रहा करता था. वो ये कि नफरत भरें पोस्ट्स लिखने के लिए, धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए या किसी राजनीतिक विचारधारा के अंध समर्थन के लिए तो फेक अकाउंट का औचित्य समझ में आता है लेकिन सार्थक लिखने के लिए क्यूँ ? उस एक सवाल के लिए मैं संतोष सर की कितनी एहसानमंद हूँ ये मैंने उन्हें आज तक नहीं बताया. आज बता रही हूँ. क्यूँ कि आज नहीं बताउंगी तो ये बात मेरे साथ ही चली जायेगी. शुक्रिया संतोष सर, एक निहायत ही सेंसिबल सवाल करने के लिए. खैर, इस तरह का ये एकाध ही हादसा हुआ हो ऐसी बात भी नहीं है. एक और दिल दुखाने वाले घटनाक्रम में मेरे वजूद को मानने से उस शख्स ने इंकार कर दिया जो शुरूआती दिनों से मुझ से परिचित था और इनबॉक्स में मुझ से घंटों बतियाता था. मैंने उसे भी हलाहल समझ के पी लिया. इस तरह की सब से बड़ी और आत्मविश्वास को चकनाचूर करने वाली घटना तब हुई जब एक बेहद ही मशहूर वाल पर मेरे नाम से पोस्ट डाली गई और बाकायदा मेरे वजूद के चिथड़े उड़ायें गए. ना सिर्फ उन्होंने बल्कि उनके दर्जनों समर्थकों ने बिना मुझे जाने-पहचाने बेहद शानदार शब्दों में मेरी इज्जत-अफजाई की. ये बात अलग है कि उसके फ़ौरन बाद उनमें से कईयों ने मुझे रिक्वेस्ट भेजी जिसे कि मैंने स्वीकार भी कर लिया. वो रात बेहद ही भयानक थी मेरे लिए. एक पल को आँख न लगी. फेसबुक छोड़ देने का पक्का निर्णय कर लिया था उस रात. लेकिन सुबह फेसबुक खोलने पर कुछ अज़ीम हस्तियों ने मेरी बेहद दिलजोई की. बहुत सी बातें समझाई. ना जाने का आग्रह किया. और मैं बनी रही. यहाँ ये कहना बेहद जरुरी है कि उन जनाब से आगे मेरे रिश्ते बेहद अच्छे हो गए और उस प्रलयंकारी पोस्ट की कडवाहट का नामोनिशान नहीं रहा. जिसकी मुझे बहुत ख़ुशी है.

हमारे रुढ़िवादी समाज और धार्मिक कट्टरता का शिकार मैं कई बार मजहबी पाबंदियों के प्रति तल्ख़ हुई तो इसकी वजह मेरा भोगा हुआ यथार्थ ही था. एक संकीर्ण मानसिकता से मेरा हुआ नुकसान मुझे मुखरता से लिखने के लिए जैसे उकसाता था. फिर भी मैंने भरसक कोशिश की कि मेरा लेखन महज़ कोसाई का नमूना ही बन कर ना रह जाए. मैंने कोशिश की कि नकारात्मकता से पॉजिटिविटी की तरफ के सफ़र की मैं फ्लैग बियरर बनूँ. यहाँ ये सब लिखने के पीछे मेरा मकसद ये कतई नहीं है कि मैं अपने आप को पीड़ित घोषित कर के हमदर्दियां बटोरूँ. बल्कि मुझे सच में लगता है कि लड़कियों के सपनों की हत्या हमारे समाज के ब्लड सिस्टम में घुला एक बेहद खतरनाक वायरस है. बेहद सामान्य बात है ये. और इसका सामान्य होना ही इसका सब से भयावह पक्ष है. रिवाज ही नहीं है हमारे यहाँ ये मानने का कि लडकियां लड़कों जितनी ही काबिल हो सकती हैं या संसाधनों पर, अपनी दुनिया खुद बनाने के लिए जरुरी मौकों पर उनका भी समान अधिकार है. ऐसा क्यूँ है मैं नहीं जानती. लेकिन ऐसा है इससे शायद ही कोई इनकार करने का साहस करे. हाँ, अपवाद हर जगह होते हैं. यहाँ भी हैं. लेकिन मैं एक बड़े वर्ग की बात कर रही हूँ. ख़ास तौर से मेरे अपने मजहब की लड़कियों की. मेरा दिल लरज़ता है ये देख देख कर कि ज्यादातर मुस्लिम लड़कियों की जिंदगियां सूट का कलर डिस्कस करने में, मेकअप की फ़िक्र में या शादी की अनिश्चितता की सूली पर लटके लटके ही ख़त्म हुई जा रही है. सामयिक राजनीति, देश-दुनिया इन के बारे में उनकी जानकारी जीरो है. दुनिया के महान लोकतंत्र कहलाने वाले हमारे मुल्क का एक बड़ा तबका इसकी निर्माण प्रक्रिया में शामिल तो क्या इससे वाकिफ भी नहीं है. हम इतिहास पर लड़ते भिड़ते रहते हैं. हमारा वर्तमान कितनी सियाह कालिखें अपने चेहरे पर पोते बैठा है इसकी हमें परवाह ही नहीं. ये ऐसा क्यूँ है ये मैं नहीं जानती. इसे कैसे बदला जाएगा इसका भी मुझे दूर दूर तक कोई इमकान नहीं. लेकिन ये गलत है ऐसा मेरा दृढ विश्वास है. बल्कि गलत नहीं गुनाह है.
अब मेरी शादी हो रही है. हमारा समाज बेटियों के मुकाबले बहुओं के लिए कितना सहनशील है ये मुझे अलग से बताने की जरुरत नहीं. और इसीलिए मुझे गारंटी है कि मेरे फेसबूकिया जीवन का ये अंत है. मुझसे कई लोगों ने ये सवाल किया कि इस दुश्चक्र से निकलना इतना मुश्किल क्यूँ है तुम्हारे लिए ? ख़ास तौर से तब जब फेसबुक के माध्यम से मदद करने वाले इतने हाथ उपलब्ध है ? मेरा जवाब ये है कि मैं जानती हूँ के लोगों के ज़हनों को जकड चुकी सामाजिक सीमायें और मजहबी कट्टरता जब अपनी औकात पर उतरती है तो सर्वनाश पर उतारू हो जाती हैं. और मैं खुद को दाँव पर लगाने का हौसला तो कर सकती हूँ लेकिन अपने कुछ गिने चुने आत्मीय जनों के लिए जानलेवा दुश्वारी खड़ी करना मेरे लिए असंभव है. वैसे भी ये सिर्फ एक ज़ारा की बात नहीं है. सिर्फ एक ज़ारा की बेहतरी के लिए शायद हम कुछ कर भी लें लेकिन उन हज़ारों लाखों जाराओं का क्या जिनके सपनों का खून करने के हम आप सब गुनाहगार हैं और फिर भी बेशर्मी से जिए जाते हैं. पाश कहा करते थे कि सब से खतरनाक है सपनों का मर जाना. इस हिसाब से देखा जाए तो हमारा समाज वक्त से पहले क़त्ल कर दिए गए ऐसे सपनों की विशाल कब्रगाह है. वैसे मुझे यकीन है भारत महान क़यामत के दिन तक स्त्री को देवी मानने की अपनी महान परंपरा का निर्वाहन करता रहेगा. दिल में गुबार लिए मैं सिर्फ एक बात कहना चाहती हूँ. अगर समझ आये किसी के तो ठीक है नहीं आये तो भी ठीक. बेटियों को जब तक घर-खानदान की इज्ज़त समझा जाता रहेगा तब तक उनकी औकात एक फर्नीचर पीस से ज्यादा कभी नहीं होने वाली. उसे एक स्वतंत्र अस्तिव मान लेना ही उसके प्रति सच्ची मुहब्बत होगी. और मुझे पूरा यकीन है कि हम उस मुकाम को कभी हासिल नहीं कर पायेंगे.

खैर, लेक्चर बहुत हुआ. मैं ये ऐतराफ करना चाहती हूँ कि आप सब लोगों के साथ मैंने बहुत अच्छा समय गुजारा. मेरे जीवन का ये स्वर्णिम काल था. अनदेखे अनजान लोगों से मुहब्बतें पाना बेहद ख़ास घटनाक्रम था मेरी ज़िन्दगी का. अपने कुछ लिखे पर बड़े बड़े काबिल लोगों की तारीफें पाना बहुत सुकून पहुंचाता था. बेहद सुखद हुआ करती थी ये फीलिंग. अब कभी नहीं आयेगी. टर्मिनल इलनेस की वजह से मौत से नज़रें मिलाते मरीज़ को कैसा लगता होगा ये महसूस कर सकती हूँ इन दिनों. ये इतना लम्बा लिखना बुझने से पहले फडफडाते हुए दिये समान है और इसीलिए इसमें इतना शोर भी है. मैं लगभग श्योर हूँ कि ये मेरे फेसबूकीया जीवन का अंत है. कोई पुनर्जन्म जैसा चमत्कार हुआ तो बात दूसरी है वरना ये बिछड़ना स्थायी ही मानिए आप लोग. फेसबुक से दूर जाना कितना कष्टकारी है ये बयान करने के लिए मैं अगर सारी रात भी लिखती रहूँ तो भी कम है. मेरा तो पूरा वजूद ही फेसबुक की देन है. इससे बिछड़ना ऐसे ही है जैसे ज़हनी तौर पर मर जाना. जब भी कभी कोई नई चीज़ होगी, किसी नेता का बेतुका बयान आएगा, कोई अच्छी किताब पढूंगी, फिल्म देखूंगी तो उस सब के बारे में लिखने के लिए मेरी आत्मा तक छटपटाती रहेगी. पता नहीं उस भावना को मैं कैसे हैंडल करुँगी. लेकिन मुझे सीखना ही होगा.

अपने आने वाले जीवन में यूँ तो करने को कुछ होगा नहीं इसलिए एक छोटा सा मकसद बना लिया है जबरन. ताकि ज़िन्दगी बिलकुल ही निरर्थक ना लगे. अगर संतान का मुंह देखना नसीब हुआ तो मैं उन्हें एक बेहतरीन इंसान बनाने में अपना आप होम कर दूँगी. जो कुछ भी मुझे आता है उसे उन तक ट्रान्सफर करुँगी. कोशिश करुँगी कि वो उन लोगों में शुमार हो जिन्होंने इस दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिशें की है. आप सब दुआ कीजियेगा कि कम से कम इस एक मुहाज पर तो मुझे कामयाबी जरुर जरुर मिले.

उन चार सौ से ज्यादा लोगों से माफ़ी माँगना चाहती हूँ जिनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आई हुई है लेकिन बिछड़ने की इस बेला में मैं एक्सेप्ट नहीं कर सकी. मेरी पुरानी पोस्ट में टैग सभी आत्मीय जनों से मेरा आग्रह है कि वो अपना पता, फ़ोन नंबर आदि मेरी इस मेल आईडी पर मुझे मेल जरुर जरुर करें. Zaara116@gmail.com .बिलकुल भी ना भूलें. जिन्होंने फेसबुक पर पहले दिया है वो भी. फेसबुक का अकाउंट का क्या है, आज है, कल नहीं और तालिबानियों की वजह से परसों की गारंटी नहीं.

अगर आप लोग भूल गए हो तो एक बार फिर बताना चाहूंगी कि फेसबुक पर आज तक जो भी लिखा वो इस ब्लॉग पर उपलब्ध है.

http://zaara-khan.blogspot.in/

कल आखिरी बार आ कर इसे आज तक अपडेट कर दूंगी.

अंत में सिर्फ यही कहूँगी कि मेरा जर्रा जर्रा आप सब लोगों का शुक्रगुजार है. मैं जहाँ कहीं भी रहूंगी हर एक पल आप लोगों को याद करुँगी. ये आभासी दुनिया मुझे असल दुनिया से ज्यादा भायी थी. इसका क़र्ज़ भी है मुझपर. और मैं एहसान-फरामोश नहीं. मैं एक बार फिर भरे अंतकरण से और नम आँखों से आप सब लोगों से विदाई चाहती हूँ. और हाँ, मेरे ख़ास अजीजों से गुजारिश है कि वे अपनी आँखें ना भिगोये प्लीज. बेटी की बिदाई में भी कोई रोता है भला ? बस मेरे लिए दुआ कीजियेगा कि मेरे संतप्त मन को कभी न कभी करार आये. या फिर मेरी सवाल पूछने की आदत छूट जाए.

सदा मुस्कुराते रहिएगा आप लोग. और इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश में जुटे रहिएगा.

अंत में एक फ़िल्मी गीत की ये पंक्तियाँ हाजिर है हमेशा की तरह,

“साथी यूँ तुम को मिले,
जीत ही जीत सदा
बस इतना याद रहे,
इक साथी और भी था.”

 ------- आपकी अपनी 'ज़ारा'.

Thursday, December 18, 2014

तमाम फेसबूकिया अजीजों के लिए

Prem Prakash दद्दा, Alive Hopes जी, हितेन्द्र अनंत भाई, अवनीश कुमार जी,
Mohmmad Mushtaq Patel भाई, तारीफ़ भाई, Manish Dubey जी, विभांशु दिव्याल जी,
Gurvinder Singh भाई जी, डॉ. अजीत जी, Ali Syed सर, Syed Quaisar Hussain Zaidi भाई, Lenin Vivek Bansal जी, Manmohan Singh जी, Suchhit Kapoor जी, रीटू खान जी, Deonath Dwivedi सर, Kapil DEv जी, Akram Shakeel जी, Santosh Yadav जी, सतवीर सिंह भाई जी, Emran Rizvi जी, Shakil Ahmed Khan भाई, Khalid A Khan जी, Ashish भाई, Shabbir Husain Qureshi जी, Pankaj Srivastava जी, Shahid Mansoori जी, बे- धर्मी जी, बे- शर्म जी, Tara Shanker जी, गिरीश विश्वकर्मा जी, Anuj Sharma जी, संदीप भालेराव जी, Jalal Tamboli जी, Ujjwal Pandey, Syed Shanur Rahman जी, Vipul Gupta जी, Sunil Amar जी, Abdullah Aqueel Azmi भाई, आत्म अभिरक्षा जी, विनोद यदुवंशी जी, Somnath Chakraborti कामरेड, Yuva Deep Pathak जी, Nalin Mishra जी, Vivek Srivastava जी, Ashu Bhai Mansoori जी, Ashutosh Ujjwal जी, Aleem Khan जी, Mayank Priyadarshi जी, Rounak Thakur जी, Mandeep Kataria जी, अवनीश जी, सय्यद ज़फर रज़ा जैदी भाई, Omkar Dixit भाऊ..
मेरी प्यारी Prerna, शीरीं बाजी, Ghazal, Aarohan Paintings श्रेया, Najiya, Iram,
Priyanka दी, Varsha Patil ताई, Anita दी, हेमा दी, Sudesh दी, Fatima Tabassum अप्पी, Amrita दी, Huma बहना, Ruqaiya बाजी, Amrita Raniyal दी, नाज़िश अंसारी बाजी, Namrata Shukla दी, Shruti जी, Snehal जी, Reshma Hitendra Anant ताई, दीप संदेश जी...

आप सब लोगों से मुझे एक ही बात कहनी है.

~~~~~~~~~ थैंक यू ~~~~~~~~~~~

आप सब का मेरी ज़िन्दगी में होने के लिए शुक्रिया. शुक्रिया मेरी मुलाक़ात मुझ से करवाने के लिए. आप ने - आप सब ने - समय समय पर मेरी बेशुमार हौसला अफजाई की. मेरी अच्छी बातों के लिए जहां मेरी दिल खोल के तारीफ़ की वहीँ गलतियों पर टोका भी. आपने मुझमे वो आत्मविश्वास भरा जिसके वजूद से मैं खुद ही अनजान थी. आप लोगों को देख देख कर मैंने सीखा कि प्रेम, करुणा, शान्ति, समता आदि मूल्य कभी भी आउट ऑफ़ फैशन नहीं हो सकते. उन की हिफाज़त करने वाले लोगों की तादाद अभी भी काफी ज्यादा है. आप सब के साथ बिताये लम्हें मेरे जीवन की वो धरोहर है जिसे अंतिम सांस तक भी भुलाना नामुमकिन है. सवा अरब लोगों की आबादी का मात्र एक नग इस लड़की को आप लोगों ने 'ज़ारा' बनाया. बेशुमार प्यार दिया. ख़ाक से उठा कर गले से लगाया. मैं आपकी बेलौस मुहब्बत की कर्ज़दार हूँ. और हमेशा रहूंगी.
जाहिर है अपनी नादानी की वजह से मैं बहुत से नामों को मिस कर रही होउंगी. इसके लिए मुझे माफ़ कर दिया जाए प्लीज. आज कल ज़हन ठीक से काम नहीं कर रहा.

इन सब आत्मीय जनों के अलावा उन सब का भी शुक्रिया जिन्होंने मेरी पोस्ट्स पर अच्छे अच्छे कमेंट्स कर के मेरा हौसला बढाया.

आप सब ना होते तो मुझे पता ही नहीं चलता कि मुझ में क्या क्या हुनर है. हालांकि मेरे कहने का मतलब ये कतई नहीं है कि मैंने किसी आला मुकाम को हासिल कर लिया है. मैं अभी भी नातजुर्बेकार और जिज्ञासु तालिब-ए-इल्म ही हूँ. हाँ, सीखने समझने की प्रोसेस हमेशा जारी रहेगी इसका वादा है आप लोगों से. मुहाज चाहे जो हो फिर.

आप सब का दिल की तमामतर गहराइयों से, वजूद के जर्रे जर्रे से शुक्रिया... थैंक यू सो मच..
"हाँ मानती हूँ कि मुझे में थी चमक सी थोड़ी जरुर,
गर आप न होते, कैसे बनती, कांच से कोहिनूर.."

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आपकी अपनी
ज़ारा.

Wednesday, December 17, 2014

उम्मीदें कभी नहीं मरती

पूरी दुनिया पर छाई मनहूसियत इंसानियत के जिंदा होने की गवाही दे रही है. हर वो आँख जो इस हादसे पर रोई है इस बात पर प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है कि इस घुप्प अँधेरे से रास्ता हम जरुर ढूंढ निकालेंगे. नहीं हारेंगे हौसला. धुंधलाती नज़रों, लरजती आवाजों और कांपते वजूदों के साथ खडें हैं हम एक दूसरे का हाथ थाम कर. एक दूसरे के लिए, मनुष्यता के लिए, नई पीढ़ी के सपनों की ज़मीन बचाने के लिए.
ईश्वर को हमने देखा नहीं. वो है या नहीं इस पर बहस भी फ़िज़ूल है. हमने देखी है मानवता. हम ने देखें है नन्हे नन्हे मासूम खिलौनों के लिए मचलते हुए. सुना है उनकी किलकारियों को. छुआ है उनकी मुस्कुराहटों को. जिया है उनके जरिये से कुदरत को. इस सब को बचाने के लिए हम डटें रहेंगे. नहीं हारेंगे. नहीं टूटेंगे.

कभी नहीं.

कभी भी नहीं..

Tuesday, December 16, 2014

धरती का जहन्नुम

नर्क और कहीं नहीं है. पाकिस्तान में है.
जहाँ बच्चों को घेर के मारा जाता है. जहाँ ब्लास्फेमी लॉ जैसे बर्बर कानून हैं. जहाँ लॉ एंड ऑर्डर हुक्मरानों की सुरक्षा करने तक सीमित है और अक्सर उसमे भी फेल ही रहता है. जहाँ अगली सांस की गारंटी नहीं.
नहीं. जहन्नुम और कहीं हो ही नहीं सकता. वो पाकिस्तान में है. यकीनन है.

Monday, December 15, 2014

अजीब

आईना अजीब है ना चेहरा अजीब है
बस तेरे देखने का तरीका अजीब है


ये जानते हुए के शिकारी की ज़द में है,
बैठा है शाख पर वो परिंदा अजीब है.....


फिर भी मैं उसी बात पर हैरत-ज़दा रही,
हालांकि जानती हूँ मैं क्या क्या अजीब है...


------- अज्ञात.

Tuesday, December 9, 2014

आगाज़

हर डर को पीछे छोड़ कर परवाज़ करेंगे
हम फिर से नये सफ़र का आगाज़ करेंगे


तुम तल्ख़ लहज़ा कायम रखना जहाँ वालों,
हम खुशदिली को अपना अंदाज़ करेंगे


ज़ाहिर न हो पाये कभी हाल-ए-दिल किसी पर,
हम फूल, हवा, खुशबू को हमराज़ करेंगे


हस्सास बहुत हैं मेरे ख्वाबों के गुलों-रंग,
बस जरा सा छू लो, ये आवाज़ करेंगे


भाती है फकीरों की सादा-दिली हम को,
क्या मुतमईन हमें ये तख़्त-ओ-ताज करेंगे


किस किस को सौंपनी है ख़्वाबों की विरासत,
ये फैसला भी शायद हम आज करेंगे


लाजिम है हसरतों का हर क़र्ज़ चुका दें हम,
तामीर उन की कब्र पर इक 'ताज' करेंगे


जिस हाल में रखोगी हम तुझ से निभा लेंगे
ऐ ज़िन्दगी तुझे ना कभी नाराज़ करेंगे


हर हाल में की है तूने मुहब्बत की वकालत,
ये दोस्त तुझ पे 'ज़ारा' सदा नाज़ करेंगे..


--------- ज़ारा.
08/12/2014.

Sunday, December 7, 2014

बीज

ये दुनिया मुझे दफ़न करना चाहती है.
लेकिन दुनिया को ये नहीं पता कि मैं एक बहुत शानदार बीज हूँ.
नई कोंपल के उग आने में कितनी देर लगेगी ?