Tuesday, October 28, 2014

उदयन

मशाल :- अंधेरी राहों में भटकन से निजात दिला कर सही रास्ता दिखाने के काम आने वाली चीज़. अधेरे से लड़ने और जीतने के लिए जरुरी अविष्कार. लेकिन यही मशाल अगर किसी सरफिरे के हाथ लग जाए तो वो बस्तियां भी जला सकता है. यानी मशाल उपयोगी सिद्ध होगी या विध्वंसक ये उसे थामने वाले की नीयत पर डिपेंड करता है.

हथियार :- आत्मरक्षा के इरादे से बनाई गई वो चीज़ जो इंसान को अपने जान माल की हिफाज़त में बहुत सहायक सिद्ध होती आई है. लेकिन इन हथियारों का बेजा इस्तेमाल करने की अंधी होड़ मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गई. कुल मिलाकर फिर वही बात कि किसी चीज़ का इस्तेमाल करने के पीछे की नीयत ही उसकी प्रासंगिकता डिफाइन करती है.

भाषा :- एक दूसरे से संवाद साधने के, अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने के काम आने वाला प्रभावी माध्यम. प्रेम भरे कुछ शब्द किसी भी व्यक्ति को अपनी तरफ खींचने में बेहद सहायक होते हैं. वहीँ भाषा का घटियापन, निम्न स्तर की शब्दावली आपसे लोगों को दूर ही ले जाती है. भाषा का दूषित होना एक व्यक्तित्व और समाज दोनों के लिए ही हानिकारक है. यहाँ भी व्यक्ति की नीयत का पूरा पूरा दखल है.

और.... और अब फेसबुक जैसा क्रांतिकारी टूल...

अक्सर देखा गया है कि इस शानदार और सहज उपलब्ध मंच को लोग अपनी निजी कुंठाएं निकालने का माध्यम बनाएं रहते हैं. तोड़ने वाली, इंसान को इंसान से अलग बताने वाली, विघटनकारी बातों का बहुत बड़े पैमाने पर बोलबाला है इस मंच पर. फेसबुक पर हासिल लोगों तक तत्काल बात पहुंचाने की सुविधा का ज्यादातर दुरूपयोग ही होते देखा है मैंने. ( 'ज्यादातर' पर जोर है, सिर्फ ऐसा ही है ये नहीं कहना मुझे ) शायद लोगों को नकारात्मक बातें ज्यादा अपील करती है तो ऐसी बातों का अम्बार लगा हुआ है फेसबुक पर. कई बार बेहद निराशा हुआ करती है भारतीय जनमानस की ये हालत देखकर. लेकिन फिर कभी कभी कुछ ऐसा भी मिल जाता है जिससे अच्छाई पर से उठ रहा भरोसा जोर शोर से कायम हो जाता है. फेसबुक को बन्दर के हाथ लग चुकी मशाल तसलीम करते करते अचानक कोई रौशनी दिलो-दिमाग को रौशन कर देती है और नेकनीयती की अहमियत वाली बात रह रह कर दिमाग में गर्दिश करने लगती है. इस फेसबुक ने कुछ ऐसी शानदार चीजें भी दी है जिसके लिए इसका पूरी श्रद्धा से शुक्रगुजार होने को मन करता है.

जैसे कि "उदयन".

'उदयन' वो मशाल है जिससे आजकल सारा फेसबुक जगमगा रहा है. एक दूसरे के धुर विरोधी लोग भी उदयन की मुक्त कंठ से तारीफ़ कर रहे हैं. इस को कामयाब बनाने में बढ़ चढ़ के अपना योगदान दे रहे हैं. उदयन नाम है समाज के सब से निचले तबके के बच्चों को सम्मान की ज़िन्दगी दिलाने की नायाब कोशिश का. उदयन जज्बा है उन बच्चों की आँखों में सपने भरने का और फिर उन्हें पूरा करने के निरंतर प्रयास करने का. उदयन फेसबुक से हासिल उन नायाब नगिनों में से है जिसके लिए इससे जुड़े हर एक शख्स को गले लगाने का मन करता है. बातों की फसल टनों की मात्रा में काटने वाले फेसबुक से ही ऐसा एक उपक्रम बाहर निकल के आना जो हकीकत की जमीन पर उम्दा काम करने लग गया हो सोशल मीडिया की उपयोगिता पर लगे प्रश्नचिन्हों से कुछ हद तक निजात दिलाता है. बेहद बेहद बेहद शानदार पहल है 'उदयन'.

मुसहर बस्ती के बच्चों के लिए छत, खाना-पीना, कपडे, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने का बीड़ा उठाया है उदयन ने. इसके लिए आवश्यक चीजें जुटाने में फेसबूकिया समाज जिस तरह से आगे आ रहा है वो अचंभित कराने वाला है. अजित सिंह जी के अथक प्रयासों द्वारा सपने से हकीकत तक का सफ़र पूरा करने वाला उदयन ऋणी है उस हर एक शख्स का जिसने इसे कामयाब बनाने में हिस्सा लिया. भारत के कोने कोने से इन बच्चों को मदद पहुंचाने के लिए हाथ खड़े हो रहे हैं. कोई चीज़ें भेज रहा है, कोई पैसे भेज रहा है, कोई कापी-किताबें तो कोई अपने जीवन का बहुमूल्य समय इन बच्चों को पढ़ाने में खर्च करने के लिए सहर्ष तैयार है.
उम्मीद है ये महा-दुष्कर कार्य इसी जोशो-जूनून से आगे बढ़ता रहेगा. सदियों से छले हुए इन लोगों को सपने तो बहुत दिखाए गए हैं लेकिन टिका कोई नहीं. उदयन टिके, जमा रहे ये शुभकामना. और हर उस शख्स का दिल से आभार जो इस पहल का हिस्सा है. जिसने अपना योगदान देकर इसे मूर्त रूप में आने में मदद की. अजित सिंह जी की तारीफ़ जितनी की जाए कम है. उन्होंने अपना ओढना-बिछाना सब उदयन को बना लिया है. और जब किसी कार्य में तन, मन, आत्मा सब कुछ लगा हुआ हो उसे कामयाब हो के ही रहना है. ( विशेष नोट :- उदयन का एक तत्कालिक फायदा ये भी हुआ है कि पहलवान जी की बमबारी से आज कल हम जैसे मुल्लों, सेकुलरों को थोड़ी राहत मिली है. उदयन उन्हें सदा ऐसे ही व्यस्त रखे ये दुआ करने वाले भी हजारों होंगे. )

तो बेहद संजीदा और सार्थक इस पहल को कामयाब बनाना हम सब का फ़र्ज़ है दोस्तों. आप से जितनी मदद हो सकती है कीजिये. कपडे, शाल, स्वेटर, कापी, किताबें, रुपये-पैसे जिस चीज़ से भी आप मदद करना चाहे आपका स्वागत है. सामान भेजने के लिए कुरियर का या डाक का पता जानने के लिए अजित जी से संपर्क करे. नकद रकम के लिए एक अकाउंट भी है जिसमे आप पैसे ट्रान्सफर कर सकते हैं. डिटेल्स के लिए अजित जी से संपर्क कीजियेगा.

उदयन हम सबका है दोस्तों. और ये उन मासूम बच्चों पर कोई एहसान नहीं बल्कि हमारी मनुष्यता पर फ़र्ज़ है. आइये मिलजुलकर इस असाधारण कोशिश को कामयाब बनाएं. और दुआ करें कि ऐसे ज़ज्बे से हमारा समाज कभी खाली न हो. कहीं भी जले लेकिन ये मशाल जलती रहे. कारवां चलता रहे.

Monday, October 27, 2014

क्या वो सुबह आयेगी ?

"उड़ने खुलने में है खुशबू, ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं..."


कैफ़ी आज़मी साहब लिख तो गए लेकिन समझा नहीं गए. आने वाले हज़ार-पांच सौ सालों में शायद समझ जायें लोग. लेकिन तब तक मर्द के पहलू की अहमियत बरकरार रहेगी. उसे नकारने वाली रेहानाओं को हम भेजते रहेंगे जन्नत के सफ़र पर. अपने वजूद से मर्द का पहलू गुलजार न किया तो किस काम की है औरत ? यही तो धर्म है उसका. इसी काम के लिए तो बनी है वो. पता नहीं वो कौन सी सदी होगी जब औरत को उसके जिस्म से बाहर निकाल कर भी सोचा जाएगा. साहिर उम्मीद बंधा गए हैं कि,

"वो सुबह कभी तो आएगी."

न जाने कब आयेगी ! न जाने कितनी अंधी रातों का सहरा पार करने पर दिखाई देगी ! पता नहीं आएगी भी या नहीं ! शायद तब आये जब हम जैसों के लिए उसकी अहमियत ही ख़त्म हो चुकी हो. हमें तो साहिर साहब की उम्मीद झूठी नज़र आती है और ग़ालिब का कहा तर्जुमाने ज़िन्दगी लगता है.

"हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को खबर होने तक..."

Saturday, October 25, 2014

हैप्पी न्यू ईयर

देश में विकास की रफ़्तार अचानक से इतनी तेज़ हो गई है कि दिवाली के फ़ौरन बाद लोग 'हैप्पी न्यू ईयर' बोल रहे हैं.

बताओ तो...!!!

आदतें अज़ाब की

जहन्नुम के डर से आज आज़ाद हो गए हम,
दुनिया में रह के आदतें पड़ गई अज़ाब की...!!


 --- ज़ारा.
25/10/2014.

Thursday, October 23, 2014

अच्छे बच्चे

अच्छे बच्चे
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कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते, ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं

बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं

इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर।

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----- नरेश सक्सेना.

Wednesday, October 22, 2014

उज्ज्वल के लिए

कामयाबी दो तरीकों से मिलती है. एक तरीका तो सीधा सादा है. आपके पास अपने ध्येय को हासिल करने के तमाम जरुरी संसाधन उपलब्ध हो, कामयाबी के लिए जरुरी मौके हासिल हो तो आपको कामयाबी मिलनी ही मिलनी है. दूसरा तरीका थोडा टेढ़ा है. संसाधनों के नाम पर आपके पास ज्यादा कुछ होता नहीं, मौके का इंतज़ार करना वक्तखाऊ काम लगता है तो ऐसे में बंदा जो उपलब्ध है उन्हीं को सहेज कर अपनी राह पर चल पड़ता है. जो कुछ आता है उसे पेश करने के मौके खुद बना लेता है. ऐसे ही एक बन्दे को मैं जाती तौर से जानती हूँ. वो है अपने Prem Prakash दद्दा के होनहार सुपुत्र Ujjwal Pandey...

उज्ज्वल की फिल्म मेकिंग में गहरी दिलचस्पी है. इसी दिलचस्पी और लगन का नतीजा है कि आज यूट्यूब पर उज्ज्वल पाण्डेय टाइप करने पर हासिल रिजल्ट्स में उनकी बनाई ढेरों शोर्ट फ़िल्में नज़र आती हैं. अलग अलग विषयों पर बनाई गई ये फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्रीज अच्छी तो हैं ही साथ ही ये इस बात की तरफ एक सुखद इशारा है कि आज की युवा पीढ़ी उतनी भी गैरजिम्मेदार नहीं जितना उन्हें समझा जाता है. उज्ज्वल ने अपनी फिल्मों के लिए जो विषय चुने हैं उससे साफ़ जाहिर है कि ये युवा वर्ग अपने समाज पर पैनी नज़र तो रखता ही है और उसके लिए चिंतित भी है. 'होल इन सोल' फिल्म में ये दिखाते हैं कि कैसे राजनीति अपने फायदे के लिए दो समुदायों के बीच की खाई को और चौड़ा करने का काम करती है और पहले से स्थापित सहज स्वाभाविक भाईचारे की जड़ों पर वार करती है. 'कॉलेज के बाद क्या' में ये उस युनिवर्सल प्रश्न का उत्तर पाने की जद्दोजहद करते हैं जिससे हर कॉलेज गोइंग युवा परेशान रहता है. लेकिन मेरी सब से फेवरेट है डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'पिलग्रिम्स-एक यात्रा'. बहुत ही उम्दा. कैसे एक शख्स ने कुछ किताबों के सहारे एक बुक डेपो खोला और आगे अपनी ज़िन्दगी के कीमती तीस साल लगाकर उसे एक बहुमूल्य खजाने में बदल दिया. और फिर कैसे कुदरत के एक ही क्रूर झपट्टे ने इस आलिशान महल को धाराशाई कर दिया. शून्य से चल कर शिखर को छूने की ये कहानी प्रेरणा का अद्भुत स्त्रोत है. रामानंद तिवारी की जीवटता और संघर्ष का ये लेखा जोखा आपको ये बतायेगा कि कैसे 'कुछ नहीं' से 'सब कुछ' तक का सफ़र महज अपनी जिजीविषा के सहारे पूरा किया जा सकता है. एक छोटी सी किताब की दुकान में नौकरी करने से शुरू हुई ये यात्रा लगभग 30,000 वर्ग फीट में फैले आलिशान 'पिलग्रिम्स बुक हाउस' की परमोच्च सीमा तक जा पहुंची. ये सफ़र, सदा मुस्कुराते रामानंद तिवारी जी और जीवन की समस्त जमा पूँजी 'पिलग्रिम्स' के अकस्मात अंत पर ठहाके लगाते रामानंद तिवारी जी, ये सब सब देखने लायक है. बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री..

उज्जवल इस वक्त मास कम्यूनिकेशन ग्रेजुएशन के तीसरे साल में है. फिल्म एडिटिंग, सिनेमेटोग्राफी आदि आदि सब उज्ज्वल ने अपने खुद के प्रयासों से सीखी है. कुछ सालों तक बनारस की नागरी नाटक मंडली से जुड़कर देश भर घुमक्कड़ी की. इसी दौरान कुछ फिल्म वालों का साथ नसीब हुआ. एक छोटे से कैमरे से कुछ फ़िल्में बना डाली. इसी बीच फीस्ट ऑफ़ वाराणसी नामक फिल्म की शूटिंग हुई तो उसमे उज्ज्वल को कुछ काम मिला. जिससे कमाए चालीस हज़ार रुपयों से उसने एक बढ़िया कैमरा खरीद लिया और अपने शौक को जोर शोर से आगे बढ़ाया. महज बीस साल का ये उत्साही युवा अपनी मित्र मंडली के साथ मिलकर फ़िल्में बनाने लगा. फिल्म के सब एक्टर्स, वॉइस ओवर आर्टिस्ट, आदि आदि इनके मित्रगण ही होते हैं अमूमन. सब को एक्सपोजर भी मिलता है और कुछ क्रिएटिव किये होने का सुख भी. परियों सी खूबसूरत Manisha Rai, सुरीली श्रेया, रिशव मुखर्जी, अक्षरा अग्रवाल और ऐसे ही अन्य साथियों के साथ उज्ज्वल का उज्ज्वल सफ़र जारी है.

अब तक उज्ज्वल एंड टीम दो फिल्म फेस्टिवल आयोजित करा चुकी है. आने वाले 8, 9, 10 नवम्बर को आईपी मॉल, सिगरा वाराणसी में इन युवाओं द्वारा आयोजित तीसरा फिल्म फेस्टिवल है. मुख्य अतिथि के रूप में मशहूर फोक सिंगर मालिनी अवस्थी जी आमंत्रित हैं. बनारस या आसपास रहने वाले सभी गुणीजनों से अनुरोध है कि समय निकाल कर इन युवाओं की हौसला अफजाई करने पहुँच जाइएगा.. इन्हें आपके आशीर्वाद की सख्त जरुरत है.

ज़ारा दी की तरफ से उज्ज्वल, श्रेया, मनीषा और पूरी टीम को ढेरों शुभकामनाये.

हैप्पी दिवाली

शुआएं नूर की तुम इस में इतनी भर देना
दिया दिया ना रहे आफताब कर देना...!!!


समस्त भारतीयों को दीवाली की शुभकामनाएं..

Monday, October 20, 2014

दर्द का रोजनामचा

ग़ालिब कह गए हैं कि,

"इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना..."


क्या मतलब हुआ इस बात का ? कि अगर दर्द को बर्दाश्त करने की कूव्वत लानी है तो उसे हद से बढ़ जाने दें ? उसे उस मुकाम तक ले आयें जहाँ वो आपके वजूद का ही एक हिस्सा लगने लगे ? उसकी आदत हो जाने दें ? दर्द से इतनी उन्सियत क्या आपमें ज़िन्दगी को, उसकी ज्यादतियों को बर्दाश्त करने की ताकत सच में भर देगी ? चचा ग़ालिब कुछ और रौशनी डाल जाते तो बेहतर होता.
इसी बात को घुमा फिरा कर एक और शेर में उन्होंने कुछ यूँ कहा,

"रंज से खूंगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गईं."


क्या सचमुच ? मुश्किलातों की अधिकता क्या उनसे निपटने में कारगर सिद्ध होती है ? क्या बंदा तब ज्यादा अच्छी तरह लड़ सकता है जब उसे कार्नर किया जाए या उसकी पीठ दीवार से जा लगी हो ? या फिर मुश्किलों में गुजर बसर करने की आदत हो जाती है ? क्या फिरंगी लोग इसे ही 'यूज्ड टू होना' कहते हैं ? सही तरीका क्या है ? मुश्किलें कम करना या उन्हें ज़िन्दगी का हिस्सा मान लेना ? दर्द ख़त्म करना या उसे हद से बढ़ने देना ? कन्फ्यूज कर गए चचा...!!
और फिर एक सवाल ये भी कि कई बार दर्द से पीछा छुड़ा लेना या मुश्किलातों को दफा करना बन्दे के अधिकार-क्षेत्र से बाहरी चीज़ होती है. यानी उसके पास चॉइस नहीं होती. तो फिर वो क्या करे ? चचा की ग़ज़लों में पनाह तलाशें ? मानीखेज शेरों से मुतास्सिर हो खुद को यकीन दिलाये कि ये हद से गुजरेगा तो दवा बन जाएगा ? या ज़िन्दगी अहमद फ़राज़ को गुनगुनाते हुए बिताएं ??

"शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है,
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है...!!"


बोलो बोलो.. चचा तो रहे नहीं, कोई उनका शागिर्द ही बता दे...!!

Saturday, October 18, 2014

देशद्रोही

कहीं पढ़ा था ये... कहाँ पढ़ा याद नहीं.. सेव कर लिया था तब...
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दो दुश्मन ( ऐसा दोनों के हुक्मरानों ने बताया था, और हुक्मरान हमेशा सच बोलते हैं ऐसा मान लेना ठीक रहता है ) देशों के फौजियों की सीमा पर बातचीत हुई.....
"अगर मैं तुम्हें गोली मार दूँ तो क्या होगा ?"
"तुम बहादुर सैनिक कहलाओगे और मैं शहीद."
"अगर तुम मुझे मार दो तब ?"
"तब मैं बहादुर सैनिक कहलाऊंगा और तुम शहीद.."
"और अगर हम दोनों हथियार किनारे रख कर कुछ बढिया सा पकाएं और एक दो गीत गायें तब ?"
"तब हम दोनों ही देशद्रोही कहलायेंगे."

Friday, October 17, 2014

हैदर : ए म्यूजिकल वंडर

हैदर फिल्म की काफी सारी समीक्षाएं पढ़ ली फेसबुक पर. कुछ मित्रों ने बहुत ज्यादा सराहा फिल्म को तो कुछ लोगों ने जम के मजम्मत की. हम ने तो देखी ही नहीं तो क्या कह सकते हैं ! लेकिन विशाल भारद्वाज का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए इतना तो सेफली कहा जा सकता है कि यकीनन देखने लायक होगी. जब तक इसे देखने का मौका नहीं मिल जाता हम ने इसका म्यूजिक सुनने की ठानी. पूरा अल्बम डाउनलोड कर लिया. और यकीन जानिये दिल खुश हो गया. बहुत दिनों बाद ऐसा एक अल्बम हाथ लगा जिसके एक दो नहीं लगभग सभी गीत बेहद पसंद आये. आइये नज़र डालते हैं.

1) गुलों में रंग भरे--- बिलाशक इस अल्बम का सब से शानदार गीत फैज़ अहमद फैज़ की ये ग़ज़ल ही है. हालांकि मेहंदी हसन समेत तमाम दिग्गजों ने इसे गा कर जिस मुकाम तक पहुंचाया है वहां तक पहुंचना नामुमकिन ही है, फिर भी अरिजीत सिंह की आवाज़ में इसे सुनना शानदार अनुभवहै. अरिजीत सिंह ने इसे बहुत मनोयोग से गाया है. इस ग़ज़ल में गिटार का मुक्त प्रयोग इसे नयी पीढ़ी से और ख़ास तौर से अरिजीत के प्रशंसकों से इंस्टेंटली जोड़ने में सक्षमहै. कुल मिलाकर एक बेहतरीन गीत.

2) बिस्मिल ----- वैसे तो किसी गीत को पसंद करने के लिए उसका सुखविंदर की आवाज़ में होना ही काफी है. उस पर अगर शानदार कम्पोजीशन और मानीखेज लफ़्ज़ों का साथ हो तो बात ही क्या ! इसे सुन कर क़र्ज़ फिल्म के मशहूर गीत ‘एक हसीना थी’ की याद आना लाज़मी है. गीत के मार्फ़त कहानी सुनाने का ये अंदाज़ मनमोहक है. सुखविंदर के बारे में क्या कहना ! वो जब भी गाते हैं कमाल कर देते हैं. हाई पीच के गाने गाने में उनका कोई सानी नहीं. अद्भुत गायकी के धनी हैं वो. ये गीत बेशक उनके गाये छैयां छैंया जैसे मास्टरपीस गीतों की पंक्ति में शामिल होगा. इसका पार्ट टू ‘एक और बिस्मिल’ के नाम से है, वो भी एक बेहतरीन प्रयोग है.

3) दो जहान  ----- इसके बाद इस अल्बम से मेरा पसंदीदा गीत है वेटरन गायक सुरेश वाडकर का गाया ‘वो मेरे दो जहान साथ ले गया’. हालांकि इसे कबूलना थोडा शर्मिंदगी भरा होगा लेकिन इसे सुन कर मेरी आँखों में इंस्टेंटली आंसू आ गए. ‘वो बेपनाह प्यार करता था मुझे, गया तो मेरी जान साथ ले गया’  जैसे शब्द सिहरन पैदा कर देते हैं. गुलज़ार के शब्दों का तिलिस्म आपको जकड़ लेता है. सुरेश वाडकर को एक ज़माने के बाद सुनना बहुत अच्छा लगा. कश्मीरी लोक गीत को श्रद्धा कपूर ने पूरी इमानदारी से गाया है और वो हिस्सा भी अच्छा बन पड़ा है. कुल मिला कर बार बार सुना जा सकने वाला गीत. ख़ास तौर से रात की तनहाई में.

4) आज के नाम ----रेखा भारद्वाज के लिए मैं एक ही बात कहना चाहती हूँ. रेखा अगर ग्रोसरी की लिस्ट भी पढेगी तो वो भी सुर में होगी और सुनने वाले को असीम आनंद की प्राप्ति होगी. बेहद टैलेंटेड रेखा जी की आवाज़ में ये गीत अपने बेटे, पति या भाइयों को खो चुकी तमाम बेवाओं, ब्याहताओं, बहनों, बेटियों को समर्पित है. जो चले गए हैं उनसे ज्यादा बड़ी ट्रेजेडी पीछे रहने वालों की होती है. इस तल्ख़ हकीकत को कलमबद्ध करता ये गीत क्रूर होने की हद तक ईमानदार है. रेखा जी ने गाया भी शानदार ढंग से है. ये गीत सुन कर गुज़र जाने के लिए कतई नहीं है. इसे सुन कर थमना होगा. सोचना होगा. और हो सके तो कुछ अप्रिय सवालातों से रूबरू भी होना होगा. 

“जिन की आँखों के गुल,
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे,
बेकार खिल खिल के मुरझा गए हैं
उन ब्याहताओं के नाम......”

ऐसे अल्फाज़ थर्रा देते हैं. रेखा जी का उर्दू डिक्शन भी शानदार है. एक बेहतरीन तोहफा..

5) झेलम ----  इस गीत को विशाल भारद्वाज ने खुद गाया है. शांत गति से बहते झरने की तरह ये गीत आपको कश्मीर की वादियों में ले जाता है. विशाल एक मल्टीटैलेंटेड आर्टिस्ट हैं इसमें कोई शक नहीं. उनकी धीरगंभीर गायकी इस गीत को एक अद्भुत वलय प्रदान करती हैं.  जितनी उम्दा गायकी, उतना ही उम्दा संगीत. कानों को सुहाना लगने वाला गीत. 

6)  सो जाओ ----कश्मीरी फोक सिंगरों द्वारा गाया गया ये गीत जीवन की क्षणभंगुरता की तरफ मजबूत इशारा करता है. गुलज़ार साहब द्वारा लिखे डार्क शेड लिए लफ्ज़ एक अनोखे वातावरण के निर्माण में सक्षम है. इसी गीत का एक रॉक वर्शन भी है. जिसे विशाल ददलानी ने ज़बरदस्त तरीके से गाया है.

7) खुल कभी तो ----अरिजीत सिंह को विशाल भारद्वाज ने दुबारा इस्तेमाल किया है इस शानदार प्रेम गीत में. गुलज़ार के शब्दों के बारे में कुछ कहने की जरुरत ही नहीं है. इस में एक जगह आये ‘झुक के जब झुमका मैं चूम रहा था, देर तक गुलमोहर झूम रहा था’ सुनकर मुझे दुष्यंत कुमार और उनकी वो प्रसिद्द ग़ज़ल बरबस याद आई. बेहद उम्दा गीत.


कुल मिलाकर हैदर एक बेहतरीन संगीत अल्बम लगा मुझे. विशाल भारद्वाज की फिल्मों में संगीत पक्ष हमेशा ही सशक्त रहा करता है. हैदर भी इसमें अपवाद नहीं है. एक बेहद शानदार संगीत के निर्माण के लिए विशाल, गुलजार और टीम को दिल से बधाई. हैदर को सुनने की इच्छा हो तो वक्त निकालिएगा दोस्तों. ये हड़बड़ी में सुना जाने वाला संगीत कतई नहीं है. इसे थम कर सुनना होगा. हाँ, अगर ‘चार बोतल वोडका, काम मेरा रोज़ का' आपका फेवरेट गीत है तो इस अल्बम से दूर ही रहिये.

Thursday, October 16, 2014

आशियाना

ज़िन्दगी की ये ज़िद थी,
के ख्वाब बन के उतरेगी.....

नींद अपनी ज़िद पे थी,
के इस जनम ना आयेगी....

दो ज़िदों के साहिल पे,
मेरा आशियाना था.....!!!

---------- गागर में सागर बाय अज्ञात.

Saturday, October 11, 2014

मीडिया को ना भाया, तो जीवन व्यर्थ है भाया..

मलाला तो चलो गोली खा कर हिट हो गई थी लेकिन ये कैलाश सत्यार्थी वाला राज़ कैसे आउट हुआ ? सवा अरब लोग जिस शख्स को जानते भी नहीं थे, जिसके काम से रत्ती भर भी वाकिफ नहीं थे उसकी उपलब्धियों की खबर नोबेल वालों तक कैसी पहुंची ? ये राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है कि ये खबर लीक कैसे हुई ? इसकी फ़ौरन सीआईडी जांच करवाई जानी चाहिए.

आज का अखबार ये बता रहा है कि जनाब ने अब तक 80000 बच्चों को बाल-श्रम की दासता से मुक्त करवाया है, वो तीन दशक से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं आदि आदि. अपने प्राइम टाइम पर दीपिका की क्लीवेज को लम्बी चौड़ी कवरेज देने वाले मेरे मुल्क के दर्जनों अग्रणी न्यूज़ चैनलों ने तो कभी इस बारे में एक बार भी नहीं बताया. बहुत जतन से छिपा कर रखी गई इस खबर के आम हो जाने से भारत की जो वैश्विक बदनामी हुई है उसका जिम्मेदार कौन है ? तुरंत दोषियों पर सख्त कार्यवाई की जाए. और आइन्दा इस बात का ख़याल रखा जाए कि ऐसी सूचनाएं देश से बाहर ना जाए.
कैलाश सत्यार्थी जी को बधाई कि उन्हें मीडिया ने कुमार गौरव का रुतबा दे ही दिया. वो 'वन फिल्म वंडर' था, ये 'वन डे सेलेब्रिटी' बने हैं.

PS : आज रात सबसे चालू न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर 'शीला की जवानी, हरकतें तूफानी' देखना ना भूलियेगा.. परिवार सहित देखें तो अति उत्तम..

Thursday, October 9, 2014

इतिहास : सहायक या मारक ?

इतिहास हमेशा से एक दिलचस्प विषय रहा है. अपने पूर्वजों के, अपनी पिछली पीढ़ियों के, अपने मुल्क के इतिहास को जानना हम सब को भाता है. उनकी जीवनशैली, उनके विचार, उनकी हरकतें और हिमाकतें हमेशा हमारे लिए उत्सुकता का विषय रही है. साथ ही हम ये भी जानना चाहते हैं कि जिस समाज में हम आज रह रहे हैं वो किन किन बदलावों से होकर गुजरा. लेकिन आजकल इतिहास या ऐतिहासिक तथ्य एक और काम में भी इस्तेमाल किये जाने लगे हैं. नफरत फैलाने के. और इसी वजह से आज कल इतिहास से डर लगने लगा है.

आज कल ये आम देखा जाने लगा है कि इतिहास के किसी एक सियाह पक्ष को उठाकर, उसे नजीर बना कर एक पूरी कौम/बिरादरी/समूह पर सवालों की बमबारी की जाती है. उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है. ये कुछ कुछ यूँ है जैसे कृष्ण के मटकी तोड़ने के लिए अखिलेश यादव से जवाबतलबी की जाए. अगर औरंगजेब ने मंदिर तोड़े थे तो तोड़े होंगे भई.. इस मुल्क का आम मुसलमान क्या करे ? उसने तो नहीं तोड़े.. और ना ही कभी समर्थन किया. फिर वो क्यूँ सफाई दे ? वो भी उसी समाज की देन है जिसके तुम हो. उतने ही भले-बुरे हैं जितने तुम. तो उनका मूल्यांकन उनकी हरकतों से करो ना कि सैंकड़ो साल पहले मर खप चुके किसी शासक की हरकतों को ध्यान में रखकर. किसने क्या किया इसका जिम्मेदार कोई और कैसे हो सकता है ? इसी तरह हिन्दू माइथोलॉजी में वर्णित किसी प्रसंग या घटना के आधार पर समस्त हिन्दू समाज को कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता. इस देश का बहुसंख्य हिन्दू समाज सहिष्णु है और इसी सहिष्णुता की वजह से इस मुल्क का सामाजिक ताना-बाना मजबूत बना हुआ है. इतिहास से ढूंढ ढूंढ कर निकाले गए ऐसे तथ्य जो हमारे 'वाद' को ( जो कोई भी वो हो ) सही ठहराने में सहायक होते हैं अमूमन नफरत फैलाने के ही काम आते हैं.

मुझे लगता था कि इतिहास अपनी भूलों को सुधारने के, आत्मचिंतन के काम आने वाली चीज़ है. इतिहास वो जरिया है जिससे हम अपने पूर्वजों की जिंदगियों में झांके, उनके अच्छे कामों से सीख ले और उनकी गलतियों को दोहराने से बचे. मगर ये बहुत कम होता है. नकारात्मक मानसिकता के शिकार हम लोग इतिहास में भी नेगेटिविटी ढूंढते हैं. ऐसे प्रसंग खोजते हैं जिनको इस्तेमाल कर अपने विरोधियों की बोलती बंद कर सके. उन्हें शर्मिंदा कर सके. और अपने हमखयालों के खून में उबाल पैदा कर सके. इतिहास का ये उपयोग ( दुरुपयोग ) बेहद चिंता का विषय है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े इतिहास को ही ले लीजिये. उस वक्त भी भारत में अलग अलग विचारधाराएं काम कर रही थी. कोई नरम दल, कोई गरम दल, कोई डायरेक्ट एक्शन में विश्वास रखने वाला तो कोई समन्वयवादी. लेकिन उन सब का उद्देश्य अंत पन्त एक ही था. आज़ादी. लेकिन आज के हालात देख लीजिये. आज उस कालखंड को ऐसे पेश किया जाता है जैसे ये सभी लोग आपस में दुश्मन थे. गांधी और आंबेडकर दुश्मन थे, नेहरु और पटेल की नहीं पटती थी, नेताजी को गांधीजी से बैर था आदि आदि. जब कि ये सब लोग एक दूसरे का खूब सम्मान करते थे. विचारधाराएं बेशक भिन्न हो लेकिन इनका आखिरी मकसद एक ही था. लेकिन हमने इन्हें भी बाँट लिया. किसी को कांग्रेसी ले उड़ा तो किसी पर भाजपाइयों ने कब्ज़ा जमा लिया तो किसी पर दलितों का एकाधिकार हो गया. दो अक्टूबर अब गांधी जयंती नहीं बल्कि 'गांधी को गाली दो प्रतियोगिता' ज्यादा लगने लगा है. हमें सिर्फ नकारात्मकता खोजने की एक खतरनाक आदत पड़ चुकी है. और ये नकारात्मकता जब इतिहास के पन्नों से निकल कर आती है तो और भी खतरनाक हो जाती है. क्यूँ कि इसकी सत्यता जांचने का आम जनमानस के पास कोई जरिया नहीं.

इन हालातों में मुझे अपनी प्रिय किताब बशारत मंजिल से एक वाक्य याद आ जाता है,

"हिस्ट्री इज अ क्रॉनिकल ऑफ़ क्राइमस, फॉलीज़ एंड मिसफॉर्चयूनस...!"  ( "इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है...")

ये विषय बेहद विस्तृत है, बहुआयामी है. अपने सीमित ज्ञान के दायरे में रह कर इसके सभी पहलूओं को छू पाना मेरे बस की बात नहीं. लेकिन मुझे उम्मीद है कि अपना नजरिया, अपनी चिंता मैंने ढंग से व्यक्त कर दी है. माना के इतिहास का अपना महत्त्व है लेकिन वर्तमान ज्यादा मायने रखता है. अगर हम अपने इतिहास का इस्तेमाल अपना वर्तमान बिगाड़ने में कर रहे हैं तो ऐसे इतिहास से दूरी ही भली. बेहतर है कि दिमाग की स्लेट को साफ़ कर के एक नया इतिहास लिखा जाये जिसमे प्रेम की बहुतायत हो, सद्चरित्रता के किस्से हो, अमन का पैगाम हो..

Sunday, October 5, 2014

हिंसक माइंडसेट

हत्या एक जघन्य कृत्य है और इसका समर्थन किसी भी दलील द्वारा जायज नहीं ठहराया जा सकता. अगर आप हत्यारों का समर्थन करते हो, उन्हें पूजते हो तो आप दुनिया में हो रहे कत्लेआम पर बोलने का अधिकार खो चुके हो. और आपके अन्दर भी एक हत्यारा यकीनन छुपा बैठा है जो किसी न किसी दंगे में यकीनन तलवार लेकर निकल पड़ेगा.

Saturday, October 4, 2014

पार उतरे नहीं थे

कारवां भी गया, लोग सारे गए
रह गए जो पीछे, वो मारे गए
सर उठाने न देगी ये शर्मिंदगी,
पार उतरे नहीं थे, उतारे गए

----- अज्ञात.

Thursday, October 2, 2014

गांधी बनाम गोडसे

"गांधी भी एक विचार था. गोडसे भी एक विचार था.
दुनिया ने किसे अपनाया ये बताने की जरुरत नहीं."

साल भर पहले मित्र अवनीश कुमार द्वारा कही गई ये पंक्तियाँ दिमाग में छप सी गई हैं.

शास्त्री जी और बापू को शत शत नमन..

वैसे ये काउंट करना दिलचस्प रहेगा कि आज गांधी जी को श्रद्धांजलि देती हुई पोस्ट ज्यादा मिलेंगी या उन्हें गालियाँ देती हुई. कोई हिसाब रख रहा है क्या ?