Thursday, June 26, 2014

तार्किक धार्मिक.

"I am not atheist, i m just differently Religious."
आंग्ल भाषा में लिखे हैं. ताकि सनद भी रहे और प्रभावशाली भी लगे.
समझे के नाही ???

Wednesday, June 25, 2014

सरकार - एक निबंध

पांचवी कक्षा की छमाही परीक्षा में एक बच्ची द्वारा लिखे गए इस निबंध को कहना न होगा कि प्रथम पुरस्कार मिला था.
विषय था – सरकार
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सरकार .
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सरकार उस गिरोह का नाम है जिसे आम जनता को लूटने का लाइसेंस विरासत में मिलता है. जो चीनी खिलाकर सत्ता में आती है और फिर करेले का जूस लोगों के हलक से नीचे धकेलने में जुट जाती है. सरकार किसी भी पक्ष की हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. कई बार तो दो सरकारों के बीच फर्क सिर्फ निशान भर का होता है. और इन्हीं निशानों के सदके लोग बाग़ अपने पोते-पोतियों को किस्से सुनाते हैं कि कमल वालों ने फलां चीज़ महंगी करने का गुल खिलाया था या हाथ वालों ने फलां चीज़ को महंगा कर जनता के मुंह पर तमाचा ठोका था. दरअसल अलग अलग निशान होने में ही हमारे लोकतंत्र की जीत है. जरा सोचिये, अगर सबका निशान एक सा ही होता तो हमें अपने जीवन के उत्तरार्ध में याद ही नहीं रहता कि हमें किस किस ने लूटा था. निशानों के जरिये हम इसे बखूबी याद रख सकते हैं और अपनी आगामी पीढ़ियों तक इनकी महत्ता पहुंचा भी सकते हैं.
यूँ तो सरकारों के कई काम होते है लेकिन सरकार का सबसे पसंदीदा काम होता है लोगों की गरीबी दूर करना. इस गंभीर मसले पर सरकारें बड़े बड़े सेमीनार आयोजित करती हैं, कमेटियों का गठन करती है,विशेषज्ञों की राय लेती हैं, इसके लिए अपने यहाँ से सांसदों की, उनके परिवार की, उनके चमचों की टीमें बनाकर विदेश भेजती हैं. ताकि वो गरीबी उन्मूलन के तरीके सीख कर आयें और देश में लागू करें. भेदभाव का स्वर्ग रहे हमारे मुल्क में इस मामले भी भेदभाव होता है. हाई प्रोफाइल मंत्री लोग अमीर देशों में जाते है. यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि आदि. लॉजिक ये कि वो लोग इन अमीर देशों में जाकर देखें कि गरीबी भगाने के लिए इन्होने आखिर किया क्या है ! वो जो तुक्के से सांसद बने हैं उन्हें अंगोला, नाइजीरिया या यूगांडा आदि अफ्रीकन देशों में भेजा जाता है. इसके पीछे का तर्क ये कि ये भूखे देश आखिर ऐसा करते क्या हैं जिससे गरीबी इनकी गरदन से बेताल बनकर चिपटी हुई है ! अमीर देशों में गए हुए महोदय वहां ऑपेरा देखते हैं, सुन्दर सुन्दर बालाओं के साथ हंगामाखेज़ पार्टियों में हिस्सा लेते हैं, दुनिया के सबसे महंगे बाज़ारों में जी भर के खरीददारी करते हैं और लौट आते हैं. अगर आपको लग रहा है कि गरीब मुल्कों के दौरे पर निकले महान लोग दुःख में दिन बिताते होंगे तो ये आपकी भूल है. हर गरीब देश में कुछ ऐसी जगहें जरुर होती हैं जहाँ सिर्फ और सिर्फ अमीर लोगों को प्रवेश मिलता है. या यूँ कहिये वो देश गरीब होने की एक बड़ी वजह उन ख़ास जगहों में रहने वाले लोग ही होते हैं. जैसे फाइव स्टार होटल्स, राष्ट्रपति या राजा का भव्य महल आदि आदि. ये लोग सीधे वही लैंड होते है. वहां शाही मेहमान-नवाजी का जी भर के आनंद लेते हैं. अपने से ज्यादा गरीब मुल्क में होने की वजह से रौब भी खूब जमातेहैं. फिर अफ्रीका के प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करने निकलते हैं. बख्तरबंद गाड़ियों के अन्दर बैठ कर गेंडों की, शेरों की, लकड़बग्घों की तस्वीरें खींचते है और फिर अफ्रीकन सफारी के अपने एडवेंचरस टूर से लौट आते हैं.
इन सब सेमिनारों में, कमेटियों के गठन में, विशेषज्ञों से सलाह लेने में और मंत्री/सांसदों की विदेश यात्राओं में इतना वक्त निकल जाता है कि सरकार को याद ही नहीं रहता उसने असल में गरीबी दूर भी करनी है. देखते देखते पांच साल गुजर जाते है और पांचवे साल के ऐन सिरे पर सरकार को याद आता है कि गरीबी तो दूर की ही नहीं. बल्कि उसमे कुछ इजाफा ही किया है. उसमे नया जोश आ जाता है. वो पूरी शिद्दत से ( कृपया समझदार लोग बेशर्मी पढ़े ) लोगों से कहने लगती है कि हमें एक मौका और दो. इस बार पक्का गरीबी दूर करेंगे. जनता कभी कभी दे देती है दूसरा मौका. कभी कभी नहीं भी देती. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि जनता की आँखें-वांखें खुलने जैसी कोई अनहोनी होती है. वो तो जनता बस टेस्ट चेंज करना चाहती है. घर में जैसे दाल खाने से आजिज आकर वो बैंगन बना लेती है उसी तरह सरकार भी बदल देती है. दोनों घटनाएं एक समान महत्त्व की है. अब आप चाहे इसे दाल-बैंगन वाले मसले का महिमामंडन कहिये या सरकार-चेंज वाली घटना का अवमूल्यन. जो है सो है.
सरकारें मुख्यतः दो प्रकार की होती है. राज्य सरकार और केंद्र सरकार. वैसे तो गरीब आदमी के लिए नगर निगम के जमादार से लेकर पुलिस के हवलदार तक हर सरकारी बंदा खुद ही सरकार है लेकिन इन दो प्रकार की सरकारों का रुतबा ज्यादा है. ये दोनों सरकारें होती तो एकसमान जालिम है लेकिन एक दूसरे के खूब काम आती हैं ये. राज्य सरकार रो रोकर कहती है कि हम लोगों का भला करने के लिए मरे जा रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार फंड ही नहीं देती. बताइये हम क्या करे ?? उधर केंद्र सरकार बताती है कि हमने तो इत्ता इत्ता फंड दिया लेकिन वो राज्य सरकार वाले सारा डकार गए. अब हम क्या करें ?? दोनों में से कोई भी अपनी बात को साबित करने का अतिरिक्त टेंशन नहीं लेता और जनता के सपने विकास की पटड़ी पर से लुढ़ककर हकीकत के कुएं में धडाम से जा गिरते है. उनका मर्सिया भी नहीं पढ़ा जाता.
सरकार की एक और खूबी ये होती है कि वो अपने कितने भी महाभयंकर निर्णय को सही साबित कर के दिखा सकती है. या यूँ कहिये इस अद्भुत प्रतिभा के बिना सरकार का गठन होना ही नामुमकिन है. रोजमर्रा की चीजें महँगी होने से लेकर उद्योगपतियों को कौड़ियों के मोल जमीन बेचने तक के सारे मुद्दे वो ऐसी ऐसी शब्दावली में जनता को समझाती है कि जनता मुंह फाड़े हैरानी से देखती रहती है और खुद को कोसती है कि ऐसी दूरदर्शिता हम में क्यूँ नहीं है आखिर ? एक सम्मोहन की अवस्था में वो सरकारों का हर फैसला कबूल कर लेती है. कभी कभी जब नहीं करती तो प्रदर्शन वगैरह करती है. फिर कुछ सरकारी नुमाइंदे आकर उनकी पिटाई लगा देते हैं. ठुक-पिट कर जनता की समझदानी के कपाट फिर खुल जाते है और वो सरकारी फैसलों पर अपनी सहमती दर्ज करा देती है. यानी किसी भी स्थिति में होता वही है जो सरकार चाहती है. लोगों को तो बस आत्म-संतोष का फर्जी झुनझुना मिलता है कि इस फैसले में हमारी सहमती शामिल है.
सरकार के बारे में एक चुटकुला बहुत प्रसिद्द है. हालांकि मेरी समझ में ये कभी नहीं आया कि इसे चुटकुला क्यूँ कहते हैं. इससे ज्यादा सच्ची बात तो भारतवर्ष के पांच हज़ार साल के इतिहास में आज तक नहीं कही गई. चुटकुला कुछ यूँ है,
सवाल : सरकार चोर उचक्कों को जेल क्यूँ भेजती है ?
जवाब : क्यूँ कि किसी तरह का कम्पटीशन नहीं चाहती.
एक मामले में हम अपने पडोसी मुल्क से बेहतर स्थिति में है. वहां सरकार और मजाक में फर्क नहीं किया जाता. वहां म्यूजिकल चेयर चलती है. लोगों द्वारा चुनी हुई सरकारें और सेना में आँख-मिचौली लगी रहती है.कभी सेना चुनी हुई सरकार को कहती है कि तुम लोगों ने देश को बेच खाया, अब दफा हो जाओ. दरअसल उन्हें कहना होता है कि हमें मौका दो लूटमार का लेकिन ये खुल के कहने का रिवाज कायम नहीं हुआ अभी तक. वो देशद्रोह के आरोप में पिछली सरकार के मुखिया को अन्दर कर देती है और देश में तरक्की और खुशहाली लाने के अपने मिशन में जी जान से जुट जाती है. जब कुछ सालों तक अनथक मेहनत करने के बावजूद भी तरक्की पकड़ाई में नहीं आती तो फिर से चुनी हुई सरकार का नंबर आता है और इस बार वो अगली पार्टी के मुखिया को अन्दर कर देती है. कुल मिलाकर हमारे पड़ोसियों के यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि आज का प्रधानमन्त्री कल भी सम्मानित जीवन जी पायेगा. हो सकता है वो कल को जेल की काल-कोठरी में एडियां रगड़ रगड़ कर फांसी के फंदे की तरफ अग्रसर हो रहा हो. कोई स्थायित्व नाम की चीज ही नहीं है जी. धत्त... इस मामले में हमारे यहाँ एक बेहतरीन सिस्टम बना हुआ है. यहाँ मौजूदा सरकार पिछली सरकार के नुमाइंदों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती. भले ही फिर उसने देश बेच खाया हो. रहम करती है उसपर. इस अंडरस्टैंडिंग के साथ कि जब वो सत्ता में नहीं होंगे तो उनपर भी रहम किया जाएगा. रहम के आदान-प्रदान की इस प्रथा का भक्तिभाव से निर्वाहन सिर्फ और सिर्फ इस भारत-भूमी में ही मुमकिन था. दो मुखालिफ दलों के बीच का ये भाईचारा देखकर आँखें अनायास भर आती है और इस देश में पैदा होने पर हमेशा आने वाली गर्व टाइप फीलिंग सेंसेक्स की तरह उछलकर आसमान छूने लगती है.
धन्य हैं ऐसी सरकारें....!!! और धन्य हैं इन्हें चुनने वाले हम भारतवासी...!!!
P.S. : मेरे ज्यादातर मित्र इस वक्त सरकार फिल्म पर निबंध लिख रहे हैं. वही फिल्म जो अपनी प्रतिभा को सबसे ज्यादा जाया करने का रिकॉर्ड बनाने वाले राम-गोपाल वर्मा अंकल ने बनाई थी. वही फिल्म जिसमे अमिताभ अंकल ये मोटे मोटे मणियों की माला पहने अपनी बाल्कनी से टाटा बाय करते रहते हैं. पता नहीं क्यूँ..कन्फ्यूजन के मामले में वो फिल्म भी हमारी सरकार की तरह ही थी. मुझे तो आजतक समझ में नहीं आया कि अमिताभ-अभिषेक फिल्म के नायक थे तो बार बार गोविंदा को क्यूँ याद किया जाता रहा उस फिल्म में. उसका कोई भी एक्शन सीन उठा के देख लीजिये. गोविंदा गोविंदा गोविंदा गोविंदा बजता रहता है बैकग्राउंड में. अरे भई जब इतना ही पसंद था गोविंदा तो उसे ही ले लेते. खैर, ये विषयांतर हो रहा है. मूल मुद्दा ये कि देश की सरकार पर निबंध मैं ही लिख रही हूँ सिर्फ. और मुझे उम्मीद है कि प्रथम पुरस्कार भी मुझे ही मिलेगा. क्यूँ कि मैंने किसी को बताया ही नहीं कि वो लोग सरकार टाइटल से गलत मतलब निकाल बैठे हैं. उसी तरह जैसे हमारी सरकार जनता को कभी नहीं बताती कि उसे चुनकर उन्होंने कितनी बड़ी भूल कर दी है.
( इस निबंध को प्रथम पुरस्कार तो मिला ही, साथ ही परीक्षक की ये टिपण्णी भी थी. “परीक्षार्थी परीक्षक से ज्यादा जानती है.” )
--------- ज़ारा.
25/06/2014.

Sunday, June 22, 2014

घोषणापत्र

किसी नागवार गुजरती चीज पर,
मेरा तड़प कर चौंक जाना...
उलट कर फट पड़ना,
या दर्द से छटपटाना...
कमजोरी नहीं है....
मैं जिंदा हूँ, इसका घोषणापत्र है....


------ कन्हैयालाल नंदन.

Saturday, June 21, 2014

दहशतगरों के हाथ में इस्लाम

हाँ भई, सब कुछ तो अमेरिका ही करवाता है. तेल के कुओं पर उसकी बुरी नज़र है ये सब को पता है. दुनियाभर के संसाधनों पर वो कब्ज़ा करना चाहता है ये भी कबूल. इसके लिए वो दुनियाभर में अस्थिरता चाहता है ये भी मान लिया. मान लिया कि हथियार भी वो ही मुहैया कराता है ताकि कत्लो-गारत के सिलसिले में खलल न पड़े.
लेकिन सच सच बताना लम्बी दाढ़ी वाले अंकल, अपने ही भाइयों का खून बहाने लायक जहर भी आपकी रगों में अमेरिका ने ही भरा है ? या ये आपका अपना कारनामा है ? बच्चों के सरों में गोलियां दागते हो, मजलूम मजदूरों को अगवा कर लेते हो, अपने ही देशवासियों के खून से सड़कें लाल कर देते हो और फिर दोष किसी और को देते हो....? माना कि अमेरिका हथियार देता है लेकिन ट्रिगर तो तुम ही दबाते हो. अपने ही भाइयों के खून के प्यासे तुम ही हो. तुम ही हो वो वहशी दरिन्दे जिन्होंने ऐसे हालात पैदा किये कि अब हर मजहबी इंसान से डर लगने लगा है.
खून के प्यासे भेडियों, तुम्हारा नाश हो....!!!!
क्या गलत कहते थे निदा फाजली ??
"उठ उठ के मस्जिदों से नमाजी चले गए,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया."

Thursday, June 19, 2014

भक्तजन

भक्तजनों के साथ सबसे बुरी बात ये हुई कि उनकी सरकार बन गई. एकदम से ज़िन्दगी में एक शून्य सा भर गया भाई लोगन के. पहले कैसे तलवारें भांजे ग़दर मचाये रहते थे. सहवाग की तरह फ्रंट फूट पर खेलते थे. भले ही तकनीक सही न हो. ये मुई सरकार क्या बन गई राहुल द्रविड़ की तरह डिफेंसिव मोड़ में जाना पड़ा. यूँ लग रहा है जैसे किसी जांबाज़ लड़ाके का ट्रान्सफर युद्ध भूमि से सीधे कस्टमर केयर डिपार्टमेंट में कर दिया गया हो. जिन बातों पर सुबह शाम बवाल मचाये रहते थे, उन्हीं को डिफेंड करते रहने जैसी कोई सजा नहीं. ऊपर से दिन रात कांग्रेस को, केजरीवाल को कोसते रहने का जो स्वर्गिक आनंद मिला करता था उसकी सप्लाई एकदम से बंद हो गई. कोसाई का वो अद्भुत आनंद ज़िन्दगी से गायब सा हो गया.
क्या दिन थे वो जब सुबह सुबह नहा-धोकर, एक ग्लास राष्ट्रवादी काढ़ा पीकर, भक्त मण्डली अस्त्र-शस्त्र संभाले कांग्रसियों की, आपियों की अम्मी-अप्पी करने बैठ जाया करती थी. एक से बढ़कर एक शानदार लिंक 'फेंक फेंक' कर मारे जाते थे. तर्क, भाषाई सभ्यता, सामने वाले की अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान आदि वाहियात बातों पर ध्यान देने की कतई जरुरत नहीं हुआ करती थी. कांग्रेसी टट्टू, विदेशी दलाल, देशद्रोही, पाकिस्तानी एजेंट जैसी अहम और महत्वपूर्ण उपाधियों का वितरण खुले मन से और थोक के भाव में किया जाता था. देर रात तक सुचारू रूप से चलता था सिलसिला. ये सरकार क्या बनी भक्त-जन फ्रस्ट्रेट होने की हद तक नाकारा हो गए. क्या करें कुछ सूझता ही नहीं. ब्लड स्ट्रीम में रच बस चुका कोसाई का वायरस बहुत तंग करता है.
कहाँ तो यार लोग जोश में थे कि लाहौर-कराची में भांगड़ा डालेंगे और कहाँ उन्हें शरीफ अंकल को बिरयानी खिलानी पड़ी. फटी फटी आँखों से शाल-साडी का आदान प्रदान देखना पड़ा. ये जुल्म नहीं तो और क्या है कि काले-धन की वापसी का नारा लगाकर बाबा रामदेव गायब हो जाए और फेसबुक की बेरहम दुनिया में भक्तजन सफाइयां देते फिरें. धत्त...! इससे अच्छा समय तो वही था जब दिन संस्कृति-रक्षा के नशे में डूबें और रातें राष्ट्रवादी हुआ करती थी. इस विसाल-ए-यार से ज्यादा मज़ा तो उस इंतज़ार में ही था. नो डाउट..!
अमां यार, कोई रिवर्स गियर लगाओ... भक्त जनों का गोल्डन पीरियड लौटा लाओ.. वरना श्राप लगेगा समस्त फेसबुक बिरादरी को....
( स्पेशल नोट : ये पोस्ट खालिस भक्त-जनों को समर्पित है. भाजपा-समर्थक दिल पे न लें. हाँ, भक्त-मंडली जिगर, फेफड़ा, गुर्दा जहाँ चाहे ले सकती है. हम समझेंगे कि उधार चुक गया. )

Saturday, June 14, 2014

डिग्निटी

मुश्किल से मुश्किल हालात में भी अपनी डिग्निटी को बचाये रखना, अपने अन्दर की अच्छाई की हिफाजत करना महा-कठिन काम है. जो कर जाते हैं वो तर जाते हैं.
---- ज्ञात.

Friday, June 13, 2014

लव

If it's not Forever, it's not Love.
-------- unknown.
स्पेशल नोट - इसे सिर्फ लैला-मजनू वाले इश्क से जोड़ कर ना देखा जाए. इसके दायरे में हर चीज़ है. चाहे वो किताबों के प्रति आपका लगाव हो, किसी शौक से उपजा जूनून हो, लिखने की - लिखते रहने की अभिलाषा हो, किसी व्यक्ति में/ विचारधारा में आस्था हो या दोस्त से हर हाल में दोस्ती निभाने का जज्बा हो.
इफ इट्स नॉट फॉरएवर, इट्स नॉट लव.....

Wednesday, June 11, 2014

तरबियत

अदब के कपडे पहन, ज़हन के जाले हटा,
सभी को ख़ाक समझने की ये जहनियत कैसी है !
ज़माने भर में भले तू मशहूर-ओ-मारुफ़ सही,
तेरा लहजा बताता है, तेरी तरबियत कैसी है...!

-------- ज़ारा.
11/06/2014.

Friday, June 6, 2014

हिंसक समाज

इसमें कोई शक नहीं कि हम हिंसक समाज है. हमारी धार्मिक भावनाएं इतनी हल्की चीज़ है कि किसी भी सरफिरे की टुच्ची हरकत से आहत हो जाती है. फिर हम निकल पड़ते हैं रक्त-स्नान करने. मोहसिन को किन्हीं राजनेताओं के स्वार्थ ने नहीं मारा है. उसे मारा है हम लोगों ने. हम ही है वो लोग जिनके अन्दर खून के प्यासे भेडिये छुपे बैठे हैं. हमारे अन्दर छुपी इसी रक्त-पिपासा का हाकिम लोग फायदा उठाते हैं. उन्हें कुछ नहीं करना होता. बस हमारे अन्दर छुपी दुनिया फूंक डालने की हसरत को हल्की सी हवा देनी होती है बस. बाकि विनाश की पटकथा तो हम खुद ही लिख लेते हैं. और ऐसी उम्दा कि सृष्टि की संहारक शक्तियां भी शर्मिंदा हो जाए. बच्चियों का रेप कर देते हैं, बूढों के गले में टायर डालकर आग लगा देते हैं, नौजवानों को चाकुओं से गोद गोद कर किसी और का बदला किसी और से ले लेते हैं. और ये सब किसलिए ? क्यूँ कि किसी सरफिरे ने कोई ऐसी हरकत कर दी जिससे हमारे धर्म पर आंच आ गई. कितना वाहियात है ये मजहबी पागलपन ? इस्लाम को तो खैर आदत थी ही हमेशा खतरे में रहने की अब हिंदुत्व भी डेंजर जोन में आया मालूम होता है. और जब जब आस्थाओं पर खतरा मंडराता है खून की होली खेलना जरुरी हो जाता है. और कमाल की बात ये कि इस खून-खराबे में शामिल लोग किसी फिदायीन ग्रुप के नही होते, किसी आत्मरक्षा बल के सदस्य नहीं होते. ये होते है हम जैसे ही लोग जो अपना दुनिया जहान का फ्रस्ट्रेशन किसी की जान लेकर निकालते है.
देख लीजियेगा, अगर मोहसिन के हत्यारे पकडे गए तो वो हम जैसे ही लोग निकलेंगे. सीधे-साधे आम लोग. उनमे से कोई ऐसा भी होगा जो अपनी बीवी की ऊँगली किचन में कटी देखकर बदहवास हो जाता होगा लेकिन मोहसिन पर हॉकी-डंडे चलाते वक्त जिसका दिल ना पसीजा. कोई ऐसा भी होगा जो माँ का आशीर्वाद लिए बगैर घर से नहीं निकलता होगा लेकिन किसी और माँ की आँख के तारे को मिटाते वक्त जिसने एक पल ना सोचा. वो लोग जो रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मक्खी मारने तक की सलाहियत नहीं रखते धर्म के नाम पर यूँ क़त्ल कर आते हैं जैसे इससे आसान कुछ ना हो. इतनी नफरत, इतनी घृणा कैसे जनरेट कर लेता है धर्म ? इकबाल पर हंसी आती है जो कहता था 'मजहब नहीं सीखाता आपस में बैर रखना.' दरअसल मजहब ही सीखाता है आपस में बैर रखना. धर्म की रक्षा के नाम पर प्राण लेने को उकसाता है. आज कोई मोहसिन मरा है हिन्दू धर्म की मूंछ नीची होने से बचाये रखने के लिए, कल कोई मोहन कुर्बान हो जाएगा इस्लाम की इज्जत का झंडा संभालते संभालते. हम भयंकर किस्म की प्रजाति है इस ब्रहमांड में. अब तो शर्म भी नहीं आती खुद पर. बस दिमाग में एक खालीपन सा घूमता रहता है. ज़हन को खुद के मुजरिम होने का अहसास कचोटता रहता है.
हम सब गुनाहगार है मोहसिन के. हर उस शख्स के जो बिना वजह मारा गया. चाहे 1984 में दिल्ली में, चाहे गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में, चाहे उसके बाद के गुजरात नरसंहार में या हालिया मुजफ्फरनगर में. हर वो शख्स जो धार्मिक उन्माद की बलि चढ़ गया उसका खून हमारे सर पर है. सच सच बताइये क्या हमें इंसान कहलाने का हक अब भी है ?

( सन्दर्भ :- पुणे में मोहसिन शेख नामक युवक की भीड़ द्वारा की गई हत्या )

Thursday, June 5, 2014

क्या बहुत जरुरी था...??

क्या बहुत जरुरी था...??
ख्वाब-पोश आँखों में,
आंसुओं का भर जाना...
हसरतों के साहिल पर
तितलियों का मर जाना...
हब्स की हवाओं में,
खुशबुओं का डर जाना...
दिल के गर्म सहरा में,
हशर ही बरपा होना...
दर्द ला-दवा होना
क्या बहुत जरुरी था...???
यूँ तेरा जुदा होना...!!!
यूँ तेरा जुदा होना...!!!
--------- अज्ञात.

Tuesday, June 3, 2014

जब टाईफॉइड को मुझ से प्यार हुआ.

जिंदा है.. अभी जिंदा है हम....
इसलिए टेंशन नहीं लेना का भाई लोग...
आपसे हमारी दो हफ़्तों की जुदाई हमें भी बहुत खली है दोस्तों..
और इस जुदाई के पीछे जिस वजह का हाथ था उसका नाम है टाइफाइड... कमबख्त नाम ही ऐसा है के कंपकंपी छूट जाती है. इस नामुराद बीमारी ने हमें इतना परेशान किया कि हम अल्लाह मियाँ से रूबरू मिलते मिलते रह गए. शायद फेसबूकी पापों की सजा अभी यही भुगतने का रिवाज हो. पूरे सात दिन हॉस्पिटल में लिटाये रखा इस नासपीटे टाइफाइड ने. बेहोशी में डूबते-उतराते हम सुनते रहें कि डॉक्टर लोग घरवालों से कुछ क्रिटिकल क्रिटिकल कर के बोल रहे थे. कहते है कि अंतिम समय की आहट मिलने पर लोगों के सामने उनके पापों का लेखा-जोखा घूमने लगता है. हमारे सामने हमारे वो सारे फेसबुक स्टेटस घूम गए जिसमें हमने तरह तरह के लोगों को सींगों से पकड़ा था. हम तो डर गए कि बिना किसी उद्घोषणा के ही विदा होना पड़ेगा. एक रात तो अल्लाह मियां खुद हमारे सपने में आये और कहने लगे, 'चलने का इरादा है क्या ?' हम बोले ऐ अल्लाह अभी तो हमने अच्छे दिनों का ट्रेलर भी नहीं देखा. अभी से ये दावतनामाँ क्यूँ ? मेरा तो फेसबुक ही विधवा की मांग की तरह सूना हो जाएगा मेरे बगैर. अल्लाह मियां मुस्कुराए और बोले कि जाओ, कुछ और महीने ग़दर काटो फेसबुक पर. इन कुछ महीनों वाली बात का पेंच हम समझ तो गए थे लेकिन उस वक्त नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर समझा. कहीं अल्लाह मियां का इरादा बदल जाता तो ?
तो इस तरह से हम जान तो बचा लाये लेकिन रूह के पिंजरे को क्षतिग्रस्त होने से नहीं बचा पाये हम. एयर रेड में ध्वस्त इमारत की तरह होकर रह गए हैं हम. वेट सेंसेक्स की तरह नोज-डाईव लगाकर 47 से सीधा 39 पर आ गया है. चेहरे की चमक तो महीनों चवनप्राश खाकर भी शायद ही लौटे. हद तो तब हो गई जब हमसे मिलने आई एक आंटी हमारे गालों के डिंपल्स को देखकर बोली कि आय हाय कैसे गड्ढे पड़ गए हैं. जी में आया हाथ में पकड़ा हुआ सूप का बाउल आंटी के सर पर पलट दे.
बुखार तो हम पर इस तरह कब्ज़ा जमाये रहता था जैसे वो रोबर्ट वाड्रा हो और हम गुडगाँव की ज़मीन. हमें 'हॉटेस्ट गर्ल ऑन प्लैनेट' का खिताब दिलाने की फिराक में मालूम पड़ता था कमबख्त. हमने उससे कहा भी कि माना 'हॉट गर्ल' होना आजकल फैशन में है लेकिन ऐसा भी क्या कि करीम होटल के तंदूर को काम्प्लेक्स दिया जाए ? लेकिन वो फिर भी नहीं माना. डीजल के दामों की तरह ऊपर ही ऊपर जाता रहा. नीचे उतरने का नाम ना लिया ससुरे ने..
अजीब अजीब रंगों और आकार प्रकार की दवाएं खाते खाते मुंह ओवैसी-तोगड़िया जैसे भाई लोगों की जुबान से ज्यादा कड़वा हो गया है. लिक्विड डाइट पर रहते रहते हम ये भी भूल चुके हैं कि रोटी होती किस शक्ल की है. हमें तो दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई अभी तक. ऊपर से हमरी अम्मा हमें बिस्तर से उठने ही नहीं देती. ना ही कोई किताब पकड़ने देती है. हमारा कई बार जी चाहा कि रातों को उठकर अपने कंप्यूटर से लिपट कर रो लें. पर वो भी मुमकिन ना हो सका.
खैर, अब सूरतेहाल ये है कि रिकवर कर रहे हैं. आहिस्ता आहिस्ता फिर से जलवा बिखेरेंगे आप सब अजीजों के साथ. आप लोगों ने मेरी गैर-मौजूदगी में अपनी फ़िक्र जताते मेसेजेस से मेरा इनबॉक्स भर दिया है. उसके लिए मैं आप सब की कर्ज़दार हूँ. और हाँ, आज कई दिनों बाद ये सब लिखते हुए मैं मुस्कुराई हूँ.
शुक्रिया आप सबका....
शायर खुशबीर सिंह 'शाद' से एक सवाल उधार लेकर पूछती हूँ कि,
"एक हिजरत जिस्म ने की, एक हिजरत रूह ने
इतना गहरा जख्म आसानी से भर जाएगा क्या ?"