Thursday, November 28, 2013

'परछाइयां' के कुछ अंश

पिछली सदी के महान शायर साहिर लुधियानवी को जब भी पढ़ा हर बार निगाहों के आगे एक नई राह रौशन हुई है. ज़िन्दगी को देखने का उनका नजरिया कितना आला था ये उनकी नज्मों और ग़ज़लों से बखूबी देखा जा सकता है. आम आदमी के दर्द को जुबां देने में उनका कोई सानी नहीं.. पेश है उनकी एक लम्बी नज़्म 'परछाइयां' के कुछ अंश........
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

बहुत दिनों से है ये मशगला सियासत का,
कि जब जवान हो बच्चे तो क़त्ल हो जायें
बहुत दिनों से है ये खब्त हुक्मरानों का,
कि दूर दूर के मुल्कों में कहत बो जायें

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीरां है,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूंढती है
बहुत दिनों से सितम-दीदा शाहराहों में,
निगारे जीस्त की इस्मत पनाह ढूंढती है

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहे कि अपने हर इक ज़ख्म को जवां कर लें
हमारा राज हमारा नहीं, सभी का है,
चलो की सारे ज़माने को राजदां कर लें

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहे,
कि हमको जंगो-जदल के चलन से नफरत है
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास ना आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफरत है

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे जमीं तंग होती जायेगी
हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है
हमें किसी की जमीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी जमीं पर हलों की हाजत है

कहो की अब कोई ताजिर इधर का रुख ना करे,
अब इस जा कोई कुंवारी न बेचीं जायेगी
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फसलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेचीं जायेगी

यह सरजमीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्जे-पाक पे वहशी ना चल सकेंगे कभी
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर ना पल सकेंगे कभी

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहें,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं
जुनूं की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
जमीं की खैर नहीं, आसमां की खैर नहीं

गुजश्ता जंग में घर ही जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयां भी जल जायें
गुजश्ता जंग में पैकर जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि परछाइयां भी जल जायें

----- साहिर लुधियानवी.

खब्त - उन्माद
सितम-दीदा शाहराहों में - अत्याचार-पीड़ित रास्तों में
पायमाल - कुचली हुई
मुकामिरों से - जुएबाजों से
हयात - जीवन, जिंदगी
पैरहन - लिबास, पोशाक
मौजे हवा - हवा की लहर
रगे-संग - पत्थर की रग
हाजत - जरुरत, आवश्यकता
ताजिर - व्यापारी
जा - जगह
अर्जे-पाक पे - पवित्र भूमि पर
नस्ले-नौ - नई पीढ़ी
खाकदाँ - धरती
गुजश्ता - पिछली
पैकर - शरीर

No comments:

Post a Comment