Tuesday, November 5, 2013

बाजार फिल्म

"नजमा, इस ज़मीन पर मर्द सबसे बड़ा दरिंदा है. उसने अपनी नाइंसाफी, अपने जुर्म, अपने गुनाहों को छुपाने के लिए कुछ रस्में, कुछ रीती-रिवाज बनाए है. इन रस्मों को कभी वो मजहब या धर्म का नाम देता है और कभी कानून का. और इनकी आड़ में छिपकर वो इज्ज़तदार और शरीफ बना रहता है. अगर शाकिर अली खान किसी शरीफ आदमी से ये कहे कि मैं आपकी बेटी को खरीदना चाहता हूं तो वो उसका खून कर देगा. लेकिन अगर यही शाकिर अली खान रस्मोंरिवाज़ का सहारा लेकर उस आदमी की पंद्रह साल की बेटी से शादी करना चाहे तो वो आदमी इंकार नहीं करेगा क्यूंकि ये ज़माने का दस्तूर है. वो अपने हाथों से उस लड़की को डोली में बिठा देगा. ये समझकर कि यही इस लड़की का मुकद्दर है. यही इसकी किस्मत है."

"मैं...मैं कहां से आ गई..? मैं क्या कर रही हूं..? मैं इंकार क्यूं नहीं करती.? मुझे गुस्सा क्यूं नहीं आता..? मैं कौन हूं..? मैं क्या हूं..? इस बाज़ार में कहीं मैं तो खरीददार नहीं..?

"तुम खरीददार नहीं हो नजमा, तुम इस बाज़ार में बिकने वाली इक शय हो. तुम वो खिलौना हो जिसे ख़रीदा जा चुका है. अपने जिस्म को किसी दुकान की शोकेस से बचाने के लिए तुमने अख्तर के घर की सजावट बनाना पसंद किया है. तुम इस मरते हुए समाज की गिरती दीवार हो नजमा. तुम घर की चारदीवारी में घुट घुट के मरती रहोगी और मर्दों का खिलौना बनती रहोगी. जब तक जीने के लिए किसी मर्द का सहारा चाहिए, चाहे वो अख्तर हो चाहे सलीम, तुम खिलौना बनी रहोगी."

ये संवाद सलीम ( नसीरुद्दीन शाह ) और नजमा ( स्मिता पाटिल ) के बीच घटित हुआ है और आपने सही पहचाना ये एक फिल्म का हिस्सा है. पर हमारे समाज की नंगी सच्चाई भी यही है. कल रात सागर सरहदी की फिल्म बाज़ार देखी. दिमाग सुन्न हो गया. हमारे मुल्क में गरीब तबके की लड़कियों के लिये (कहीं कहीं तो साधन संपन्न घरों की लड़कियों के लिए भी) शादी कैसे एक बाज़ार है, एक मंडी है इसकी जिन्दा तस्वीर है ये फिल्म. किस तरह शादी के नाम पर ताउम्र के लिए नौकरानी हासिल की जाती है, कैसे लड़कियों को अपने ख्वाब, अपनी आरजुओं का क़त्ल करने पर मजबूर किया जाता है, कैसे समाज का हर शख्स एक अकेली लड़की के मुखालिफ हो जाता है और लड़की को उसकी सलीब तक धकेलने में कैसे समाज का हर हिस्सा जाने अनजाने शिरकत करता है इसे जानना हो तो ये फिल्म देख लीजिये.

सदियों से इस मुल्क की धरती ने हजारों लाखों शबनमों की चीखें अनसुनी की है. लाखों नजमाओं को इतना मजबूर किया है की उनको अपना किरदार तक बदलना पड़ा. और समाज की साजिश में शरीक होना पड़ा. अनगिनत सिरजूं अपनी मुहब्बत की बेवक्त मौत पर जार जार रोये है पर इस धरती ने, इसके बाशिंदों ने, इसके रीतिरिवाजों ने उनके तपते हुए कलेजे पर ठंडक का एक फाहा रखना भी जरुरी नहीं समझा. न जाने कितनी आरजूएं, कितनी मुहब्बतें, कितनी हसरतें दफ्न है इन हवाओं में की अगर सच में ही बद्दुआओं में असर होता तो ये दुनिया कब की जल के ख़ाक हो चुकी होती.. अपने तमाम रस्मोंरिवाजों समेत. कभी इज्जत, कभी रिवायत तो कभी मजहब के नाम पर औरत हर दौर में छली गई है. छली जा रही है. हमारे देश में ये आम बात है की भले ही खानदान कितना ही नामी-गिरामी क्यूं न हो, कितना ही फौलादी क्यूं न हो, उसकी इज्जत का दारोमदार उस खानदान की सबसे कमजोर कड़ी के सबसे कमजोर कंधों पर ही टिका होता है. वो बेचारी इतने बड़े बोझ को सहते सहते ख़त्म हो जाती है और उसकी कुर्बानी का कोई नोटिस तक नहीं लेता. जन्म से लेकर मौत तक के लम्बे सफ़र में एक लम्हा भी वो इस बात से गाफिल नहीं हो सकती की उसके ऊपर इतने लोगों की सामूहिक इज्जत का टोकरा संभालने की जिम्मेदारी है. जरा सी चूक हुई नहीं और मरने से पहले ही जहन्नुम का मज़ा हाजिर. सोते जागते ये एहसास कि उसके सर के ऊपर एक तलवार हमेशा के लिए लटका दी गई है उसे कभी भी पूरी तरह पनपने नहीं देता. उसके वजूद को इतना दोयम बना के रखा जाता है की उसे अल्लाह की रहमत, ईश्वर का न्याय या गॉड की अनुकम्पा मिथ्या ही प्रतीत होती है.

बाज़ार तकरीबन तीस साल पुरानी फिल्म है. पर बेहद दुखद बात ये है की ये आज भी प्रासंगिक है. और भविष्य में भी इसकी प्रासंगिकता ख़त्म होती नहीं दिखाई देती. न जाने क्यूं ये फिल्म बहुत अपनी सी प्रतीत हुई. कोई भी ड्रामेटिक सीन ना होने के बावजूद मैं फूट फूट के रोई. ये कहानी सिर्फ शबनम की नहीं है. इस मुल्क में बसी हजारों शबनमों, नजमाओं, नसरीनों और जाराओं की कहानी है ये. परिस्थितियां भले ही अलग अलग हो पर इस बाज़ार में बिकती सभी है. किसी का बिकना दिखाई देता है तो किसी का बेशुमार चमक-धमक में खो जाता है. शबनम तो ख़ुदकुशी कर के आज़ाद हो गई अंत में, पर अभी लाखों ऐसी शबनमें मौजूद है जिनके पास मरकर निजात पाने का रास्ता भी मौजूद नहीं है और जिन्होंने अपना सलीब ढोना ही ढोना है.

आइये दुआ करते है की खुदा हर उस शबनम की ज़िन्दगी आसान करे जिसे महज इस बात की सजा मिली है की वो एक लड़की बनकर पैदा हुई.

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