Friday, November 29, 2013

क्या इतना ही मुश्किल था दिल का साफ़ होना

अब दिल भी चाहता है उसके खिलाफ होना
मुमकिन नहीं रहा कसूर उसका माफ़ होना


फ़रिश्ता न बन पाते, कोई बात नहीं थी
क्या इतना ही मुश्किल था दिल का साफ़ होना.

इस दौर में दुश्मनी को, बस इतनी वजह है काफी,
किसी से दिल ना मिलना, किसी से इख्तेलाफ होना...


  ------ ज़ारा.

Thursday, November 28, 2013

दुनिया को हकीकत मेरी पता कुछ भी नहीं

दुनिया को हकीकत मेरी पता कुछ भी नहीं
इल्जाम हजारों है और खता कुछ भी नहीं
मेरे दिल में क्या है ये कभी पढ़ ना सकोगे,
सारे पन्ने भरे हुए है और लिखा कुछ भी नहीं

------- कभी कभी तुकबंदी भी काफी राहत दे जाती है.

हमारे समाज की सोच

हेमराज-आरुषि हत्याकांड के सन्दर्भ में एक जगह मेरे द्वारा की हुई टिप्पणी -
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हमारे समाज की सोच :-

लड़के ने मुंह काला किया तो समझिये आपने घर में बैठकर गली में थूका...
और वही हरकत लड़की ने की तो समझिये गली में से घर में थूका....

अब इस पैमाने पर जब परखा जाएगा तो मरेंगी तो आरुषियां ही ना...?
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उसकी जगह कोई आरुष होता तो थोड़ी सी डांट खाकर बच जाता. शायद पिता अकेले में अपनी पत्नी से कहता की लड़का जवान हो गया है. वो आरुषि थी इसीलिए मारी गई.
तो moral of the story ये की आरुषि बनने में नुकसान ही नुकसान है. फिर भले ही आप जहीन हो, स्मार्ट हो, टीचर्स की दुलारी हो आपका आरुषि होना ही आपके वजूद पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी है..

'परछाइयां' के कुछ अंश

पिछली सदी के महान शायर साहिर लुधियानवी को जब भी पढ़ा हर बार निगाहों के आगे एक नई राह रौशन हुई है. ज़िन्दगी को देखने का उनका नजरिया कितना आला था ये उनकी नज्मों और ग़ज़लों से बखूबी देखा जा सकता है. आम आदमी के दर्द को जुबां देने में उनका कोई सानी नहीं.. पेश है उनकी एक लम्बी नज़्म 'परछाइयां' के कुछ अंश........
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बहुत दिनों से है ये मशगला सियासत का,
कि जब जवान हो बच्चे तो क़त्ल हो जायें
बहुत दिनों से है ये खब्त हुक्मरानों का,
कि दूर दूर के मुल्कों में कहत बो जायें

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीरां है,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूंढती है
बहुत दिनों से सितम-दीदा शाहराहों में,
निगारे जीस्त की इस्मत पनाह ढूंढती है

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहे कि अपने हर इक ज़ख्म को जवां कर लें
हमारा राज हमारा नहीं, सभी का है,
चलो की सारे ज़माने को राजदां कर लें

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहे,
कि हमको जंगो-जदल के चलन से नफरत है
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास ना आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफरत है

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे जमीं तंग होती जायेगी
हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है
हमें किसी की जमीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी जमीं पर हलों की हाजत है

कहो की अब कोई ताजिर इधर का रुख ना करे,
अब इस जा कोई कुंवारी न बेचीं जायेगी
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फसलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेचीं जायेगी

यह सरजमीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्जे-पाक पे वहशी ना चल सकेंगे कभी
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर ना पल सकेंगे कभी

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहें,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं
जुनूं की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
जमीं की खैर नहीं, आसमां की खैर नहीं

गुजश्ता जंग में घर ही जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयां भी जल जायें
गुजश्ता जंग में पैकर जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि परछाइयां भी जल जायें

----- साहिर लुधियानवी.

खब्त - उन्माद
सितम-दीदा शाहराहों में - अत्याचार-पीड़ित रास्तों में
पायमाल - कुचली हुई
मुकामिरों से - जुएबाजों से
हयात - जीवन, जिंदगी
पैरहन - लिबास, पोशाक
मौजे हवा - हवा की लहर
रगे-संग - पत्थर की रग
हाजत - जरुरत, आवश्यकता
ताजिर - व्यापारी
जा - जगह
अर्जे-पाक पे - पवित्र भूमि पर
नस्ले-नौ - नई पीढ़ी
खाकदाँ - धरती
गुजश्ता - पिछली
पैकर - शरीर

Monday, November 25, 2013

सच्चा देशभक्त

जो चायनीज कप में ब्राजील की कॉफ़ी पीता है, इटैलियन सोफे पर बैठकर फ्रेंच पेस्ट्री खाता है, इंग्लिश फिल्म देखकर अपनी जापानी कार पर घर पहुंचता है, कोरियन मोबाइल में गेम खेलते हुए पत्नी को स्पेनिश पास्ता बनाने का हुक्म सुनाता है, स्विस घडी में टाइम देखकर अमेरिकन पैन से, जर्मन पेपर पर प्रधानमन्त्री को कड़े शब्दों में चिट्ठी लिखता है कि उनकी सरकार स्वदेशी जागरण के विषय में कुछ नहीं कर रही थी.

क्यूँ देखे ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम

ले-देके अपने पास फकत इक नज़र तो है,
क्यूँ देखे ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम....

------- ऐसी मानीखेज़ बात 'साहिर' के अलावा कौन कह सकता है..?

Saturday, November 23, 2013

मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे

आज एक बार फिर जिगर मुरादाबादी के इन शब्दों में पनाह तलाशनी पड़ रही है...

"उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने,
मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे.."

Friday, November 22, 2013

सेक्युलर वुमन

कल अपनी प्रोफाइल पिक चेंज की थी. पिक में 'सेक्युलर वुमन' शब्द है. कुछ दोस्तों ने सराहा, कुछ ने ऐतराज उठाया तो कुछ ने जानबूझकर दूरी बनाए रखी. कुछ अजीब कमेन्ट आये तो किसी कमेन्ट का इन्तजार होने के बावजूद नहीं आया. खैर, अब जरा इस शब्द का पोस्टमार्टम करते है.

सेक्युलर..... शाब्दिक अर्थ 'धर्मनिरपेक्ष'. मेरे लिए सेक्युलर होने का अर्थ किसी भी धर्म या विचारधारा का समान भाव से सम्मान करना है. और इसमें बुराई क्या है ये मेरी समझ में नहीं आता. पता नहीं कब और कैसे हमने इस शब्द को एक पार्टीविशेष की बपौती बना डाला है. क्यूँ सेक्युलर व्यक्ति का मतलब एक पार्टी का हिमायती और दूसरी पार्टी का दुश्मन बन गया है ? और सबसे बड़ा सवाल, ये शब्द राजनीतिक कब से बन गया..?

मेरे तीन सौ से ज्यादा दोस्तों में एक भी ऐसा नहीं है जिसे मैंने नाम देखकर ऐड किया हो. मेरे लिए धार्मिक पहचान कभी भी अहम नहीं रही. और ना ही रहेगी. कोई मेरा महज इसलिए ज्यादा करीबी नहीं हो सकता की उसने उसी मजहब में जनम लिया जिसमे मैंने लिया है. मेरे लिए हितेंद्र भाई, वर्षा ताई या आलोक जी उतने ही करीबी है जितने हैदर जी, शब्बीर जी या संजीदा बाजी. मेरे मन में उनके लिए भी सम्मान है जिनसे मेरी विचारधारा मेल नहीं खाती. इसीलिए आशीष भाई जैसे मित्रों से घनघोर असहमति के बाद भी वो आज भी मेरे मित्र है.

सेक्युलर शब्द आज एक गाली सा बन गया है. या यूं कहिये जबरन बना दिया गया है. मेरी नजर में सेक्युलर होना कोई गुनाह नहीं है. हां सेक्युलर होने का पाखण्ड करना जरुर जरुर गुनाह है. हमारे स्वार्थी राजनेताओं ने इस शब्द की आड़ लेकर अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं खूब पूरी की है इस बात से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ. पर क्या महज इसीलिए हम एक अच्छी चीज में अपनी आस्था त्याग देंगे ? आसाराम ने धर्म को कलंकित किया तो क्या लोगों ने ईश्वर में विश्वास रखना छोड़ दिया ? सेक्युलर होना यानी सभी को एक ही तराजू पर तौलना कहां से गलत हो गया ? मुझे कोई समझाए प्लीज.

मेरी निगाह में गलत क्या है ये मैं आपको बताती हूँ. धर्म के नाम पर लोगों में फर्क करना गलत है. मजहब का पैमाना लेकर लोगों की विश्वसनीयता परखना गलत है. किसी एक ही सम्प्रदाय की भलाई के दावे करना गलत है. इसीलिए ओवैसी गलत है. तोगड़िया गलत है. हर वो शख्स गलत है जो इस देश के एक भी व्यक्ति को मजहब के आधार पर अपने से अलग समझता हो. ऐसी विचारधारा जो फूट डालने का काम करती हो - चाहे किसी भी आधार पर हो - गलत है. और जो गलत है वो गलत है, भले ही उसे 'राष्ट्रवाद' जैसा फैंसी नाम दिया जाए.

हमारे देश में सैंकड़ों समस्याएं है. जिन्हें सुलझाने में आम आदमी शायद कोई सक्रीय मदद नहीं कर सकता. पर वो कम से कम इतना तो कर ही सकता है की इस मुल्क की फिजाओं में धार्मिक विद्वेष का जहर ना फैलने दे. ये हमारा नैतिक और सामजिक दायित्व है की हम इस देश की एकता को बनाए रखे. और ऐसा तभी किया जा सकता है जब हमारे चश्मे के शीशे साफ़ हो. उसपर किसी का कोई रंग ना चढ़ा हुआ हो.

मैं सेक्युलर हूँ. और ताजिंदगी ऐसे ही बने रहना चाहती हूँ. इसपर गर्व करके अपने आप को महान साबित करने की मैं ख्वाहिशमंद नहीं. मुझे लगता है की ये मानवता के प्रति मेरा फ़र्ज़ है. और मैं इसका ताजिंदगी निर्वाहन करती रहूंगी.

Tuesday, November 19, 2013

हम मर्दों ने नारी तुझको कितने रूप दिए

कितने अफ़सोस की बात है की जिन्हें कविता का मतलब भी नहीं पता वो फेसबुक पर सेलेब्रिटी बने घूम रहे है और Gurvinder Singh जी जैसी प्रतिभा एकाध कमेन्ट के लिए भी तरस रही है.... एक बेहतरीन कविता.. और भी अच्छी कविताओं के लिए इनकी वाल पर जरुर विजिट करे. सीधे सादे, आडम्बररहित शब्दों में गहरी से गहरी बात कह जाने की इनकी प्रतिभा को सलाम... ऐसी प्रतिभाओं का अलक्षित सा गुजर जाना अन्याय होगा. 
हम मर्दों ने नारी तुझको कितने रूप दिए....

कभी रौंद दिआ..कभी मस्ल दिआ...
कभी काट दिआ..कभी कत्ल किया..
कभी धक्का दे दिया गाड़ी से
कभी आग लगा दी साड़ी पे....
कभी कौख़ मे मार दिया
कभी गोद़ मे मार दिया
कभी श़क मे मार दिया
कभी शौक़ मे मार दिया.....
कभी भाई ने मार दिया
कभी बाप ने मार दिया
तू फिर भी बच्च निकली
तो ख़ाप ने मार दिया..........
तुझ़े कैैद़ किया तुझ़े हरम़ दिए
झूठे वादे और भरम दिए.....
तू पूजे जिसेे सिदूंरो मे
वही भूने तुझे तंदूरो मे.....
हर मन मे काम की आग यहां
इक तरफा ईश्क रिवाज़ यहां
तू मना करे तेरी ताब़ कहा
हर हाथ में है तेज़ाब यहां.....
तू मां है बहन है सबला है आचंल मे दूध लिए
हम मर्दो ने नारी तुझको कितने रूप दिए......
.......बसंत विहार काडं के सदर्भं मे......
..........गुरविदंर...........

Monday, November 18, 2013

क्या आप पत्रकार है

सबसे ज्यादा मजा मुझे तब आता है जब कोई मुझसे इनबॉक्स में पूछता है, क्या आप पत्रकार है..? अब तक बहुत से नए मित्र मुझसे पूछ चुके है ये सवाल. मेरी समझ में नहीं आता की मुझे इस सवाल से खुश होना चाहिए या परेशान. मैं और पत्रकार....???

खैर, मैं हर मित्र को समझाती हूँ की नहीं भई मैं तो एक मामूली सी लड़की हूँ.. पर हां इस सवाल से उसी तरह खुश होती हूँ जिस तरह वो कवि हुआ था जिससे किसीने पांच सौ रुपये के छुट्टे मांग लिए थे. उस कवि ने भावुक स्वर में कहा था कि, मेरे पास छुट्टे तो नहीं है पर आपने ये समझा की मेरे पास पांच सौ रुपये हो सकते है इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद....

तो दोस्तों, आपका भी तहेदिल से शुक्रिया....
feeling important.

Sunday, November 17, 2013

थैंक यू सचिन

************सचिन को भारतरत्न***********

महान क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर को भारतरत्न मिलने की घोषणा होने के बाद फेसबुकी दुनिया में खलबली मची हुई है. बहुत लोग है जो इस घोषणा से खुश है तो बहुत से ऐसे भी है जिनको कड़ा ऐतराज है. सबसे पहले यही स्पष्ट करती चलूं के मैं उनमे से हूँ जो खुश है. ये पुरस्कार एक ऐसे खिलाड़ी को दिया गया है जिसने अपने अप्रतिम खेल और शालीन आचरण से दुनियाभर में भारत का सम्मान बढ़ाया है. वो इस पुरस्कार के सच में हक़दार है.

सचिन को भारतरत्न मिलने पर कई तरह के ऐतराज उठाये जा रहे है. पहला ऐतराज ये की सचिन को भारतरत्न देकर कांग्रेस ने अपनी डूबती नैया बचाने की कोशिश की है. कबूल. बिल्कुल की है. पर इसमें सचिन का क्या दोष.? क्या इससे 24 सालों से अनवरत की हुई सचिन की मेहनत मिटटी हो गई.? अगर यही पुरस्कार भाजपाई शासन में मिलता तो ? तो ये की तब यही ऐतराज कांग्रेसी करते. इन लोगों का काम ही ये है. कांग्रेस की नीयत भले ही सचिन नाम के गरम तंदूर पर अपनी रोटियां सेंकनी हो, इससे सचिन का योगदान कम नहीं हो जाता.

दूसरा ऐतराज कुछ यूं होता है. सचिन सिर्फ एक खिलाड़ी है. खेलना उनका पेशा है. क्या उनको सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना जायज है ? मुझे लगता है सरासर जायज है. हम भारतीयों की रोजमर्रा की संघर्षपूर्ण ज़िन्दगी में राहत के पल प्रदान करने वाले दो प्रमुख उत्सव है. सिनेमा और क्रिकेट. अनगिनत बार इन दोनों ने हमें गहरे अवसाद से निकाला है. अगर सिनेमा/संगीत के क्षेत्र में महानता प्राप्त कर चुकी लता दीदी को ये पुरस्कार मिल सकता है तो सचिन को क्यूँ नहीं ? आखिर लता जी ने भी तो विशुद्ध कमाई के लिए ही गीत गाये है. फिर भी भारतरत्न उन्हें देकर हमने उनके योगदान को सराहा है. इसी तरह सचिन ने भी भारत का नाम पूरी दुनिया में रौशन किया है. धर्म, जात, प्रान्त, राजनीति के नाम पर बंटे हुए इस देश को अगर कोई एक शख्स एक सूत्र में जोड़कर रखने में कामयाब हुआ है तो वो सचिन ही है. कई भारतीयों के किस्से हम सबने पढ़े हुए है की कैसे उन्हें विदेशों में "सचिन के देश का व्यक्ति' होने की वजह से सम्मान मिला.

20 साल पहले लोग खेल-कूद को फुरसत का काम और वक्त की बरबादी समझा करते थे. सचिन ने लोगों की सोच बदल दी. अब लोग अपने बच्चों को खेल में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करने में जरा भीं नहीं झिझकते. सचिन ने ना सिर्फ क्रिकेट बल्कि समूचे खेल जगत का उपकार किया है. ऐसा कोई मार्केटिंग गुरु नहीं है जो अपने शिष्यों से ये न कहता हो की उसे अपनी फील्ड का 'सचिन तेंडुलकर' बनना है. सचिन सफलता की सर्वोच्च कसौटी के प्रतिक बन गए है. सिर्फ चालीस साल की उम्र में. इससे भी पहले. क्या ये कोई उपलब्धि नहीं है ?

सचिन ने हम भारतीयों को सिखाया की समर्पण क्या होता है. 'कर्म' का महिमामंडन करने वाले हमारे देश को सचिन ने सोदाहरण दिखाया की कर्म में आस्था किस प्रकार रखी जाती है. 24 सालों तक सचिन ने सिर्फ और सिर्फ अपने काम पर ध्यान दिया. जितने बेहतरीन वो खिलाड़ी है उससे बेहतरीन वो इंसान साबित हुए है. बेशुमार प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद भी उनका मैदान और मैदान के बाहर भी शालीन बने रहना अद्भुत है. ये वही सचिन है जिन्होंने राज ठाकरे जैसे संकुचित मनोवृत्ति के अवसरवादी नेता की घटिया राजनीति का ये कहकर जवाब दिया था, "मैं मुम्बईकर हूँ पर भारतीय पहले हूँ. मुंबई सबकी है." जब बड़े बड़े दिग्गज चुप थे तब सचिन का ये कथन बेहद सुकून भरा था.

सचिन को भारतीय जनता का बेशुमार प्यार प्राप्त हुआ है. कोई हैरानी नहीं है कि कल पूरा वानखेड़े स्टेडियम रो रहा रहा. पूरा देश रो रहा था. एक महान शख्सियत को ये एक अद्भुत, अकल्पनीय विदाई थी. जिस शख्स से 100 करोड़ लोग इतना प्यार करते हो उसकी अहमियत कैसे नकारी जा सकती है ? आपको क्रिकेट नापसंद हो सकता है कबूल पर क्या आपको अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान तक पहुंचे अपने किसी देशवासी पर गर्व नहीं महसूस होता ? आज पूरे विश्व में सचिन की चर्चा है. अमेरिका जैसा देश जहां क्रिकेट खेली भी नहीं जाती, सचिन की विदाई को लेकर उत्सुक है. टाइम मैगज़ीन ने सचिन के योगदान को भरपूर शब्दों में सराहा है. क्या इन सब बातों से हमारे भारत का गौरव नहीं बढ़ा ? और क्या पैमाना होता है श्रेष्ठ भारतीय होने का ?

एक ऐतराज न सिर्फ सचिन पर बल्कि क्रिकेट पर ही उठता आया है की क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसकी वजह से अन्य खेल पिछड़ गए है. ये एक मिथ्या आरोप है. (बहस आमंत्रित है). लोगों को क्रिकेट बन्दूक की नोक पर नहीं पसंद करवाया गया. जिसमे लोगों की रूचि है वो वही देखते है. क्रिकेट भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है तो वो सिर्फ इसे पसंद करने वाले करोड़ों लोगों की वजह से. और जो चीज ज्यादा पसंद की जायेगी वही आगे रहेगी ना.. क्या क्रिकेटर्स को कम मेहनत करनी पड़ती है ? उनके समर्पण और लगन में किसी भी अन्य खेल के खिलाड़ी से कमी होती है ? क्रिकेट को पानी पी पीकर कोसने वालों से आप कुछ सवाल पूछ कर देख लीजिये. मसलन, क्या आप हॉकी के सारे मैच देखते हो ? भारतीय हॉकी टीम के सदस्यों के नाम क्या है ? क्या आपने हाल ही में संपन्न हुई बैडमिंटन लीग पर कोई ध्यान दिया ? क्या आपको पता है इस वक्त विश्वनाथन आनंद चेन्नई में कार्लसन के हाथों अपनी बादशाहत गंवाने के मुहाने पर है ? देख लीजियेगा 90 प्रतिशत लोग बगलें झांकते नजर आयेंगे. मेरे कई मित्र फेसबुक पर सालों से है. वो याद करके बताएं की हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन, शतरंज या किसी भी और खेल से सम्बंधित कितने स्टेटस अपडेट उन्होंने देखे है ? पर जब एक क्रिकेट मैच होता है तो हर दूसरी वाल पर स्टेटस अपडेट आते रहते है. इतना ही लोकप्रिय है क्रिकेट भारत में. और इसे नकारा नहीं जा सकता. और वैसे भी तनावभरी ज़िन्दगी से जो चीज आपको कुछ पलों का डायवर्जन दे और 'स्ट्रेस बस्टर' का काम करे वो बुरी नहीं है. मुझे पता है मेरी लिस्ट में शामिल कई गुणी मित्रजन मुझसे घोर असहमत होंगे. पर मैं स्पष्ट करना चाहूंगी की मैं एक आम लड़की हूँ. जिसकी छोटी छोटी खुशियां है और छोटे छोटे ही गम है.

सचिन सही मायनों में भारतरत्न के हकदार है. कई जगह ये भी सुनाई आ रहा है की अब वो कांग्रेस का प्रचार करेंगे. तो करने दीजिये भई. वक्त आने पर उनसे भी पूछेंगे की किस बिना पर वो एक भ्रष्ट सरकार का समर्थन कर रहे है. हालांकि वो उनका निजी अधिकार होगा कि वो किसका समर्थन करे, ठीक उसी तरह जिस तरह लता जी को मोदी का समर्थन करने का हक़ है. फिर भी सवाल उनसे भी पूछे जायेंगे. पर आज, इस घडी तो उनकी महत्ता स्वीकार कीजिये. वो वक्त जब आएगा तब आएगा. तब तक तो एक बेहतरीन भारतीय की कल्पनातीत सफलता की कद्र कीजिये.

हां मुझे इस बात का जरुर जरुर मलाल है की हॉकी के जादूगर ध्यानचंद अब तक इस सम्मान से विमुख है. अब तक सरकारें इस बहाने की आड़ में छुप जाया करती थी की खेल जगत इस पुरस्कार के लिए पात्र नहीं है. पर अब जब पहल हो गई है तो उन्हें भी जल्द से जल्द ये उपाधि देकर इस उपाधि का सम्मान बढ़ाया जाए. उनको ये पुरस्कार ना मिलना एक दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी.

दरअसल हमें इस वक्त सभी तर्क कुतर्क एक तरफ रखकर एक बेहतरीन शख्सियत की महत्ता को खुले दिल से स्वीकारना चाहिए. पर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा. दरअसल हमारा देश आलोचकों का देश है. हमें हर चीज में कमी ढूँढने की आदत पड़ चुकी है. जब सारी दुनिया हमारे हीरोज को सम्मान दे रही होती है, हम उनमे कीड़े निकाल रहे होते है. ये खुद को अलग दिखाने की अंधी होड़ है जो घातक है. बेहतर होगा हम इस आदत को त्याग दे.

सचिन का वापस लौटकर पिच को सम्मान देना दर्शाता है कि उन्होंने अपने काम को ही अपना धर्म माना था. धार्मिक विद्वेष से जहरीली हो चुकी हमारे देश की हवाओं में 'कर्म ही धर्म है' का खामोश सन्देश पहुंचाने वाले अतुलनीय व्यक्ति को उसकी एक अदना सी प्रशंसक का सलाम.. उनका वो पिच को चूमना भारतीय संस्कृति का निचोड़ था. मेरे देश की सभ्यता को विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने के लिए सचिन बधाई के और भारतरत्न के भी सरासर पात्र है.

आलोचक चाहे कुछ भी कहे, कहते रहे.... सचिन रमेश तेंडुलकर, आप करोड़ों भारतीयों के भारतरत्न थे, है और रहेंगे....

""थैंक यू सचिन.""


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एडिट - हमारे सचिन को livevns.com वालों ने भी सर माथे बिठा लिया. मेरे द्वारा लिखे मामूली लेख को इतना सम्मान देने के लिए दिल से शुक्रिया...


http://www.livevns.com/?p=3343#more-3343

ऐ 'साहेब' ये ठीक नहीं

पीछा कराना, बाते सुनना
ऐ 'साहेब' ये ठीक नहीं....

विशेष सूचना : जिस फिल्म के गीत पर आधारित ये तुकबंदी है उस फिल्म का नाम "खलनायक" था.

Saturday, November 16, 2013

गुस्सा तो नहीं है आप

कोई आपसे पूछता है, "गुस्सा तो नहीं है आप ?"

आप कहते है, "नहीं तो."

वो फिर कहता है, "शायद हो आप."

आप समझाते है, "नहीं भई'"

वो फिर भी लगा रहता है, "मुझे लग रहा है."

आप चिढ़ जाते है, "खामखा लग रहा है ?"

फिर वो विजेता के स्वर में कहता है, "देखा, मैंने कहा था ना ?"

बताइये ऐसी सिचुएशन में क्या किया जाए...?
— feeling irritated.

The Modi-fied discovery of india

तकरीबन सत्तर साल पहले आगे चल कर भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने जवाहरलाल नेहरु जी ने एक किताब लिखी थी...."The discovery of india."

अब लग रहा है की आने वाले दिनों में इसी तरह की एक और किताब पढने को मिल सकती है...
"The Modi-fied discovery of india."

हे राम....!!!!

Friday, November 15, 2013

दुनिया का दस्तूर

पैगम्बरों को पत्थर से मारना और फिर बाद में उनकी याद में गिरजाघर बनवाना बहुत जमाने से दुनिया का दस्तूर रहा है. आज हम ईसा मसीह की पूजा करते है लेकिन जब वो जीते जागते हमारे बीच मौजूद थे तब हमने उन्हें सूली पे चढ़ा दिया था.

Thursday, November 14, 2013

सवाल क्या, जवाब क्या

सवाल क्या, जवाब क्या..
इससे बड़ा अजाब क्या

खोल भी दे दिल का कमरा
मुझसे अब ये हिजाब क्या

सबक था जिसमे रस्मे-वफ़ा का
खो गई है वो किताब क्या

हर बाजी हारना मुकद्दर था
अब शिकायत कैसी, हिसाब क्या

कच्चे घड़े पर तैरना मुश्किल
गंगा क्या और चनाब क्या

जो रूह को कैद कर ले गये
कभी लौटेंगे वो जनाब क्या

------- जारा खान .
14/11/2013.

Tuesday, November 12, 2013

तमाम उम्र चले और घर नहीं आया

अजाब ये भी किसी और पर नहीं आया
तमाम उम्र चले और घर नहीं आया...

---- अज्ञात.

Saturday, November 9, 2013

शर्त भरा लहजा तो मेरी आदत है

ये शर्त भरा लहजा तो मेरी आदत है,
तू बात बात पर यूं नम ना किया कर आँखें...

-------- अज्ञात.

Friday, November 8, 2013

ज़िन्दगी के नाम पर वो चाहते है मारना

सितमगरों के दरमियां ये ज़िन्दगी गुजारना
बड़ी अजीब जंग है ना जीतना ना हारना

कोई कसूर हम करे तो सिर्फ मौत की सजा,
जो दूसरे खता करे तो आरती उतारना

मेरे 'मुहाफ़िज़ों' को अब मेरा ज़मीर चाहिए,
के ज़िन्दगी के नाम पर वो चाहते है मारना

Tuesday, November 5, 2013

बाजार फिल्म

"नजमा, इस ज़मीन पर मर्द सबसे बड़ा दरिंदा है. उसने अपनी नाइंसाफी, अपने जुर्म, अपने गुनाहों को छुपाने के लिए कुछ रस्में, कुछ रीती-रिवाज बनाए है. इन रस्मों को कभी वो मजहब या धर्म का नाम देता है और कभी कानून का. और इनकी आड़ में छिपकर वो इज्ज़तदार और शरीफ बना रहता है. अगर शाकिर अली खान किसी शरीफ आदमी से ये कहे कि मैं आपकी बेटी को खरीदना चाहता हूं तो वो उसका खून कर देगा. लेकिन अगर यही शाकिर अली खान रस्मोंरिवाज़ का सहारा लेकर उस आदमी की पंद्रह साल की बेटी से शादी करना चाहे तो वो आदमी इंकार नहीं करेगा क्यूंकि ये ज़माने का दस्तूर है. वो अपने हाथों से उस लड़की को डोली में बिठा देगा. ये समझकर कि यही इस लड़की का मुकद्दर है. यही इसकी किस्मत है."

"मैं...मैं कहां से आ गई..? मैं क्या कर रही हूं..? मैं इंकार क्यूं नहीं करती.? मुझे गुस्सा क्यूं नहीं आता..? मैं कौन हूं..? मैं क्या हूं..? इस बाज़ार में कहीं मैं तो खरीददार नहीं..?

"तुम खरीददार नहीं हो नजमा, तुम इस बाज़ार में बिकने वाली इक शय हो. तुम वो खिलौना हो जिसे ख़रीदा जा चुका है. अपने जिस्म को किसी दुकान की शोकेस से बचाने के लिए तुमने अख्तर के घर की सजावट बनाना पसंद किया है. तुम इस मरते हुए समाज की गिरती दीवार हो नजमा. तुम घर की चारदीवारी में घुट घुट के मरती रहोगी और मर्दों का खिलौना बनती रहोगी. जब तक जीने के लिए किसी मर्द का सहारा चाहिए, चाहे वो अख्तर हो चाहे सलीम, तुम खिलौना बनी रहोगी."

ये संवाद सलीम ( नसीरुद्दीन शाह ) और नजमा ( स्मिता पाटिल ) के बीच घटित हुआ है और आपने सही पहचाना ये एक फिल्म का हिस्सा है. पर हमारे समाज की नंगी सच्चाई भी यही है. कल रात सागर सरहदी की फिल्म बाज़ार देखी. दिमाग सुन्न हो गया. हमारे मुल्क में गरीब तबके की लड़कियों के लिये (कहीं कहीं तो साधन संपन्न घरों की लड़कियों के लिए भी) शादी कैसे एक बाज़ार है, एक मंडी है इसकी जिन्दा तस्वीर है ये फिल्म. किस तरह शादी के नाम पर ताउम्र के लिए नौकरानी हासिल की जाती है, कैसे लड़कियों को अपने ख्वाब, अपनी आरजुओं का क़त्ल करने पर मजबूर किया जाता है, कैसे समाज का हर शख्स एक अकेली लड़की के मुखालिफ हो जाता है और लड़की को उसकी सलीब तक धकेलने में कैसे समाज का हर हिस्सा जाने अनजाने शिरकत करता है इसे जानना हो तो ये फिल्म देख लीजिये.

सदियों से इस मुल्क की धरती ने हजारों लाखों शबनमों की चीखें अनसुनी की है. लाखों नजमाओं को इतना मजबूर किया है की उनको अपना किरदार तक बदलना पड़ा. और समाज की साजिश में शरीक होना पड़ा. अनगिनत सिरजूं अपनी मुहब्बत की बेवक्त मौत पर जार जार रोये है पर इस धरती ने, इसके बाशिंदों ने, इसके रीतिरिवाजों ने उनके तपते हुए कलेजे पर ठंडक का एक फाहा रखना भी जरुरी नहीं समझा. न जाने कितनी आरजूएं, कितनी मुहब्बतें, कितनी हसरतें दफ्न है इन हवाओं में की अगर सच में ही बद्दुआओं में असर होता तो ये दुनिया कब की जल के ख़ाक हो चुकी होती.. अपने तमाम रस्मोंरिवाजों समेत. कभी इज्जत, कभी रिवायत तो कभी मजहब के नाम पर औरत हर दौर में छली गई है. छली जा रही है. हमारे देश में ये आम बात है की भले ही खानदान कितना ही नामी-गिरामी क्यूं न हो, कितना ही फौलादी क्यूं न हो, उसकी इज्जत का दारोमदार उस खानदान की सबसे कमजोर कड़ी के सबसे कमजोर कंधों पर ही टिका होता है. वो बेचारी इतने बड़े बोझ को सहते सहते ख़त्म हो जाती है और उसकी कुर्बानी का कोई नोटिस तक नहीं लेता. जन्म से लेकर मौत तक के लम्बे सफ़र में एक लम्हा भी वो इस बात से गाफिल नहीं हो सकती की उसके ऊपर इतने लोगों की सामूहिक इज्जत का टोकरा संभालने की जिम्मेदारी है. जरा सी चूक हुई नहीं और मरने से पहले ही जहन्नुम का मज़ा हाजिर. सोते जागते ये एहसास कि उसके सर के ऊपर एक तलवार हमेशा के लिए लटका दी गई है उसे कभी भी पूरी तरह पनपने नहीं देता. उसके वजूद को इतना दोयम बना के रखा जाता है की उसे अल्लाह की रहमत, ईश्वर का न्याय या गॉड की अनुकम्पा मिथ्या ही प्रतीत होती है.

बाज़ार तकरीबन तीस साल पुरानी फिल्म है. पर बेहद दुखद बात ये है की ये आज भी प्रासंगिक है. और भविष्य में भी इसकी प्रासंगिकता ख़त्म होती नहीं दिखाई देती. न जाने क्यूं ये फिल्म बहुत अपनी सी प्रतीत हुई. कोई भी ड्रामेटिक सीन ना होने के बावजूद मैं फूट फूट के रोई. ये कहानी सिर्फ शबनम की नहीं है. इस मुल्क में बसी हजारों शबनमों, नजमाओं, नसरीनों और जाराओं की कहानी है ये. परिस्थितियां भले ही अलग अलग हो पर इस बाज़ार में बिकती सभी है. किसी का बिकना दिखाई देता है तो किसी का बेशुमार चमक-धमक में खो जाता है. शबनम तो ख़ुदकुशी कर के आज़ाद हो गई अंत में, पर अभी लाखों ऐसी शबनमें मौजूद है जिनके पास मरकर निजात पाने का रास्ता भी मौजूद नहीं है और जिन्होंने अपना सलीब ढोना ही ढोना है.

आइये दुआ करते है की खुदा हर उस शबनम की ज़िन्दगी आसान करे जिसे महज इस बात की सजा मिली है की वो एक लड़की बनकर पैदा हुई.

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया-२
हमें आप से भी जुदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

जबीं सजदा करते ही करते गई-२
हक़-ए-बंदगी यूँ अदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे-२
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

बहुत आरजू थी गली की तेरी-२
सो यास-ए-लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ

Friday, November 1, 2013

ख़ुदा करे कि किसी को भी ऐसी प्यास न हो

मिलेंगे अब हमें हर सू डरावने मंज़र,
हमारे साथ वो आए, जो बदहवास न हो
न जाने कब से लहू पी रहा है वो अपना,
ख़ुदा करे कि किसी को भी ऐसी प्यास न हो..

- अमीर कज़लबाश