Thursday, October 10, 2013

सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं

तलब को अज्र न दूं, फ़िक्र-ए-रहगुजर ना करूं....
सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं...

उभरते डूबते सूरज से तोड़ लूं रिश्ता,
मैं शाम ओढ़ के सो जाऊं और सहर ना करूं...

अब इससे बढ़ के भला क्या हो एहतियात-ए-वफ़ा,
मैं तेरे शहर से गुजरूं तुझे खबर ना करूं...

ये मेरे दर्द की दौलत, मेरे अश्कों का जहां,
इन आंसुओं की वजाहत मैं उम्र भर ना करूं...

उजाड़ शब की खलिश बन के कहीं खो जाऊं,
मैं चांदनी की तरह खुद को दरबदर ना करूं...

---------- अज्ञात.

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