Sunday, October 6, 2013

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे...
ये तो बस प्यार से जीने का सलीका मांगे...

ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है,
जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगे...

सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा,
कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगे...

ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूं है हर सू,
ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगे...

ये तआल्लुकहै कि सौदा है या क्या है आखिर,
लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगे...

कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ ‘अज़ीज़’
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा मांगे...

--------- अजीज आज़ाद..

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