Friday, October 11, 2013

सड़क के किनारे

औरत रो सकती है, दलील नहीं दे सकती. उसकी सबसे बड़ी दलील उसकी आँखों से ढलका हुआ आंसू है. मैंने उससे कहा - "देखो, मैं रो रही हूँ. मेरी आँखे आंसू बरसा रही है. तुम जा रहे हो तो जाओ. मगर इनमे से कुछ आंसुओं को तो अपने ख्याल के कफ़न में लपेटकर साथ ले जाओ. मैं तो सारी उम्र रोती रहूंगी लेकिन मुझे इतना तो याद रहेगा कि चंद आंसुओं के कफ़न-दफ़न का सामान तुमने भी किया था.. मुझे खुश करने के लिए...."

उसने कहा, "मैं तुम्हें खुश कर चुका हूं. क्या उसका आनंद, उसका एहसास, तुम्हारी ज़िन्दगी के बाकी लम्हों का सहारा नहीं बन सकता ? तुम कहती हो कि मेरी पुष्टि ने तुम्हें अधूरा कर दिया है. लेकिन ये अधूरापन ही क्या तुम्हारी ज़िन्दगी को चलाने के लिये काफी नहीं ? मैं मर्द हूं, आज तुमने मेरी पुष्टि की है. कल कोई और करेगा. मेरा अस्तित्व ही कुछ ऐसे धूल-पानी से बना है. मेरी ज़िन्दगी में तुम जैसी कई औरतें आयेंगी जो इन क्षणों की पैदा की हुई खाली जगहों को पूरा करेंगी..."

मैंने सोचा.... ये कुछ लम्हे जो अभी-अभी मेरी मुट्ठी में थे.. नहीं मैं इन लम्हों की मुट्ठी में थी... मैंने क्यों खुद को उनके हवाले कर दिया..? मैंने क्यों अपनी फडफडाती रूह उनके मुंह खोले पिंजरे में डाल दी.. इसमें मज़ा था, एक लुत्फ़ था, एक कैफ था - जरुर था - और यह उसके और मेरे संघर्ष में था - लेकिन यह क्या..? वह साबूत और सालम रहा और मुझमे तरेड़ें पड़ गई. वह ताकतवर बन गया है, मैं कमज़ोर हो गई हूं.. यह क्या कि आसमान में दो बादल गले मिल रहे हो, एक रो-रोकर बरसने लगे, दूसरा बिजली का टुकड़ा बनकर उस बारिश से खेलता, कोड़े लगाता भाग जाए... यह किसका क़ानून है...? आसमानों का...? या इनके बनाने वालों का...??

---- सड़क के किनारे.
सआदत हसन मंटो.

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