Wednesday, October 30, 2013

मेरी तलाश को बेनाम,बेसफ़र कर दे

मुझे बुझा दे, मेरा दर्द मुख़्तसर कर दे
मगर दिये की तरह मुझको मोतबर कर दे
मेरे वजूद के हर जर्रे का कोई निशां न बचे,
मेरी तलाश को बेनाम,बेसफ़र कर दे....

Tuesday, October 15, 2013

लहू का नाम न था खंजरों के सीनों पर

लहू का नाम न था खंजरों के सीनों पर,
मगर लिखी थी कथा सारी आस्तीनों पर...

-------- अज्ञात.

Monday, October 14, 2013

इंसान शादी के बिना अधूरा है

एक महान ज्ञानी संत ने अपना प्रवचन कुछ इस तरह शुरू किया,

"इंसान शादी के बिना अधूरा है.............."

बस इतना सुनना था की लोगों में भगदड़ मच गई. हर कोई इस शाश्वत सत्य को लपककर गोली की रफ़्तार से रफूचक्कर हो गया. इतनी गहरी और सारगर्भित बात को अपने यारों, प्यारों और दुलारों को सुनाने की जल्दी में आगे का हिस्सा सुनना किसी ने भी जरुरी ना समझा.. सब सत्य का हिस्सा पाकर ऐसे बौराए हुए थे की जल्द से जल्द उसे सारी दुनिया में फैला देना चाहते थे.. एक भी ना रुका वहां... सिर्फ हम थे जो वहां रुके रहे... हमें इस सत्य में झोल दिखाई दे रहा था.. सोचा महात्मा जी से पूछ लेते है की क्या वो सच में ही इस बात को मानते है.. 'आर यू क्रेजी ..?' जैसा कोई इल्जामनुमा सवाल उनके सर पर मारने का इरादा था हमारा. पर उसकी नौबत ही नहीं आई... महात्मा जी कुछ देर तो हक्के बक्के होकर लोगों का बौराना देखते रहे. कई बार उनका मुंह खुला, बंद हुआ, फिर खुला, फिर बंद हुआ. ऐसा लगा की वो और भी बहुत कुछ कहना चाहते है पर कोई सुनके राजी नहीं था. सब लोग उस एक फिकरे में छुपे अर्ध-सत्य को झपटकर फरार हो गए. पूरा पंडाल खाली हो गया.
दुःख के मारे महात्मा जी की शक्ल विधवा के पति जैसी हो गई थी. फिर उनकी नज़रें हम पर पड़ी. उनकी आँखों में यूं ख़ुशी की चमक उभर आई जैसे हमने उन्हें प्याज मुफ्त में दिलाने का वादा कर दिया हो. उन्होंने हमारी तरफ नज़र भर कर देखा. ( आसाराम वाली नज़र नहीं ). अपने आप को व्यवस्थित किया. और फिर पहले जितने ही जोश से अपना वाक्य पूरा किया.

"इंसान शादी के बिना अधूरा है.... पर.... शादी के बाद मुकम्मल तौर से ख़त्म हो जाता है.."

फिर उन्होंने यूं हमारी तरफ देखा जैसे अपने कथन का प्रभाव हमारे चेहरे से पढना चाहते हो. हम तो पहले ही उनके स्टेटमेंट के दूसरे हिस्से से भयंकर रूप से सहमत हुए बैठे थे. हमने आँखों ही आँखों में उन्हें आश्वासन दिया की इस बार उन्होंने प्रकृति के महानतम रहस्यों में से एक पर से बड़ी कामयाबी से पर्दा उठाया है. और उनकी महानता का महिमामंडन करने वाले हज़ारो, लाखों शादी-पीड़ित लोग उन्हें इस भारतवर्ष में मिल ही जायेंगे.. बस उनके इस क्रांतिकारी विचार को आम जन तक पहुंचाना होगा .. अपने एकमात्र श्रोता की मूक सहमती को प्राप्त कर महात्मा जी धन्य टाइप हो गए और तुरंत समाधि में लीन हो गए..

तो मेरे कुंवारे मित्रों, आगे से अगर कोई आपको शादी के बारे में प्रवचन दे और शादी के फायदे गिनवाएं तो उसके सर पर महात्मा जी के ये अनमोल बोल परमाणु बम की तरह पटकना ना भूलियेगा. इंसान शादी के बिना अधूरा है पर शादी के बाद मुकम्मल तौर से ख़त्म हो जाता है. और मुकम्मल ख़त्म होने से बेहतर है आधा अधूरा ही सही बने रहना..

समझे के नाही...?

Saturday, October 12, 2013

मेरी इन आंखों से अश्कों का समंदर निकला

दिल के ज़ज्बात जो भर आये तो बाहर निकला...
मेरी इन आंखों से अश्कों का समंदर निकला....

ख्वाहिश-ए-दीद में देखा किये हर चेहरे को,
एक चेहरा भी नहीं तेरे बराबर निकला...

जिसको इक उम्र खुदा जानकर पूजा हमने,
क्या बताएं तुझे ऐ दोस्त वो पत्थर निकला...

इस तरह तीर चलाया था किसी जालिम ने,
दिल में पैबस्त हुआ, रूह को छूकर निकला....

उम्र भर दस्त-ए-हिमायत जिसे समझे रक्खा,
पुश्त पर दीद जो डाली तो वो खंजर निकला...

गर्दिश-ए-वक्त तू कर अपनी निगाहें नीची,
काफिला फिर से कोई आज खुले सर निकला...

अपनी उल्फत को अमर करने की खातिर वो शख्स,
तेरे कूचे से गया ऐसे के मर कर निकला....

----------- अज्ञात.

Friday, October 11, 2013

हम से जब भी गुनाह होता है

हम से जब भी गुनाह होता है,
उसे फितरत की भूल कहते है...
कितने पुरऐतमाद है हम लोग,
लगजिशों को उसूल कहते है....

-------अज्ञात.

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

मोमबत्तियां ख़त्म हो गई क्या बाज़ार से...? नैना साहनी और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के पीड़ितों के लिए तो एक भी ना जली...?
खैर, होता है... और भी ग़म है ज़माने में....

"क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ.."

सड़क के किनारे

औरत रो सकती है, दलील नहीं दे सकती. उसकी सबसे बड़ी दलील उसकी आँखों से ढलका हुआ आंसू है. मैंने उससे कहा - "देखो, मैं रो रही हूँ. मेरी आँखे आंसू बरसा रही है. तुम जा रहे हो तो जाओ. मगर इनमे से कुछ आंसुओं को तो अपने ख्याल के कफ़न में लपेटकर साथ ले जाओ. मैं तो सारी उम्र रोती रहूंगी लेकिन मुझे इतना तो याद रहेगा कि चंद आंसुओं के कफ़न-दफ़न का सामान तुमने भी किया था.. मुझे खुश करने के लिए...."

उसने कहा, "मैं तुम्हें खुश कर चुका हूं. क्या उसका आनंद, उसका एहसास, तुम्हारी ज़िन्दगी के बाकी लम्हों का सहारा नहीं बन सकता ? तुम कहती हो कि मेरी पुष्टि ने तुम्हें अधूरा कर दिया है. लेकिन ये अधूरापन ही क्या तुम्हारी ज़िन्दगी को चलाने के लिये काफी नहीं ? मैं मर्द हूं, आज तुमने मेरी पुष्टि की है. कल कोई और करेगा. मेरा अस्तित्व ही कुछ ऐसे धूल-पानी से बना है. मेरी ज़िन्दगी में तुम जैसी कई औरतें आयेंगी जो इन क्षणों की पैदा की हुई खाली जगहों को पूरा करेंगी..."

मैंने सोचा.... ये कुछ लम्हे जो अभी-अभी मेरी मुट्ठी में थे.. नहीं मैं इन लम्हों की मुट्ठी में थी... मैंने क्यों खुद को उनके हवाले कर दिया..? मैंने क्यों अपनी फडफडाती रूह उनके मुंह खोले पिंजरे में डाल दी.. इसमें मज़ा था, एक लुत्फ़ था, एक कैफ था - जरुर था - और यह उसके और मेरे संघर्ष में था - लेकिन यह क्या..? वह साबूत और सालम रहा और मुझमे तरेड़ें पड़ गई. वह ताकतवर बन गया है, मैं कमज़ोर हो गई हूं.. यह क्या कि आसमान में दो बादल गले मिल रहे हो, एक रो-रोकर बरसने लगे, दूसरा बिजली का टुकड़ा बनकर उस बारिश से खेलता, कोड़े लगाता भाग जाए... यह किसका क़ानून है...? आसमानों का...? या इनके बनाने वालों का...??

---- सड़क के किनारे.
सआदत हसन मंटो.

Thursday, October 10, 2013

सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं

तलब को अज्र न दूं, फ़िक्र-ए-रहगुजर ना करूं....
सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं...

उभरते डूबते सूरज से तोड़ लूं रिश्ता,
मैं शाम ओढ़ के सो जाऊं और सहर ना करूं...

अब इससे बढ़ के भला क्या हो एहतियात-ए-वफ़ा,
मैं तेरे शहर से गुजरूं तुझे खबर ना करूं...

ये मेरे दर्द की दौलत, मेरे अश्कों का जहां,
इन आंसुओं की वजाहत मैं उम्र भर ना करूं...

उजाड़ शब की खलिश बन के कहीं खो जाऊं,
मैं चांदनी की तरह खुद को दरबदर ना करूं...

---------- अज्ञात.

Wednesday, October 9, 2013

बड़े लोग

ये बड़े लोग इतने छोटे क्यूँ होते है....???  

_____________________________________

ब्राण्डी का जला हुआ बियर भी फूंक फूंक कर पीता है.....

Tuesday, October 8, 2013

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है

"ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है.."

-------- ज़फर गोरखपुरी.

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है

उदासी गीत गाती है, मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है

अजब है रब्त की दुनिया, ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

------ ज़फर गोरखपुरी.

Monday, October 7, 2013

उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था

अन्सार-ए-सिदक-ओ-वफ़ा उसकी मुहब्बत में न था...
वो जो दिखता था मेरी जान वो हकीकत में न था...

रोज़ होता था हर एक रुख पे दिलो जान से फ़िदा,
एक दिलबर से निभाना भी तो फितरत में न था....

सुबह शीरीं के लिए, शाम थी लैला के लिए,
और शब में भी एक ही सोहबत में न था....

ज़हन पे छाया था लम्हों के मरासिम का नशा,
सोचते क्या वो हद्द-ए-फहम-ओ-फरासत में न था....

मैंने उसकी हकीकत को अयां कर तो दिया,
पर उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था...


-- अज्ञात

Sunday, October 6, 2013

रूह से छू ले इसे जिस्म का मन्तर न बना

अपनी औक़ात समझ खुद को पयम्बर न बना...
देख बच्चों की तरह रेत पे अक्षर न बना...

मुझसे मिलना है तो मिल आके फ़क़ीरों की तरह,
मुझसे मिलने के लिए ख़ुद को सिकन्दर न बना...

दस्तकें देता रहेगा कोई आतंक सदा,
वारदातों की गली में तू कोई घर न बना...

प्यार के गीत का ये शब्द बहुत सच्चा है,
रूह से छू ले इसे जिस्म का मन्तर न बना....


--अज्ञात

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे...
ये तो बस प्यार से जीने का सलीका मांगे...

ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है,
जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगे...

सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा,
कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगे...

ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूं है हर सू,
ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगे...

ये तआल्लुकहै कि सौदा है या क्या है आखिर,
लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगे...

कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ ‘अज़ीज़’
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा मांगे...

--------- अजीज आज़ाद..

Saturday, October 5, 2013

मेरी हसरतों को सुखन सुना, मेरी ख्वाहिशों से ख़िताब कर.

न सन्नाटों में तपिश घुले, न नज़र को वक्फ-ए-अजाब कर...
जो सुनाई दे उसे चुप सिखा, जो दिखाई दे उसे ख्वाब कर...

अभी मुंतशिर न हो अजनबी, न विसाल रुत के करम जता,
जो तेरी तलाश में गुम हुए, कभी उन दिनों का हिसाब कर...

मेरे सब्र पर कोई अज्र क्या, मेरी दोपहर पे ये अब्र क्यूँ ?
मुझे ओढने दे अज़ीयतें, मेरी आदतें न ख़राब कर...

कहीं आबलों के भंवर बजे, कहीं धूप रूप बदन सजे,
कभी दिल को थल का मिज़ाज दे, कभी चश्म-ए-तर को चनाब कर...

ये हुजूम-ए शहर-ए-सितमगरां , न सुनेगा तेरी सदा कभी,
मेरी हसरतों को सुखन सुना, मेरी ख्वाहिशों से ख़िताब कर...

-------- मोहसिन नकवी.

Thursday, October 3, 2013

हम वो बेशर्म है

हम वो बेशर्म है,
हम वो बेदर्द है,
ख्वाब गंवाकर भी जिन्हें नींद आ जाती है.....
सोच सोच कर भी,
जिनके ज़हनों को कुछ नहीं होता....
टूट फूट के भी,
जिनके दिल धड़कना याद रखते है...
हम वो बेशर्म है,
हम वो बेदर्द है,
टूट कर रोने की कोशिश में जो,
बात बे बात मुस्कुराते है...
शाम से पहले मर जाने की ख्वाहिश लिए,
जीते है...
और...
जीते चले जाते है...

-------- अज्ञात.

Wednesday, October 2, 2013

बापू और शास्त्री

आदरणीय बापू और शास्त्री जी,

आज आप दो महान हस्तियों का जन्मदिवस है.... और मैंने अब तक ये भी नहीं सोचा की मुझे किसके जन्मदिवस की बधाई देनी है और किसको नज़रअंदाज़ कर देना है... आज कल के 'ट्रेंड' को ध्यान में रखते हुए आप दोनों में से सिर्फ एक को ही चुना जा सकता है ना...हमने तो अपने आदर्श भी बाँट लिए हैं अब... गांधी जी, आप को याद करने वालों को हमारे हिंदूवादी भाइयों की फटकार खाते आम देखती हूँ.. फिर बदले में हिंदूवादी भाई लोग शास्त्री जी पर कब्ज़ा कर लेते है.... वो तो अच्छा हुआ की खुदा ने आप दोनों को अपने पास बहुत पहले ही बुला लिया था.. अगर आज आप हमारे बीच होते तो शर्म से फिर मर जाते..

बापू, आपको तो क़त्ल किया था ना हमने... पर वो तो आपके शरीर को मारना था सिर्फ... आपकी आत्मा, आपके विचार, आपके सपनों की हत्या हम रोज किए दे रहे है... पूरी बेशर्मी से... अच्छा ही है जो आज आप नहीं है... वरना आपको गालियां दे देकर बुद्धिजीवी कहलाने वाले हम कृतघ्नों को देख कर आप की निगाह शर्म से झुक जाती...

और शास्त्री जी, जितनी संदिग्ध परिस्थितियों में आपकी मौत हुई थी उससे ज्यादा संदिग्ध आज हमारे ज़हन हो चुके है... आपका वो नारा जो कभी पूरे देश को इकठ्ठा करने के काम आया करता था, चुनावी हथकंडा बन के रह गया है... आप भी वक्त रहते परलोक सिधार गए.. अच्छा ही हुआ...

वैसे हम इस बात के लिए आपके जरुर शुक्रगुजार है की आपने हम आलसियों के देश को एक छुट्टी मुहैया कराई... आपका हमारे जीवन में बस इतना ही योगदान है.... बस वो ड्राई-डे वाला पंगा डाल के आपने बनी-बनाई खीर में मक्खी डाल दी.. पर हमने उसका तोड़ भी निकाला हुआ है... नो प्रॉब्लम...

और हां, इस मुगालते में मत रहिएगा की हम आपको सच्ची श्रद्धांजलि देने के चक्कर में अपनी जीवनशैली बदलेंगे... हम तो ऐसे ही रहेंगे... और अगर कोई हमें ज्ञान बांटने आएगा तो उसपर वो सामूहिक हमला करेंगे की सारा ज्ञान भूल जाएगा...

विनीत,

आपके पीछे सच में ही बनाना-रिपब्लिक बन चुके एक देश में मौजूद हजारो मैंगो पीपल्स में से एक अहमक,
ज़ारा अकरम खान...