मुझे ओवैसी, तोगड़िया, आदित्यनाथ, इमरान मसूद जैसे लोगों से कोई ख़ास
शिकायत नहीं. हाँ ये जहर उगलते हैं लेकिन सिर्फ इसलिए क्यूँ कि उसकी डिमांड
है. ये वही बोलते हैं जो दिमाग से अपाहिज एक बहुत बड़ा तबका सुनना चाहता
है. इन्हें खूब पता होता है कि ये चाहे कुछ भी कह ले इनको कुछ नहीं होने
वाला. इस मुल्क की निकम्मी व्यवस्था में आग लगा कर साफ़ बच निकलने के हजारों
रास्ते मौजूद हैं. आजमाए हुए. इन्हें ये भी पता होता है कि इनकी लगाई आग
की हल्की सी भी आंच इनके या इनके अपनों के दामन तक नहीं पहुँचने वाली. जलेगा वो बेवक़ूफ़ ही जो इन्हें हीरो मान कर मरने मारने पर उतारू हो गया.
इन्हें खुदा मानने वाले इनकी जुबान से टपकता जहर अमृत समझ के पी जाते हैं और देशभक्ति/कौम-परस्ती की खोखली भावना से लबालब भर कर अकड़े फिरते हैं. आखिर क्या वजह होगी इस बड़े पैमाने पर होने वाले अन्धानुकरण की ? कही ये तो नहीं कि बुनियादी तौर पर हम अब भी एक हिंसक समाज है ? ऊँगली कट जाए तो ढेर सारा खून निकल आता है, दर्द भी होता है कई रोज़. वो भी एक बड़ा हादसा लगता है. लेकिन जब ये 'सो कॉल्ड शेर' काटने-पीटने की घोषणाएं करते हैं तो हम यूँ सुनते हैं जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं. ना सिर्फ सुनते है उसे आगे पहुंचाने में भी योगदान देते हैं. संवेदनशील कहलाने वाले मनुष्य की ये निष्ठुरता समझ से बाहर है.
तो इन तमाम शेरों के शावकों को ये सलाह है कि अगर आप यूँ ही नफरतों के सौदागरों के हाथ मजबूत करते रहें तो वो दिन दूर नहीं जब हम में से हर एक का हाथ एक दूसरे की गरदन पर होगा और हमारी हालत पर रोने वाला भी कोई नहीं बचेगा. इकबाल शायद इसी दिन के लिए कह गए कि, "तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में".
वैसे हिंसक समाज का जो खाका मैंने खींचा है कुछ लोग बिलाशक उसकी परिधि से बाहर हैं. और उन्हीं लोगों के दम पर ही तो टिकी है दुनिया..
इन्हें खुदा मानने वाले इनकी जुबान से टपकता जहर अमृत समझ के पी जाते हैं और देशभक्ति/कौम-परस्ती की खोखली भावना से लबालब भर कर अकड़े फिरते हैं. आखिर क्या वजह होगी इस बड़े पैमाने पर होने वाले अन्धानुकरण की ? कही ये तो नहीं कि बुनियादी तौर पर हम अब भी एक हिंसक समाज है ? ऊँगली कट जाए तो ढेर सारा खून निकल आता है, दर्द भी होता है कई रोज़. वो भी एक बड़ा हादसा लगता है. लेकिन जब ये 'सो कॉल्ड शेर' काटने-पीटने की घोषणाएं करते हैं तो हम यूँ सुनते हैं जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं. ना सिर्फ सुनते है उसे आगे पहुंचाने में भी योगदान देते हैं. संवेदनशील कहलाने वाले मनुष्य की ये निष्ठुरता समझ से बाहर है.
तो इन तमाम शेरों के शावकों को ये सलाह है कि अगर आप यूँ ही नफरतों के सौदागरों के हाथ मजबूत करते रहें तो वो दिन दूर नहीं जब हम में से हर एक का हाथ एक दूसरे की गरदन पर होगा और हमारी हालत पर रोने वाला भी कोई नहीं बचेगा. इकबाल शायद इसी दिन के लिए कह गए कि, "तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में".
वैसे हिंसक समाज का जो खाका मैंने खींचा है कुछ लोग बिलाशक उसकी परिधि से बाहर हैं. और उन्हीं लोगों के दम पर ही तो टिकी है दुनिया..
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