हिन्दू धर्म - शैव, वैष्णव, ब्राह्मण, दलित, शूद्र, वैश्य, और इनके अन्दर और सब-डिविजन्स . 'हर एक मनुष्य में ईश्वर का अंश है', सभी अवतारों की इस सीख को धता बताते हुए हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने इतनी शाखाओं का विस्तार कर लिया कि इसकी मूल पहचान को पहचानना ही एक टास्क बन गया.
इस्लाम - शिया, सुन्नी, अहमदिया, कादियानी, बोहरा, वहाबी, देवबंदी, बरेलवी, और भी बहुत से.. इस्लाम की मूलभूत सीख कि 'कोई भी बड़ा छोटा नहीं है, सब बराबर है' सिर्फ मस्जिदों में एक सफ में नमाज़ पढने तक और दस्तरख्वान शेयर करने तक सिमट कर रह गई. अशरफ़, अजलफ़ और अरज़ल का फर्क करना न जाने कहाँ से सीख लिया भाई लोगों ने..
बुद्धिज़्म - थेरावडा बुद्धिज्म, महायाना बुद्धिज्म, तिबेटियन बुद्धिज्म, वज्रायना बुद्धिज्म..... मूर्ती पूजा के घोर विरोधी रहे गौतम बुद्ध की खुद की इतनी मूर्तियां लगा दी अनुयायियों ने के अगर वो देख रहे होंगे तो बेहद शर्मसार हो रहे होंगे.
क्रिश्चियनिटी - प्रोटेस्टंट, कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स... और भी छोटी मोटी शाखाएं... हर कोई खुद को दूसरे से बेहतर समझते है और सिर्फ खुद को ईसा मसीह का सच्चा अनुयायी मानते है. मुझे यकीन है प्रभु येशु आज भी अपने अल्फाज़ बार बार दोहराते होंगे के, हे प्रभु, इन्हें माफ़ कर देना. ये नहीं जानते ये क्या कर रहे है.
सिक्खिज्म - उदासी पंथ के सिख, सहजधारी सिख, केशधारी सिख, डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी सिख, दस गुरुओं का सिद्धांत मानने वाले सिख, दस गुरुओं का सिद्धांत ना मानने वाले सिख.... सिर्फ पांच सौ साल पहले वजूद में आये इस धर्म ने भी बिखराव के मामले में कम समय में अच्छी तरक्की कर ली है.
अथिज्म ( निरीश्वरवाद ) - हालांकि ये धर्म की कैटेगरी में नहीं आता लेकिन इस विचारधारा में भी बहुत सा भटकाव नज़र आता है. सेमी अथिस्ट, फुल अथिस्ट, कम्युनिस्ट, ( मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, नॉन मार्क्सिस्ट आदि आदि ).
कहने का मतलब ये कि कोई भी धर्म, मजहब या विचारधारा खुद अपने अन्दर होने वाली टूट फूट को रोकने में असमर्थ रही है. इनका खूंटा इतना मजबूत नहीं साबित हुआ कि सबको जोड़ कर रख सके. तो फिर धर्म विशेष की श्रेष्ठता का दंभ कैसा..? आप किस धर्म में पैदा हुए हो ये जब आपके हाथ में नहीं था तो उसपर इतराना कैसा ? जो चीज़ इत्तेफाक से हो गई उसकी वजह से खुद को श्रेष्ठतम समझ लेना मूर्खता की निशानी है. किसी भी, आई रीपीट, किसी भी धर्म या विचारधारा में ये ताकत नहीं है के वो सभी को एक बराबरी का मंच दे सके. सभी के साथ एक जैसा बरताव कर सके. ऐसी ताकत तो सिर्फ और सिर्फ प्रेम में है. प्रेम ही है हर समस्या का रामबाण ईलाज.
मुझे पता है आप लोगों को मेरी ये बात काफी किताबी लग रही होगी लेकिन यकीन मानिए दोस्तों, प्रेम हमारी इकलौती पनाह है. जब हम सबसे प्रेम करना सीख जायेंगे तभी उस सृष्टि के रचयिता की सबसे उम्दा रचना होने का हमारा दावा जस्टिफाई कर पायेंगे. प्रेम करने के लिए हमें कोई भी एक्स्ट्रा मेहनत नहीं करनी पड़ती. सिर्फ अपने ह्रदय में इतनी जगह बना लेनी है के उसमे सब लोग समा सके. और कमाल की बात ये के ऐसा करके हम अपने अपने धर्म का मूल सिद्धांत ही कार्यान्वित कर रहे होंगे. और अपने अपने ईश्वरों, खुदाओं और रहनुमाओं को खुश कर रहे होंगे. तो ये बुरा सौदा तो यकीनन नहीं है न..?
आइये गुरु नानक देव के ये वचन दोहराते है,
"अवल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे
एक नूर से सब जग उपजया, कौन भले कौन मंदे"
एक नूर से सब जग उपजया, कौन भले कौन मंदे"
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