Friday, February 14, 2014

सुनो....

उन सभी प्रेमी जनों को एक नज़्म समर्पित जो संस्कृति रक्षकों के हमले से खुद को बचाने में कामयाब रहे. ( जो उनके हत्थे चढ़ गए उनके लिए तक़रीर फिर कभी.  )
संस्कृति शब्द पर तबसरा किये बगैर नज़्म का मज़ा लीजिये, ये गुजारिश अलग से है.

सुनो,
इक काम करना
चाँद से थोड़ी मिटटी लेना
फिर उससे दो बुत बनाना
इक तुम जैसा........ इक मुझ जैसा.......
फिर,
उन बुतों को तोड़ देना
फिर एक बार उसी मिटटी से,
दो नये बुत बनाना
इक तुम जैसा........ इक मुझ जैसा.......
ताकि,
तुम में कुछ कुछ मैं रह जाऊं.....
और,
मुझ में कुछ कुछ तुम रह जाओ....!

------------- शायर नामालूम...( हमेशा की तरह ) 

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