यूँ तो दोस्ती के लिए महज़ एक दिन मुक़र्रर कर देना कोई ख़ास समझदारी का काम तो है नहीं. लेकिन जब चलन चल ही पड़ा है तो इस दिन को मैं किसी ख़ास दोस्त की शुक्रगुजार होने का मौका जान कर कबूल कर रही हूँ.
अक्टूबर / नवम्बर 2012 की बात है. किताबों से सम्बंधित एक ग्रुप ज्वाइन किया था. उसमे किसी पोस्ट पर इन से परिचय हुआ. फिर इनबॉक्स में बातें होने लगी. वो मेरा फेसबुक पर शुरूआती वक्त था सो बेतहाशा झिझक थी. मेरे ही हमउम्र इस मित्र ने मेरी झिझक को बेहद शिष्टता से दूर किया. मुझे फेसबुक की कई बुनियादी बातें सिखाई. जैसे कमेंट में नाम टैग करना, चैट ऑफ करना, हिंदी में टाइपिंग करने वाले टूल का लिंक देना, उसे डाउनलोड करने का तरीका सिखाना, और भी बहुत कुछ. लेकिन जो सब से बड़ा एहसान उन का मुझ पर है वो ये कि उन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया. प्रेरित क्या किया एक तरह से बांह मरोड़ कर मजबूर किया. मैंने शुरू शुरू में लिखा आस्था वाला नोट हो या किताबों वाली पोस्ट, सब उन्हीं की देख रेख में हुआ. वो मेरे प्रूफ रीडर भी थे और पहले पाठक भी. लिखना तो शायद मुझे आता था लेकिन इस काम में जो आत्मविश्वास की दरकार होती है वो बिल्कुल नदारद था. उन्होंने उस आत्मविश्वास को मेरे अन्दर प्रज्वलित किया. आज जब भी कोई अनजान व्यक्ति मेरे इनबॉक्स में आ कर कहता है कि 'आप बहुत अच्छा लिखती हो' तो उन की बरबस याद आ जाती है. और दिल से उन के लिए दुआ निकलती है.
उन ख़ास मित्र का नाम है अवनीश कुमार जी. आज कल इन का फेसबुक पर आना बहुत कम हो गया है.
मैं आज के दिन अपने दिल की तमामतर गहराइयों के साथ आपका शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ अवनीश जी. मैंने तो आपको सिवाय सर-दर्द के कुछ नहीं दिया लेकिन आपने मुझे वो अता किया है जिस के लिए मैं चाहकर भी आपके एहसान से मुक्त नहीं हो सकती. ये जो मेरा लम्बा-चौड़ा फेसबुक परिवार है वो सिर्फ और सिर्फ आपकी बदौलत है.
आप का, आपकी अनगिनत नवाजिशों का दिल से शुक्रिया. आप खुश रहें, शाद रहें, आबाद रहें यही दुआ है.
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