Tuesday, June 25, 2013

वो भी क्या सदियां थीं, जिसने ऐसे दीवाने दिए

जब भी चिड़ियों को बुलाकर प्यार से दाने दिए,
इस नई तहज़ीब ने इस पर कई ताने दिए...

जिन उजालों ने किया अंधी गुफ़ाओं से रिहा,
बेड़ियां पहनाके हमने उनको तहखाने दिए...

हमने मांगी थी ज़रा-सी रोशनी घर के लिए,
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए...

हादसे ऐसे भी गुज़रे उनके मेरे दरमियां,
लब रहे ख़ामोश और आंखों ने अफ़साने दिए...

ज़िंदगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है,
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए...

आसमानों को भी सजदों के लिए झुकना पड़ा,
वो भी क्या सदियां थीं, जिसने ऐसे दीवाने दिए...

ज़िंदगी चादर है, धुलके साफ़ हो जायेगी फिर,
इसलिए हमने भी इसमें दाग़ लग जाने दिए...

हाथ में तेज़ाब के फ़ाहे थे मरहम की जगह,
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए...

----------------- अज्ञात.

1 comment:

  1. कवि माणिक वर्मा की रचना है ये

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