Friday, June 28, 2013

कुछ तू ही मेरे दिल की उदासी को समझ ले

कुछ तू ही मेरे दिल की उदासी को समझ ले,
हंसता हुआ चेहरा तो ज़माने के लिए है...

------------ अज्ञात.

मेरी चुप ने उसको रुला दिया...

मेरे हमसफ़र का हुक्म था के कलाम उससे कम करूं...
मेरे होंठ ऐसे सिले की मेरी चुप ने उसको रुला दिया...!!!

----------- अज्ञात.

Tuesday, June 25, 2013

वो भी क्या सदियां थीं, जिसने ऐसे दीवाने दिए

जब भी चिड़ियों को बुलाकर प्यार से दाने दिए,
इस नई तहज़ीब ने इस पर कई ताने दिए...

जिन उजालों ने किया अंधी गुफ़ाओं से रिहा,
बेड़ियां पहनाके हमने उनको तहखाने दिए...

हमने मांगी थी ज़रा-सी रोशनी घर के लिए,
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए...

हादसे ऐसे भी गुज़रे उनके मेरे दरमियां,
लब रहे ख़ामोश और आंखों ने अफ़साने दिए...

ज़िंदगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है,
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए...

आसमानों को भी सजदों के लिए झुकना पड़ा,
वो भी क्या सदियां थीं, जिसने ऐसे दीवाने दिए...

ज़िंदगी चादर है, धुलके साफ़ हो जायेगी फिर,
इसलिए हमने भी इसमें दाग़ लग जाने दिए...

हाथ में तेज़ाब के फ़ाहे थे मरहम की जगह,
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए...

----------------- अज्ञात.

Monday, June 24, 2013

ऐसा अपनापन भी क्या जो अजनबी महसूस हो

ऐसा अपनापन भी क्या जो अजनबी महसूस हो,
साथ रहकर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो....

आग बस्ती में लगाकर बोलते है, यूं जलो,
दूर से देखे कोई तो रोशनी महसूस हो....

भीड़ के लोगों सुनो, ये हुक्म है दरबार का,
भूख से ऐसे गिरो कि बन्दगी महसूस हो...

नाम था उसका बगावत कातिलों ने इसलिये,
क़त्ल भी ऐसे किया कि खुदकुशी महसूस हो...

शाख़ पर बैठे परिन्दे कह रहे थे कान में,
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो...

फूल मत दे मुझको, लेकिन बोल तो फूलों से बोल,
जिनको सुनकर तितलियों सी ताज़गी महसूस हो...

शर्त मुर्दों से लगाकर काट दी आधी सदी,
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िंदगी महसूस हो...

हो अगर जज़्बे अमल की बेकली इंसान में,
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो...

सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनिया का निज़ाम,
कोई रोये, आंख में सबके नमी महसूस हो...

------------------- अज्ञात.

Sunday, June 23, 2013

आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो

आपसे किसने कहा स्वर्णिम शिखर बनकर दिखो,
शौक दिखने का है तो फिर नींव के अंदर दिखो..

चल पड़ो तो गर्द बनकर आसमानों पर दिखो,
और अगर बैठो कहीं, तो मील का पत्थर दिखो...

सिर्फ़ दिखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो..

ज़िंदगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं,
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो..

आपको महसूस होगी तब हर इक दिल की जलन,
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो...

एक ज़ुगनू ने कहा मैं भी तुम्हारे साथ हूँ,
वक़्त की इस धुंध में तुम रोशनी बनकर दिखो...

एक मर्यादा बनी है हम सभी के वास्ते,
गर तुम्हें बनना है मोती सीप के अंदर दिखो...

पंछी ! इनसे आ रही है, कातिलों की आहटें,
उडके इन पूजाघरों से अपनी शाख़ों पर दिखो...

कोई ऐसी शक्ल तो मुझको दिखे इस भीड़ में,
मैं जिसे देखूं उसी में तुम मुझे अक्सर दिखो..

ऐशगाहें चाहती हैं सब कुछ लुटा चुकने के बाद,
तुम किसी तंदूर में हंसते हुए जलकर दिखो...

---------------- अज्ञात.

Friday, June 21, 2013

कागज़ की एक कश्ती अगर पार हो गयी

कागज़ की एक कश्ती अगर पार हो गयी,
इसमें समन्दरों की कहां हार हो गयी..???

----------- अज्ञात.

Thursday, June 20, 2013

समझते थे मगर फिर भी न रखी दूरियां हमने

समझते थे मगर फिर भी न रखी दूरियां हमने
चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने...

कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये उम्र भर काग़ज़ के फूल और पत्तियां हमने

यूँ ही घुट-घुट के मर जाना हमें मंज़ूर था लेकिन
किसी कमज़र्फ पर ज़ाहिर न की मजबूरियां हमने

हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ 'वाली'
ज़बां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियां हमने

---------वाली आसी

कौन सी बात कहां कैसे कही जाती है

कौन सी बात कहां कैसे कही जाती हैं,
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है....!

------------- वसीम बरेलवी.

Thursday, June 6, 2013

ख़ुशी की बात है या दुःख का मंज़र देख सकती हूं

ख़ुशी की बात है या दुःख का मंज़र देख सकती हूं
तेरी आवाज़ का चेहरा मैं छूकर देख सकती हूं...

अभी तेरे लबों पे जिक्र-ए-फस्ल-ए-गुल नहीं आया,
मगर इक फूल खिलता अपने अन्दर देख सकती हूं...

किनारा ढूंढने की चाह तक मुझमे नहीं होगी,
मैं अपने गिर्द इक ऐसा समंदर देख सकती हूं...

विसाल-ओ-हिज्र अपने यकसां हैं, वो मंजर हैं चाहत में,
मैं आंखे बंद करके तुझको अक्सर देख सकती हूं....

अभी तेरे सिवा दुनिया भी हैं मौजूद इस दिल में,
मैं खुद को किस तरह तेरे बराबर देख सकती हूं...

--------------------------- परवीन शाकिर.

Tuesday, June 4, 2013

धोखा

धोखा देना और धोखा खाना इंसानी फितरत है.... जो इस लानत से आज़ाद हैं वो जरुर जंगल में रहता होगा...!!!