Saturday, September 27, 2014

ये ज़मीं बिक चुकी

ये ज़मीं बिक चुकी,
आसमां बिक चुका...
........ अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम...
........ अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम...


चाँद झुलसेगा, बेनूर होगी सुबह
ना अँधेरे उजाले में होगी सुलह
अब ज़हर में सनी होंगी फसलें नयी
बद्दुआ हमें देंगी नसलें नयी
.......... उनसे ज़ख़्मी कहानी खरीदेंगे हम
.......... अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम...


आँखें हरियाली को अब तरस जायेंगी
बदलियां आग बन के बरस जायेंगी
साथ कुदरत के खिलवाड़ हमने किया
जान के हर कदम पे है जोखिम लिया
........ बाग़ और बागवानी खरीदेंगे हम
........ अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम


बदबू अब हो रही वादियों में रवां
सांस लेना भी अब होगा दूभर यहाँ
जादूगरनी करप्शन की छल जायेगी
ये प्रदूषण की नागिन निगल जायेगी
........ सांस और जिंदगानी खरीदेंगे हम
........ अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम


स्पेशल नोट : शब्द तो गहरे हैं ही लेकिन इसे सुखविंदर की आवाज़ में सुनने का मज़ा ही कुछ और है. ट्राय कीजियेगा..
http://www.youtube.com/watch?v=M2aNY_Sbnow

Wednesday, September 24, 2014

परखना मत

बड़े बुजुर्ग, यार, दोस्त, हितचिंतक सब सलाह देते हैं कि लोगों को परखना सीखो. लोग वैसे कतई नहीं होते जैसा अपने आप को दिखाते हैं. ज्यादातर लोग चेहरे पे नकाब लगाए होते हैं. खुद को सभ्य, सुसंस्कृत दर्शाने वाले लोग हकीकत में भी वैसे ही हो ये जरुरी नहीं. इसलिए हर एक पर फ़ौरन भरोसा ना किया करो.

मेरा फलसफा थोडा जुदा है. मैं हर शख्स के उस रूप को निसंकोच कबूल कर लेती हूँ जो वो दिखा रहा होता है. दो वजुहात है इसके पीछे. एक तो ये कि वर्चुअल वर्ल्ड में किसी को सही सही परखना असंभव सा कार्य है. दूसरी और ख़ास वजह ये कि मैं समझती हूँ जो शख्स खुद को नेक सीरत, सभ्य और संस्कारी दिखाने के लिए इतना लालायित है वो इन मूल्यों में कहीं न कही विश्वास जरुर करता होगा. उसके अन्दर कहीं न कहीं ये भावना जरुर होगी कि अच्छा इंसान बनना बेहद जरुरी है. और यही भावना आगे चल कर उसका और पतन होने से रोकेगी भी. हालांकि ये फलसफा और फलसफों की तरह ही हर एक पर नहीं लागू किया जा सकता. लेकिन मुझे तो फायदा देता है.

सामाजिक जीवन जीने के दो तरीके हैं. या तो हर एक पर विश्वास करो या हर एक पर शक. सब पर शक करने से, करते रहने से ज़िन्दगी को जहन्नुम होते देर नहीं लगेगी. सब पर विश्वास कर लेने से भले ही कुछ अप्रिय अनुभव हो लेकिन अंत पन्त मामला सुकून भरा ही रहता है.
मैं तब तक किसी पर अविश्वास नहीं करती जब तक कोई मेरा विश्वास तोड़ ना दे.
अजीब फलसफा है लेकिन है तो अपना..

Friday, September 19, 2014

या खुदा - एक कहानी

यूँ तो इस कहानी पर इसके कलेवर जितना ही कुछ लिख सकती हूँ मैं लेकिन हिम्मत नहीं होती. विभाजन के भयानक दौर की तल्ख़ हकीकत को बयां करती इस कहानी को खुद पढ़िए आप लोग और बताइये कि क्या आप अपनी पलकों को नम होने से बचा सकें ? कोई भी मुल्क हो, कोई भी मजहब हो, औरत की औकात उसके जिस्म तक ही महदूद कर दी गई है. अपनी पहचान, अपना मुल्क, अपने भाईबंद तलाशती दिलशाद का ये बेमकसद सफ़र और इस सफ़र का उतना ही निरर्थक अंजाम सभ्य कहलाने वाली मानव प्रजाति का क्रूर चेहरा पूरी तरह बेनकाब करने में कामयाब है. इस कहानी की अंतिम पक्तियां जब जब भी पढ़ती हूँ, कई पलों तक सन्नाटे से घिरी महसूस करती हूँ अपने आप को..

http://hindisamay.com/…/Vibhajan-ki-kahaniyan/Ya%20Khuda.htm

Saturday, September 13, 2014

ज्ञानवाणी

ज्ञानवाणी :-

अपना सुख आप किसी के भी साथ शेयर कर सकते हो, यहाँ तक कि किसी अजनबी के साथ भी.. लेकिन अपना दुःख आप उसी से कहते हो जिसे आप अपना समझते हो.. जिसके बारे में आपको यकीन होता है कि ये शख्स आपके गम को ना सिर्फ संजीदगी से सुनेगा बल्कि उसे महसूस भी करेगा.. तो अपने दोस्तों की सूची में से सच्चे दोस्त छांटने हो तो उन लोगों की सूरतें याद कीजिये जिन के कांधे पर सर रख कर आप रोये थे. जिन से आंसू ना छुपे उनसे कुछ ना छुपा..

Friday, September 12, 2014

विषहर

ये पोस्ट कल की पोस्ट का अगला हिस्सा है. उस पोस्ट की भावना से बहुत लोग सहमत हुए लेकिन समस्या के निराकरण की वहाँ कोई बात नहीं हुई. कोई उपाय सामने न आया. वो तो भला हो संजय सर का जिन्होंने ज़ोर देकर पूछा कि समस्या तो पकड़ में आ गई लेकिन उपाय क्या हो ? उनसे बातचीत में कुछ नुस्खे पकड़ में आये हैं. शायद काम आयें.

मेरा मानना है कि समस्या की पहचान करना उसके निराकरण की तरफ पहला और सब से जरुरी कदम है. सब से पहले तो ये जान लिया जाए कि इस समस्या को समस्या मानने वालों की संख्या अभी बहुत कम है. मेरी उस पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स से अंदाजा हो जाता है. तो सब से पहला काम तो यही है कि लोगों में एक कॉमन समझ विकसित की जाए कि धर्म के नाम पर बहकाने वाले लोग आपके हमदर्द कतई नहीं हो सकते. कहने को ये बात एक लाइन में तो समा गई लेकिन है ये एवरेस्ट फ़तह करने से भी ज्यादा मुश्किल काम. इसके लिए कई मोर्चों पर काम किये जाने की जरुरत है.
सब से पहले तो हमें पारिवारिक तौर पर इस समस्या से दो चार होने का रास्ता ढूंढना होगा. बच्चों को कच्ची उम्र से ही ये पाठ पढ़ाना होगा कि मानवता ही सर्वोपरि है. आपस में मिलजुल कर रहना, दूसरे धर्मों का सम्मान करना बेहद जरुरी है. हिंसा - शाब्दिक या शारीरिक - हर हाल में गलत ही होती है ये उनके मस्तिष्क में पक्के तौर पर अंकित कराना होगा.

एक और तरीका सख्त कानून और उसका सख्ती से अनुपालन भी हो सकता है. हेट स्पीच के लिए बिल्कुल साफ़ साफ़ क़ानून हो और इसका उल्लंघन करने वाले पर त्वरित कार्यवाई हो. लेकिन इसके लिए हमें फिर से नेताओं पर निर्भर रहना होगा जिसका साफ़ मतलब ये है कि कुछ नहीं होगा. कहने को तो कानून अब भी है.

एक त्वरित उपाय तो ये भी हो सकता है कि ऐसी हेट स्पीच एक से ज्यादा बार देने वाले से चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लिया जाए. अगर ये हो गया तो जादू की तरह काम करेगा. ये हो पाये ऐसा होने से पहले आम जनता के हाथ में ये भी है कि ऐसे लोगों को चुनाव ना जीतने दे. ये भी होने लगा तो अभूतपूर्व बदलाव आएगा.

लेकिन सब से जरुरी काम वो ही है जो मैंने शुरू में कहा. ये एक समस्या है ये लोगों को समझाना. इन्हें हीरो मानने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है. उन्हें ये समझाना बेहद चुनौतीभरा काम है कि इन लोगों का मकसद सिर्फ जाती फायदा है ना कि अवाम की भलाई. असल काम इसी दिशा में होना चाहिए.
बकौल संजय सर शिक्षा का क्षेत्र एक ऐसा टूल साबित हो सकता है जो इस समस्या से निपटने में मदद करे. ट्रेंड टीचर जो जनरेशन के सोचने के तरीके में परिवर्तन लाये, प्लस आने वाली जेनेरेशन के सोचने में खुलापन भरे, टोलरेंस सिखाएं, non interference, अपने अपने खेत में चरना आदि गुण इंजेक्ट करे. मैं भी सहमत हूँ इससे. शिक्षा का क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जो इस बदलाव को लाने में समर्थ है. क्यूँ कि इस की रीच भी ज्यादा है और इम्पैक्ट भी.

महज बातों से, कोसाई से कुछ नहीं होगा. लेकिन विरोध करना भी जरुरी है. बदलाव का पहला कदम ही है मुखालफत. मेरी आवाज़ में जब किसी और की आवाज़ शामिल होगी, फिर हम दोनों की आवाज में कोई तीसरी आवाज आ मिलेगी तभी तो बात आगे बढ़ेगी. सीमित साधनों वाले मुझ जैसे लोग आखिर ये भी न करे तो क्या करे ? आग भड़काना गलत है. आग बुझाने का प्रयास करना प्रशंसनीय है. जो पहला काम नहीं करना चाहते और दूसरा अपनी लिमिटेशंस के चलते नहीं कर सकते वो कम से कम आग बुझाने की अहमियत को तो बता ही सकते हैं लोगों को. कुछ ना करने से तो 'कुछ' करना हर हाल में बेहतर है.

है न ??

Thursday, September 11, 2014

ज़हर के ठेकेदार बनाम हम

मुझे ओवैसी, तोगड़िया, आदित्यनाथ, इमरान मसूद जैसे लोगों से कोई ख़ास शिकायत नहीं. हाँ ये जहर उगलते हैं लेकिन सिर्फ इसलिए क्यूँ कि उसकी डिमांड है. ये वही बोलते हैं जो दिमाग से अपाहिज एक बहुत बड़ा तबका सुनना चाहता है. इन्हें खूब पता होता है कि ये चाहे कुछ भी कह ले इनको कुछ नहीं होने वाला. इस मुल्क की निकम्मी व्यवस्था में आग लगा कर साफ़ बच निकलने के हजारों रास्ते मौजूद हैं. आजमाए हुए. इन्हें ये भी पता होता है कि इनकी लगाई आग की हल्की सी भी आंच इनके या इनके अपनों के दामन तक नहीं पहुँचने वाली. जलेगा वो बेवक़ूफ़ ही जो इन्हें हीरो मान कर मरने मारने पर उतारू हो गया.

इन्हें खुदा मानने वाले इनकी जुबान से टपकता जहर अमृत समझ के पी जाते हैं और देशभक्ति/कौम-परस्ती की खोखली भावना से लबालब भर कर अकड़े फिरते हैं. आखिर क्या वजह होगी इस बड़े पैमाने पर होने वाले अन्धानुकरण की ? कही ये तो नहीं कि बुनियादी तौर पर हम अब भी एक हिंसक समाज है ? ऊँगली कट जाए तो ढेर सारा खून निकल आता है, दर्द भी होता है कई रोज़. वो भी एक बड़ा हादसा लगता है. लेकिन जब ये 'सो कॉल्ड शेर' काटने-पीटने की घोषणाएं करते हैं तो हम यूँ सुनते हैं जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं. ना सिर्फ सुनते है उसे आगे पहुंचाने में भी योगदान देते हैं. संवेदनशील कहलाने वाले मनुष्य की ये निष्ठुरता समझ से बाहर है.

तो इन तमाम शेरों के शावकों को ये सलाह है कि अगर आप यूँ ही नफरतों के सौदागरों के हाथ मजबूत करते रहें तो वो दिन दूर नहीं जब हम में से हर एक का हाथ एक दूसरे की गरदन पर होगा और हमारी हालत पर रोने वाला भी कोई नहीं बचेगा. इकबाल शायद इसी दिन के लिए कह गए कि, "तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में".

 वैसे हिंसक समाज का जो खाका मैंने खींचा है कुछ लोग बिलाशक उसकी परिधि से बाहर हैं. और उन्हीं लोगों के दम पर ही तो टिकी है दुनिया..

Wednesday, September 10, 2014

कश्मीर के हालात

कश्मीर में हालात खराब हैं. लेकिन जैसे हर काले बादल की एक रुपहली किनार होती है उसी तरह इस आपदा से भी कुछ सकारात्मक प्राप्त किया जा सकता है. कश्मीर हमेशा से ही शेष भारत से कटा कटा रहा है. इसकी वजह चाहे स्थानीय लोगों का जायज/नाजायज रोष हो या अलगाववादी नेताओं की खुराफात. कश्मीरी अवाम हमेशा से संभ्रमित नज़र आया कि उसे किस तरफ होना चाहिए. खैर, इतिहास के काले पन्ने पलटे बगैर इस विनाश में निर्माण की संभावना को तलाशा जा सकता है. इस वक्त कश्मीर को मदद की जरुरत है. भारत सरकार ( मोदी सरकार ) और भारतीय सेना अपना काम इमानदारी से करती नज़र आ रही है. जिसके लिए उनकी सराहना की ही जानी चाहिए. कुछ और चीजें है जो की जा सकती है या जिन से बचा जा सकता है.

सब से पहली बात तो ये कि कश्मीरियों की सहायता हमारा फ़र्ज़ है ना कि उन पर हमारा अहसान. जब कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो उसके सुख-दुःख भी हमारे है. उनकी मदद उन पर अहसान जताकर नहीं की जानी चाहिए. मेरे कुछ मित्र ऐसी पोस्ट डाल रहे हैं जिनकी भाषा बेहद आपत्तिजनक है. मुसीबत से घिरे लोगों का मज़ाक उडाना, उन्हें किसी और से मदद मांगने की सलाह देना, क्रूरता है और ये हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं.

दूसरी और अहम बात ये कि ये आपदा ही कश्मीरियों और शेष भारत के बीच पुल का काम कर सकती है. मुसीबत के वक्त काम आने वाले का एहसानमंद रहना इंसानी फितरत है. दिलों से बदगुमानी के दाग धो देने का मौका मिला है. और अमन-चैन के लिए हर मुमकिन कोशिश करना हमारा फ़र्ज़ है. क्या पता इस आपदा से निपटने के बाद कश्मीरी अवाम को ये समझ आ जाए कि उसके सामने मौजूद विकल्पों में सबसे उम्दा विकल्प भारत जैसे उदार विचारधारा के मुल्क के साथ बने रहना ही है.

अगर इसकी संभावना है तो इस संभावना को हकीकत में तब्दील करने की कोशिश की ही जानी चाहिए. और इसमें सिर्फ सरकार अकेली कुछ नहीं कर सकती. हमें भी अपना योगदान देना होगा. आइये, सब मिलकर इस वक्त मुसीबतजदा लोगों की सहायता के लिए हरसंभव कोशिश करने का इरादा करें. बगैर किसी तानाकशी के.. आखिर यही तो हमारी सस्कृति है.. हैं न ??

Tuesday, September 9, 2014

झूठन

अगर आप एक सुखवस्तु घर में पैदा हुए हैं, अगर आपका बचपन मामूली चीजों की प्राप्ति के लिए जद्दोजहद करते नहीं गुज़रा, शिक्षा का अधिकार आपको बिना किसी ज़ोर-आजमाइश के मिला था तो आप ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की सिहरन पैदा करने वाली रचना 'जूठन' कतई ना पढ़े. इसे पढने के बाद आपको अपने जीवन की आसानी से शर्म महसूस हो सकती है. और ये भी हो सकता है कि अचानक से आपको उन चीजों की अहमियत समझ आये जिन्हें आप अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते आये हैं.

सम्मान से जीने के मौलिक अधिकार को तरसते मनुष्यों की व्यथा का दस्तावेज है जूठन.
दुनिया के नेतृत्व का दावा करने वाली हमारी सदियों पुरानी संस्कृति का ये सियाह पहलू कृपया अपने अपने रिस्क पर पढ़े. ये किताब आपको विचलित कर सकती है. बशर्ते कि आप संवेदनशील हो.

Sunday, September 7, 2014

ऐनुर बीबी.

समाज के दो चेहरे.. एक ही परिवार से.. एक तरफ तो वहशियाना हरकत करता दरिंदा बेटा है तो दूसरी तरफ ममता पर इन्साफ को तरजीह देने वाली बेइंतेहा हौसलामंद माँ.. समझ में नहीं आता कि बेटे की करतूत पर लानत भेजना ज्यादा अहम है या ऐसी इंसाफपसंद माँ की हौसला-अफजाई करना ज्यादा जरुरी है.
पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले की एक घटना में एक माँ ने अपने बेटे को खुद गिरफ्तार करवाया जब बेटे ने आकर उसे बताया कि वो एक सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म कर के आया है. माँ ऐनुर बीबी ने सब से पहले तो बच्ची को अस्पताल पहुंचाया और उसके बाद सीधे थाने पहुंची. अपनी ही औलाद के खिलाफ कम्प्लेंट दर्ज करवाने. पुलिस ने उसके बेटे को गिरफ्तार किया और बच्ची के परिजनों को सूचना दी. बच्ची के परिजन तब तक पूरे घटनाक्रम से अनजान थे.
पुत्र-मोह में अंधे हो जाने वाले लोगों की मिसालें तो आये दिन देखने को मिलती है. इन्साफ को सर्वोपरि मान कर अपनी औलाद तक को ना बख्शने वाली ऐसी अनोखी माँ की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. हमारे समाज को ऐसी बहुत सी ऐनुर बीबीयों की जरुरत है. कहते है कि जब हर दरवाज़ा बंद हो जाता है, घर का दरवाज़ा तब भी खुला रहता है. अपराधियों के लिए ये आखिरी पनाहगाह भी जब बंद होने लगेगी तभी दिन ब दिन बढ़ते जा रहे वहशियाने गुनाहों में कमी आएगी. शाबाश ऐनुर बीबी..!!!

Saturday, September 6, 2014

जीता है कौन

जीता है सिर्फ तेरे लिए कौन, मर के देख
इक रोज़ मेरे यार ये भी तो कर के देख


मंजिल यही है आम के पेड़ों की छाँव में,
ऐ शहसवार घोड़े से नीचे उतर के देख


टूटे पड़े हैं कितने उजालों के तिलिस्मात,
साया-नुमा अंधेरों के अन्दर उतर के देख


फूलों की तंग-दामनी का तजकिरा ना कर,
खुशबू की तरह मौज-ए-सबा में बिखर के देख


तुझ पर खुलेंगे मौत की सरहद के रास्ते,
हिम्मत अगर है उसकी गली से गुजर के देख


दरिया की वुसअतों से उसे नापते नहीं,
तनहाई कितनी गहरी है इक जाम भर के देख

--------- आदिल मंसूरी.

Friday, September 5, 2014

जवाहिरी की धमकी

आज सुबह अखबार हाथ में लेते ही मुखपृष्ठ से झांकते एक अंकल पर नजर पड़ी जो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का अपना 'नेक' इरादा जाहिर कर रहे थे. इसके लिए जिहाद छेड़ने का आवाहन कर रहे थे. मुझे उम्मीद है कि अपनी इस शानदार योजना को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने तैयारियां भी शुरू कर दी होगी. लेकिन एक समस्या भी तो है. भारत में तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान से भी ज्यादा मुसलमान है. जिहाद के लिए जरुरी दहशतगर्दी की चपेट में तो वो भी आ जायेंगे. मुझे पूरा यकीन है कि जवाहिरी एंड टीम ने इसका तोड़ जरुर निकाल लिया होगा. ऐसे बम बनाए होंगे जो फटने के बाद सिर्फ हिन्दुओं को उड़ा देते हो और 'मुसलमान भाइयों' को खरोंच भी ना आती हो. ऐसी गोलियां इजाद की होंगी जो मुस्लिम शख्स की तरफ गलती से चली भी जाए तो भी उसे पहचान कर, वहाँ से टर्न लेकर किसी काफिर की खोपड़ी में जा धंसे.

वैसे इन साहब ने ये नहीं बताया कि भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के बाद इनका अगला स्टेप क्या होगा ? यहाँ सड़कें बनवायेंगे, समाज के आखिरी तबके तक रोटी पहुंचाने का जुगाड़ करेंगे या मलालाओं को गोली मारने में व्यस्त रहेंगे ?

वैसे जवाहिरी और अहमद शहजाद जैसों की बकवास सुनने के बाद ये इत्मीनान तो होता ही है कि मूर्खता पर हमारे भारतीय बड़बोलों का ही कॉपीराइट नहीं है. ऐसे नमूने तो दुनियाभर में बिखरे पड़े हैं.

खैर, मेरा हर उस भारतीय मुसलमान से अनुरोध है जो ऐसे लोगों को कौम का रहनुमा मानते हैं कि इस ग़लतफ़हमी से जितनी जल्दी उबर जायें वो अच्छा. ये खून के प्यासे भेडिये किसी के सगे नहीं. हमें अपना घर बचाना है पहले, कौम का मसला बहुत बाद का है. बल्कि है ही नहीं. इनकी हिमायत, किसी भी तरह की हिमायत, हमारे अपने लिए खतरनाक है. आगे बढ़कर इनका विरोध करना ही वक्त की जरुरत है. और फ़र्ज़ भी.

वैसे इस जवाहिरी को कोई ये याद दिलाये कि जब अमेरिका ने 9/11 के बाद अफगानिस्तान को बरबाद कर दिया था तब उसके पुनर्निर्माण में भारत ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी. हम भारतीय निर्माण के पक्षधर हैं, जोड़ने में यकीन रखते हैं. और इतने समर्थ भी हैं कि आतताइयों से अपनी रक्षा कर सकें. समझाइये भाई कोई इसको..

Wednesday, September 3, 2014

ज्ञानवाणी

ज्ञानवाणी :-

साहेबान, किसी अहमक से तकरार में उलझने से पहले ये तसदीक कर लीजिये कि कहीं वो भी तो ये ही नहीं कर रहा..!

Monday, September 1, 2014

लव जेहाद

मुझे नहीं लगता कि लव-जेहाद जैसी किसी चीज़ का अस्तित्व मुमकिन है. आज कल के 'लॉयल्टी टेस्ट' वाले दौर में प्रेम तो चलिए मान लिया कि वक्ती चीज़ हो सकती है. लेकिन शादी जैसा जीवन बदल देने वाला निर्णय किसी सो कॉल्ड धार्मिक उद्देश्य के लिए लिया जाए ये बात गले नहीं उतरती. हमारे भारतीय समाज में शादी अमूमन एक ही बार होती है. और जाहिर है हर कोई ये ही चाहेगा कि उसका जीवनसाथी ऐसा हो जिससे उसे प्यार हो. किसी जेहाद के मकसद से घर में जबरन लाई हुई स्त्री से प्रेम कैसे मुमकिन हो सकता है ? मुझे ये कतई नहीं लगता कि ऐसे किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कोई युवक अपनी ज़िन्दगी की सब से अहम घटना को दांव पर लगा देने जैसा अहमक हो सकता है. प्रेम, शादी ये नितांत निजी भावनाएं हैं. इन्हें किसी षड्यंत्र की तरह नहीं अंजाम दिया जा सकता. अगर ऐसा किया गया तो भुगतना दोनों को ही पड़ेगा. जिसके साथ हुआ उसे भी और जिसने किया उसे भी.

मेरे भारत का सामाजिक तानाबाना कुछ ऐसा है कि हिन्दू-मुस्लिम हमेशा से घुल मिल कर रहते आये हैं. स्कूल, कॉलेज आदि में सभी जाति-धर्मों के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं. जब साथ उठना-बैठना हो, मेल-मिलाप की गुंजाइश हो तो प्रेम के बीज अंकुरित होना कोई अनोखी बात नहीं. ऐसी सौ कहानियों में से आधी से ज्यादा तो समाज के भय से ही दम तोड़ देती हैं. बची हुई में कुछ ही कहानियां ऐसी होती हैं जो अपनी मंजिल पाने के लिए दृढप्रतिज्ञ होती हैं. कोई एकाध ही अपने मुकाम पर पहुँचती है. प्रेम से लेकर शादी तक का ये लंबा और खतरनाक सफ़र किसी संगठित गिरोह द्वारा प्रायोजित किया जाता हो ये किसी भी लॉजिक से जंचता नहीं. ये एक नितांत निजी सफ़र है जिसे किसी और द्वारा गाइड किया जाना संभव नहीं लगता मुझे. हाँ, कुछ रेयर केसेस में ऐसी किसी शादी के पीछे कलुषित उद्देश्य हो सकता है लेकिन वो अपवाद स्वरुप ही होगा और उस शख्स की निजी करतूत होगी. इतना समझना कोई मुश्किल काम तो नहीं ??

दिन ब दिन मुल्क का माहौल भयानक रूप से बिगड़ता जा रहा है. ये हम लोगों का फ़र्ज़ है कि हम अतार्किक बातों पर - जिनका मकसद ही दो समुदायों के बीच की खाई को और चौड़ा करना है - ध्यान न दें. और ये कोशिश करें कि अपनी तरफ से हम इस नफरत की आग को भड़काने में कोई योगदान न दें. कठिन तो नहीं है ना ये काम ? 

शाहिद फिल्म के एक संवाद की तर्ज पर इतना ही कहना है कि,
"वक्त लगेगा, लेकिन हो जाएगा."