स्त्री द्वारा किया गया प्रेम और पुरुष द्वारा किया गया प्रेम इसमें एक बुनियादी अंतर है. पुरुष अक्सर अपने आत्म-सम्मान के मामले में डटें रहते हैं. उससे समझौता किसी हाल में नहीं करते. स्त्री की जो चीज़ सब से पहले छिन जाती है वो आत्म-सम्मान ही है. खुद की हस्ती मिटाए बिना स्त्री अपने प्रेम का विश्वास दिला ही नहीं सकती शायद. ये थम्ब रुल सा बन गया है इस खेल का. फिर स्त्री चाहे कितनी ही काबिल हो, गुणी हो, खुद-मुख्तार हो. अपने पार्टनर के क़दमों में अपने स्वत्व का समर्पण ही शर्त है उसके लिए.
हालांकि इस बात का जनरलाइजेशन नहीं किया जा सकता. सभी केसेस ऐसे ही हो ये मुमकिन नहीं. लेकिन ज्यादातर - आई रीपीट - ज्यादातर मामले इसी तरह के होते हैं. झुकना, टूटना, अपना वजूद ख़त्म कर देना आदि आदि सजाएं स्त्री का ही मुकद्दर है.
सभी अमृताओं की किस्मत में इमरोज़ नहीं होते...
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