इसमें कोई शक नहीं कि हम हिंसक समाज है. हमारी धार्मिक भावनाएं इतनी हल्की चीज़ है कि किसी भी सरफिरे की टुच्ची हरकत से आहत हो जाती है. फिर हम निकल पड़ते हैं रक्त-स्नान करने. मोहसिन को किन्हीं राजनेताओं के स्वार्थ ने नहीं मारा है. उसे मारा है हम लोगों ने. हम ही है वो लोग जिनके अन्दर खून के प्यासे भेडिये छुपे बैठे हैं. हमारे अन्दर छुपी इसी रक्त-पिपासा का हाकिम लोग फायदा उठाते हैं. उन्हें कुछ नहीं करना होता. बस हमारे अन्दर छुपी दुनिया फूंक डालने की हसरत को हल्की सी हवा देनी होती है बस. बाकि विनाश की पटकथा तो हम खुद ही लिख लेते हैं. और ऐसी उम्दा कि सृष्टि की संहारक शक्तियां भी शर्मिंदा हो जाए. बच्चियों का रेप कर देते हैं, बूढों के गले में टायर डालकर आग लगा देते हैं, नौजवानों को चाकुओं से गोद गोद कर किसी और का बदला किसी और से ले लेते हैं. और ये सब किसलिए ? क्यूँ कि किसी सरफिरे ने कोई ऐसी हरकत कर दी जिससे हमारे धर्म पर आंच आ गई. कितना वाहियात है ये मजहबी पागलपन ? इस्लाम को तो खैर आदत थी ही हमेशा खतरे में रहने की अब हिंदुत्व भी डेंजर जोन में आया मालूम होता है. और जब जब आस्थाओं पर खतरा मंडराता है खून की होली खेलना जरुरी हो जाता है. और कमाल की बात ये कि इस खून-खराबे में शामिल लोग किसी फिदायीन ग्रुप के नही होते, किसी आत्मरक्षा बल के सदस्य नहीं होते. ये होते है हम जैसे ही लोग जो अपना दुनिया जहान का फ्रस्ट्रेशन किसी की जान लेकर निकालते है.
देख लीजियेगा, अगर मोहसिन के हत्यारे पकडे गए तो वो हम जैसे ही लोग निकलेंगे. सीधे-साधे आम लोग. उनमे से कोई ऐसा भी होगा जो अपनी बीवी की ऊँगली किचन में कटी देखकर बदहवास हो जाता होगा लेकिन मोहसिन पर हॉकी-डंडे चलाते वक्त जिसका दिल ना पसीजा. कोई ऐसा भी होगा जो माँ का आशीर्वाद लिए बगैर घर से नहीं निकलता होगा लेकिन किसी और माँ की आँख के तारे को मिटाते वक्त जिसने एक पल ना सोचा. वो लोग जो रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मक्खी मारने तक की सलाहियत नहीं रखते धर्म के नाम पर यूँ क़त्ल कर आते हैं जैसे इससे आसान कुछ ना हो. इतनी नफरत, इतनी घृणा कैसे जनरेट कर लेता है धर्म ? इकबाल पर हंसी आती है जो कहता था 'मजहब नहीं सीखाता आपस में बैर रखना.' दरअसल मजहब ही सीखाता है आपस में बैर रखना. धर्म की रक्षा के नाम पर प्राण लेने को उकसाता है. आज कोई मोहसिन मरा है हिन्दू धर्म की मूंछ नीची होने से बचाये रखने के लिए, कल कोई मोहन कुर्बान हो जाएगा इस्लाम की इज्जत का झंडा संभालते संभालते. हम भयंकर किस्म की प्रजाति है इस ब्रहमांड में. अब तो शर्म भी नहीं आती खुद पर. बस दिमाग में एक खालीपन सा घूमता रहता है. ज़हन को खुद के मुजरिम होने का अहसास कचोटता रहता है.
हम सब गुनाहगार है मोहसिन के. हर उस शख्स के जो बिना वजह मारा गया. चाहे 1984 में दिल्ली में, चाहे गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में, चाहे उसके बाद के गुजरात नरसंहार में या हालिया मुजफ्फरनगर में. हर वो शख्स जो धार्मिक उन्माद की बलि चढ़ गया उसका खून हमारे सर पर है. सच सच बताइये क्या हमें इंसान कहलाने का हक अब भी है ?
( सन्दर्भ :- पुणे में मोहसिन शेख नामक युवक की भीड़ द्वारा की गई हत्या )
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