पांचवी कक्षा की छमाही परीक्षा में एक बच्ची द्वारा लिखे गए इस निबंध को कहना न होगा कि प्रथम पुरस्कार मिला था.
विषय था – सरकार
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सरकार .
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सरकार .
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सरकार उस गिरोह का नाम है जिसे आम जनता को लूटने का लाइसेंस विरासत में मिलता है. जो चीनी खिलाकर सत्ता में आती है और फिर करेले का जूस लोगों के हलक से नीचे धकेलने में जुट जाती है. सरकार किसी भी पक्ष की हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. कई बार तो दो सरकारों के बीच फर्क सिर्फ निशान भर का होता है. और इन्हीं निशानों के सदके लोग बाग़ अपने पोते-पोतियों को किस्से सुनाते हैं कि कमल वालों ने फलां चीज़ महंगी करने का गुल खिलाया था या हाथ वालों ने फलां चीज़ को महंगा कर जनता के मुंह पर तमाचा ठोका था. दरअसल अलग अलग निशान होने में ही हमारे लोकतंत्र की जीत है. जरा सोचिये, अगर सबका निशान एक सा ही होता तो हमें अपने जीवन के उत्तरार्ध में याद ही नहीं रहता कि हमें किस किस ने लूटा था. निशानों के जरिये हम इसे बखूबी याद रख सकते हैं और अपनी आगामी पीढ़ियों तक इनकी महत्ता पहुंचा भी सकते हैं.
यूँ तो सरकारों के कई काम होते है लेकिन सरकार का सबसे पसंदीदा काम होता है लोगों की गरीबी दूर करना. इस गंभीर मसले पर सरकारें बड़े बड़े सेमीनार आयोजित करती हैं, कमेटियों का गठन करती है,विशेषज्ञों की राय लेती हैं, इसके लिए अपने यहाँ से सांसदों की, उनके परिवार की, उनके चमचों की टीमें बनाकर विदेश भेजती हैं. ताकि वो गरीबी उन्मूलन के तरीके सीख कर आयें और देश में लागू करें. भेदभाव का स्वर्ग रहे हमारे मुल्क में इस मामले भी भेदभाव होता है. हाई प्रोफाइल मंत्री लोग अमीर देशों में जाते है. यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि आदि. लॉजिक ये कि वो लोग इन अमीर देशों में जाकर देखें कि गरीबी भगाने के लिए इन्होने आखिर किया क्या है ! वो जो तुक्के से सांसद बने हैं उन्हें अंगोला, नाइजीरिया या यूगांडा आदि अफ्रीकन देशों में भेजा जाता है. इसके पीछे का तर्क ये कि ये भूखे देश आखिर ऐसा करते क्या हैं जिससे गरीबी इनकी गरदन से बेताल बनकर चिपटी हुई है ! अमीर देशों में गए हुए महोदय वहां ऑपेरा देखते हैं, सुन्दर सुन्दर बालाओं के साथ हंगामाखेज़ पार्टियों में हिस्सा लेते हैं, दुनिया के सबसे महंगे बाज़ारों में जी भर के खरीददारी करते हैं और लौट आते हैं. अगर आपको लग रहा है कि गरीब मुल्कों के दौरे पर निकले महान लोग दुःख में दिन बिताते होंगे तो ये आपकी भूल है. हर गरीब देश में कुछ ऐसी जगहें जरुर होती हैं जहाँ सिर्फ और सिर्फ अमीर लोगों को प्रवेश मिलता है. या यूँ कहिये वो देश गरीब होने की एक बड़ी वजह उन ख़ास जगहों में रहने वाले लोग ही होते हैं. जैसे फाइव स्टार होटल्स, राष्ट्रपति या राजा का भव्य महल आदि आदि. ये लोग सीधे वही लैंड होते है. वहां शाही मेहमान-नवाजी का जी भर के आनंद लेते हैं. अपने से ज्यादा गरीब मुल्क में होने की वजह से रौब भी खूब जमातेहैं. फिर अफ्रीका के प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करने निकलते हैं. बख्तरबंद गाड़ियों के अन्दर बैठ कर गेंडों की, शेरों की, लकड़बग्घों की तस्वीरें खींचते है और फिर अफ्रीकन सफारी के अपने एडवेंचरस टूर से लौट आते हैं.
इन सब सेमिनारों में, कमेटियों के गठन में, विशेषज्ञों से सलाह लेने में और मंत्री/सांसदों की विदेश यात्राओं में इतना वक्त निकल जाता है कि सरकार को याद ही नहीं रहता उसने असल में गरीबी दूर भी करनी है. देखते देखते पांच साल गुजर जाते है और पांचवे साल के ऐन सिरे पर सरकार को याद आता है कि गरीबी तो दूर की ही नहीं. बल्कि उसमे कुछ इजाफा ही किया है. उसमे नया जोश आ जाता है. वो पूरी शिद्दत से ( कृपया समझदार लोग बेशर्मी पढ़े ) लोगों से कहने लगती है कि हमें एक मौका और दो. इस बार पक्का गरीबी दूर करेंगे. जनता कभी कभी दे देती है दूसरा मौका. कभी कभी नहीं भी देती. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि जनता की आँखें-वांखें खुलने जैसी कोई अनहोनी होती है. वो तो जनता बस टेस्ट चेंज करना चाहती है. घर में जैसे दाल खाने से आजिज आकर वो बैंगन बना लेती है उसी तरह सरकार भी बदल देती है. दोनों घटनाएं एक समान महत्त्व की है. अब आप चाहे इसे दाल-बैंगन वाले मसले का महिमामंडन कहिये या सरकार-चेंज वाली घटना का अवमूल्यन. जो है सो है.
सरकारें मुख्यतः दो प्रकार की होती है. राज्य सरकार और केंद्र सरकार. वैसे तो गरीब आदमी के लिए नगर निगम के जमादार से लेकर पुलिस के हवलदार तक हर सरकारी बंदा खुद ही सरकार है लेकिन इन दो प्रकार की सरकारों का रुतबा ज्यादा है. ये दोनों सरकारें होती तो एकसमान जालिम है लेकिन एक दूसरे के खूब काम आती हैं ये. राज्य सरकार रो रोकर कहती है कि हम लोगों का भला करने के लिए मरे जा रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार फंड ही नहीं देती. बताइये हम क्या करे ?? उधर केंद्र सरकार बताती है कि हमने तो इत्ता इत्ता फंड दिया लेकिन वो राज्य सरकार वाले सारा डकार गए. अब हम क्या करें ?? दोनों में से कोई भी अपनी बात को साबित करने का अतिरिक्त टेंशन नहीं लेता और जनता के सपने विकास की पटड़ी पर से लुढ़ककर हकीकत के कुएं में धडाम से जा गिरते है. उनका मर्सिया भी नहीं पढ़ा जाता.
सरकार की एक और खूबी ये होती है कि वो अपने कितने भी महाभयंकर निर्णय को सही साबित कर के दिखा सकती है. या यूँ कहिये इस अद्भुत प्रतिभा के बिना सरकार का गठन होना ही नामुमकिन है. रोजमर्रा की चीजें महँगी होने से लेकर उद्योगपतियों को कौड़ियों के मोल जमीन बेचने तक के सारे मुद्दे वो ऐसी ऐसी शब्दावली में जनता को समझाती है कि जनता मुंह फाड़े हैरानी से देखती रहती है और खुद को कोसती है कि ऐसी दूरदर्शिता हम में क्यूँ नहीं है आखिर ? एक सम्मोहन की अवस्था में वो सरकारों का हर फैसला कबूल कर लेती है. कभी कभी जब नहीं करती तो प्रदर्शन वगैरह करती है. फिर कुछ सरकारी नुमाइंदे आकर उनकी पिटाई लगा देते हैं. ठुक-पिट कर जनता की समझदानी के कपाट फिर खुल जाते है और वो सरकारी फैसलों पर अपनी सहमती दर्ज करा देती है. यानी किसी भी स्थिति में होता वही है जो सरकार चाहती है. लोगों को तो बस आत्म-संतोष का फर्जी झुनझुना मिलता है कि इस फैसले में हमारी सहमती शामिल है.
सरकार के बारे में एक चुटकुला बहुत प्रसिद्द है. हालांकि मेरी समझ में ये कभी नहीं आया कि इसे चुटकुला क्यूँ कहते हैं. इससे ज्यादा सच्ची बात तो भारतवर्ष के पांच हज़ार साल के इतिहास में आज तक नहीं कही गई. चुटकुला कुछ यूँ है,
सवाल : सरकार चोर उचक्कों को जेल क्यूँ भेजती है ?
जवाब : क्यूँ कि किसी तरह का कम्पटीशन नहीं चाहती.
सवाल : सरकार चोर उचक्कों को जेल क्यूँ भेजती है ?
जवाब : क्यूँ कि किसी तरह का कम्पटीशन नहीं चाहती.
एक मामले में हम अपने पडोसी मुल्क से बेहतर स्थिति में है. वहां सरकार और मजाक में फर्क नहीं किया जाता. वहां म्यूजिकल चेयर चलती है. लोगों द्वारा चुनी हुई सरकारें और सेना में आँख-मिचौली लगी रहती है.कभी सेना चुनी हुई सरकार को कहती है कि तुम लोगों ने देश को बेच खाया, अब दफा हो जाओ. दरअसल उन्हें कहना होता है कि हमें मौका दो लूटमार का लेकिन ये खुल के कहने का रिवाज कायम नहीं हुआ अभी तक. वो देशद्रोह के आरोप में पिछली सरकार के मुखिया को अन्दर कर देती है और देश में तरक्की और खुशहाली लाने के अपने मिशन में जी जान से जुट जाती है. जब कुछ सालों तक अनथक मेहनत करने के बावजूद भी तरक्की पकड़ाई में नहीं आती तो फिर से चुनी हुई सरकार का नंबर आता है और इस बार वो अगली पार्टी के मुखिया को अन्दर कर देती है. कुल मिलाकर हमारे पड़ोसियों के यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि आज का प्रधानमन्त्री कल भी सम्मानित जीवन जी पायेगा. हो सकता है वो कल को जेल की काल-कोठरी में एडियां रगड़ रगड़ कर फांसी के फंदे की तरफ अग्रसर हो रहा हो. कोई स्थायित्व नाम की चीज ही नहीं है जी. धत्त... इस मामले में हमारे यहाँ एक बेहतरीन सिस्टम बना हुआ है. यहाँ मौजूदा सरकार पिछली सरकार के नुमाइंदों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती. भले ही फिर उसने देश बेच खाया हो. रहम करती है उसपर. इस अंडरस्टैंडिंग के साथ कि जब वो सत्ता में नहीं होंगे तो उनपर भी रहम किया जाएगा. रहम के आदान-प्रदान की इस प्रथा का भक्तिभाव से निर्वाहन सिर्फ और सिर्फ इस भारत-भूमी में ही मुमकिन था. दो मुखालिफ दलों के बीच का ये भाईचारा देखकर आँखें अनायास भर आती है और इस देश में पैदा होने पर हमेशा आने वाली गर्व टाइप फीलिंग सेंसेक्स की तरह उछलकर आसमान छूने लगती है.
धन्य हैं ऐसी सरकारें....!!! और धन्य हैं इन्हें चुनने वाले हम भारतवासी...!!!
P.S. : मेरे ज्यादातर मित्र इस वक्त सरकार फिल्म पर निबंध लिख रहे हैं. वही फिल्म जो अपनी प्रतिभा को सबसे ज्यादा जाया करने का रिकॉर्ड बनाने वाले राम-गोपाल वर्मा अंकल ने बनाई थी. वही फिल्म जिसमे अमिताभ अंकल ये मोटे मोटे मणियों की माला पहने अपनी बाल्कनी से टाटा बाय करते रहते हैं. पता नहीं क्यूँ..कन्फ्यूजन के मामले में वो फिल्म भी हमारी सरकार की तरह ही थी. मुझे तो आजतक समझ में नहीं आया कि अमिताभ-अभिषेक फिल्म के नायक थे तो बार बार गोविंदा को क्यूँ याद किया जाता रहा उस फिल्म में. उसका कोई भी एक्शन सीन उठा के देख लीजिये. गोविंदा गोविंदा गोविंदा गोविंदा बजता रहता है बैकग्राउंड में. अरे भई जब इतना ही पसंद था गोविंदा तो उसे ही ले लेते. खैर, ये विषयांतर हो रहा है. मूल मुद्दा ये कि देश की सरकार पर निबंध मैं ही लिख रही हूँ सिर्फ. और मुझे उम्मीद है कि प्रथम पुरस्कार भी मुझे ही मिलेगा. क्यूँ कि मैंने किसी को बताया ही नहीं कि वो लोग सरकार टाइटल से गलत मतलब निकाल बैठे हैं. उसी तरह जैसे हमारी सरकार जनता को कभी नहीं बताती कि उसे चुनकर उन्होंने कितनी बड़ी भूल कर दी है.
( इस निबंध को प्रथम पुरस्कार तो मिला ही, साथ ही परीक्षक की ये टिपण्णी भी थी. “परीक्षार्थी परीक्षक से ज्यादा जानती है.” )
--------- ज़ारा.
25/06/2014.
25/06/2014.
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