हाल ही में प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, इतिहासकार खुशवंत सिंह जी का निधन हुआ. उनकी मृत्यु के बाद सोशल मीडिया पर उजागर हुआ विरोधाभास मुझे हैरत में डाल गया. कुछ मित्रों ने उन्हें एक असाधारण व्यक्ति बताते हुए जिन्दादिली की मिसाल बताया तो कुछ मित्रों ने उन्हें एक ऐयाश, सिद्धांत विहीन व्यक्ति साबित कर दिखाया. इसी क्रम में उनके पिता शोभा सिंह की भगत सिंह जी के खिलाफ गवाही को भी उनके खिलाफ पेश किया गया. जहाँ कुछ लोगों के लिए वो 'ज़िन्दगी को कैसे जिया जाये' ये सिखाने वाले दार्शनिक थे तो वहीं कुछ लोगों के लिए ऐसे व्यक्ति थे जिनका नाम भी जुबान पर लाने से जुबान पर छाले पड़ने का अंदेशा था. दो तरह की ये परस्परविरोधी और अतिवादी प्रतिक्रियाएं देखकर मेरे मन में एक सवाल आया है. आप सब सुधि मित्रों से शेयर करना चाहती हूँ. अपने नजरिये से मुझे जरुर जरुर अवगत कराईयेगा.
रचना बड़ी होती है या रचनाकार ?
अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में पूरी तरह विफल रहे किसी लेखक की कोई रचना अगर उम्दा हो तो क्या उसे सिर्फ इसीलिए खारिज किया जाना चाहिए कि इसे लिखने वाला व्यक्ति सभ्य समाज की कसौटी पर खरा नहीं उतरता ? महत्त्व रचना का होना चाहिए या उसे लिखने वाले की निजी ज़िन्दगी का ? आखिर वो कौन सा पैमाना है जिस पर किसी रचना को तौला जाना चाहिए...? उसकी गुणवत्ता या उसके लिखने वाले का चरित्र ? बजाहिर सीधा लगने वाला ये सवाल उतना सीधा है नहीं. ख़ास तौर से हमारे भारतीय परिवेश में जहाँ संस्कृति और सभ्यता का बहुत शोर-शराबा है. अपनी बात को कुछ उदाहरण देकर आपके सामने रखना चाहती हूँ.
प्रसिद्ध इंग्लिश कवि लार्ड बायरन का नाम आपमें से बहुत लोगों ने सुना होगा. अपनी रोमांटिक कविताओं द्वारा इस कवि ने पूरी दुनिया में धूम मचा के रख दी थी. लेकिन अपने निजी जीवन में ये शख्स निहायत ही लम्पट और व्यभिचारी था. नित नयी महिलाओं से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करना इसका पसंदीदा शगल था. इसके किरदार को रेखांकित करने के लिए इसका एक बेहद चर्चित लेकिन निहायत ही वाहियात और घटिया वक्तव्य डरते डरते लिख रही हूँ. इनका डंके की चोट पर ऐलान हुआ करता था, "mother i should not, Queen i could not, my blood is running through all England." लेकिन किसे याद रहा ? आज इनका नाम शैली, कीट्स जैसे महान कवियों के साथ आदर से लिया जाता है. तो क्या रचना ने रचनाकार को पीछे धकेल दिया ?
कमलेश्वर मेरे प्रिय लेखक रहे हैं. 'कितने पाकिस्तान' की तो मैं बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ. पिछले दिनों प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी जी ने 'कितने कमलेश्वर' नाम से एक लेखमाला लिखी जिसमे उनके व्यक्तिगत जीवन की बखिया उधेड़ कर रख दी गई है. उन्होंने बताया है कि किस तरह वो अपने अपनी पत्नी के प्रति असंवेदनशील थे. किस तरह उनके और महिलाओं से भी सम्बन्ध रहे है. तो क्या अब मुझे कितने पाकिस्तान' के प्रति अपने लगाव को भूल जाना चाहिए ?
प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा जी की पत्नि ने जब उन पर संगीन आरोप लगाये और एक ब्लॉग में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा. तो क्या उसके बाद उनके प्रशंसकों में कमी आ गई होगी ?
हाल ही में दिवंगत राजेंद्र यादव जी की बात किये बगैर ये चर्चा अधूरी रहेगी. उनका पूरा जीवन ही विवादों से भरा रहा. उनकी किताब 'सारा आकाश' मैंने अब तक पढ़ी नहीं है. मेरी 'मस्ट रीड' की सूची में है. अब उनके बारे में इतनी उलटी सीधी बाते सुनने के बाद क्या मुझे उसे अपनी सूची से निकाल देना चाहिए ?
इनके अलावा भी कई सारे ऐसे प्रसिद्द लेखक, कवि, कलाकार रहे हैं जिनका निजी जीवन कदापि अनुकरणीय नहीं है. लेकिन जिनकी रचनाएं उत्कृष्ट है. तो किसे चुना जाना चाहिए..? रचना को या रचनाकार को ?
जब कोई व्यक्ति किसी रचना का सृजन करता है तो क्या उस वक्त वो वही व्यक्ति रहता है ? बीवी को पीटने वाला, व्यभिचारी, शराबी, आत्ममुग्ध आदि आदि.? या फिर वो किसी और ही व्यक्ति में तब्दील हो जाता है ? अपने पात्रों में क्या उसका अंश होता है ? या पात्रों की आत्मा उसमे समाहित हो जाती है ? इस सवाल का जवाब तो कोई साहित्यिक व्यक्ति ही दे सकता है. लेकिन हम पाठकों का क्या दायित्व है ? रचनाकार के निजी जीवन के आधार पर रचना का मूल्यांकन करें या रचना को एक पूर्वाग्रह रहित नजरिये से देखकर उसका आनंद ले ?
क्या सही है ? जरुर बताइये.
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