Thursday, August 28, 2014

प्रेम की इंटेंसिटी

स्त्री द्वारा किया गया प्रेम और पुरुष द्वारा किया गया प्रेम इसमें एक बुनियादी अंतर है. पुरुष अक्सर अपने आत्म-सम्मान के मामले में डटें रहते हैं. उससे समझौता किसी हाल में नहीं करते. स्त्री की जो चीज़ सब से पहले छिन जाती है वो आत्म-सम्मान ही है. खुद की हस्ती मिटाए बिना स्त्री अपने प्रेम का विश्वास दिला ही नहीं सकती शायद. ये थम्ब रुल सा बन गया है इस खेल का. फिर स्त्री चाहे कितनी ही काबिल हो, गुणी हो, खुद-मुख्तार हो. अपने पार्टनर के क़दमों में अपने स्वत्व का समर्पण ही शर्त है उसके लिए.
हालांकि इस बात का जनरलाइजेशन नहीं किया जा सकता. सभी केसेस ऐसे ही हो ये मुमकिन नहीं. लेकिन ज्यादातर - आई रीपीट - ज्यादातर मामले इसी तरह के होते हैं. झुकना, टूटना, अपना वजूद ख़त्म कर देना आदि आदि सजाएं स्त्री का ही मुकद्दर है.
सभी अमृताओं की किस्मत में इमरोज़ नहीं होते...

Tuesday, August 26, 2014

हम वो बेशर्म हैं

हम वो बेशर्म हैं,
हम वो बेदर्द हैं,
ख्वाब गंवा कर भी जिन्हें नींद आ जाती है...
सोच सोच कर भी,
जिन के जहनों को कुछ नहीं होता...
टूट फूट के भी,
जिन के दिल धड़कना याद रखते हैं...
हम वो बेशर्म हैं,
हम वो बेदर्द हैं,
टूट कर रोने की चाहत में जो,
बात बे बात मुस्कुराते हैं.....
शाम से पहले मर जाने की ख्वाहिश में जो,
जीते हैं...
और...
जीते चले जाते हैं...
-------- अज्ञात.

Saturday, August 16, 2014

काफिले

काफिले रेत हुए दश्त-ए-जुनूं में कितने,
फिर भी आवारा मिजाजों का सफ़र जारी है...
----------- अज्ञात.

Friday, August 15, 2014

भारत

भारत,
मेरे सम्मान का सब से महान शब्द
जहाँ कही भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त नापते हैं
उन के पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उन के लिए ज़िन्दगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूं
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से सम्बंधित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है..
-------------- पाश.
सभी भारत-वासियों को स्वतंत्रता-दिवस की शुभकामनाएं.

Thursday, August 14, 2014

सामूहिक कोसाई

कल एक साहब ने, जो खुद को हिन्दू संस्कृति के रक्षक जैसा कुछ बता रहे थे, मुझ पर ये इल्जाम लगाया कि मैं हिन्दू-विरोधी हूँ. जिस के सबूत में उन्होंने मेरी ठाकुर-पंडित वाली पोस्ट का हवाला दिया. मैंने कहा कि वो तो परसाई जी ने लिखा है. तो बोले, "कौन परसाई ?". कुछ क्षण तो मुझे क्या कहा जाये ये सूझा ही नहीं. फिर समझ में आया कि ये उस किस्म के संस्कृति रक्षक हैं जिन्हें भले ही अपने देश की सभ्यता, साहित्य, कला के बारे के रत्ती भर भी जानकारी ना हो लेकिन मानते ये खुद को महाराणा प्रताप से कम नहीं. खैर, किसी तरह उनसे पीछा छुडाया.
आज सुबह सुबह फेसबुक खोलते ही देखा कि एक इस्लाम के पैरोकार का मेसेज इंतज़ार कर रहा है. कल Awanish जी की पोस्ट पर एक कमेन्ट किया था मैंने जिस में एक से ज्यादा शादियाँ करने की इस्लाम में हासिल छूट का विरोध किया था. उदाहरण दे के बताया था कि कैसे व्यावहारिक ना होते हुए भी ऐसी प्रथायें ढोई जा रही हैं और इन का किस तरह मिस-यूज हो रहा है. उन साहब को इसी पर ऐतराज़ था. कह रहे थे कि मैं इस्लाम को बदनाम कर रही हूँ. मुझे इडियन तस्लीमा नसरीन बोल रहे थे. मेरी तरबियत पर लानत भेज रहे थे. बड़ी मुश्किलों से उन से भी निजात हासिल की.
तो कहने की बात ये कि आज कल हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही गरिया रहे हैं मुझे. इसका क्या मतलब हुआ ? एक मित्र से पूछा तो वो बोलें की तुम खालिस भारतीय बनने की राह पर हो. तो मैं खुश हो जाऊं अब ??? वैसे ये लोग मुझे मिल के कोस रहे हैं जब कि मैं नास्तिक भी नहीं. ऐसी सामूहिक कोसाई तो नास्तिकों की हुआ करती है. मुझ पर ये मेहरबानी काहे भई ?
खैर, जो भी है. फेसबुक का प्रसाद समझ कर ग्रहण कर रही हूँ. और तमाम तरह के धार्मिक/अधार्मिक लोगों से वही कहना चाहती हूँ जो अब्राहम लिंकन ने कहा था,
when i do good, i feel good...
when i do bad, i feel bad...
and that's my Religion.

Wednesday, August 13, 2014

चेतन भगत

कुछ लेखकों का लिखा मुझे बेहद पसंद आता है लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर जो कुछ उन के बारे में पढ़ा उस से वो लोग मुझे कुछ ख़ास पसंद नहीं आये.
कुछ लेखकों के बारे में संस्मरण पढ़े तो उस से वो लोग एक बेहतरीन इंसान साबित हुए लेकिन उन का लिखा मुझे कुछ ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया.
इस पूरी कायनात में सिर्फ और सिर्फ एक ही लेखक है जो एक साथ दोनों कसौटियों पर खरे उतरते नज़र आते हैं. और वो हैं श्री. चेतन भगत जी.
मुझे ना तो ये बंदा ही पसंद आया और ना ही इसका लिखा हुआ. न जाने लोग कैसे झेल लेते हैं साहब को.. अंग्रेजियत का रुतबा है शायद....

Tuesday, August 12, 2014

टोपी शुक्ला से

संसार के तमाम छोटे-बड़े लोगों की तरह टोपी भी बेनाम पैदा हुआ था. नाम की जरुरत तो मरने वालों को होती है. गांधी भी बेनाम पैदा हुए थे और गोडसे भी. जन्म लेने के लिए आज तक किसी को नाम की जरुरत नहीं पड़ी है. पैदा तो केवल बच्चे होते हैं. मरते मरते वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, नास्तिक, हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, गोर, काले और जाने क्या क्या हो जाते हैं.
------------- टोपी शुक्ला से ( राही मासूम रजा. )

Sunday, August 10, 2014

जाति

ठाकुर साहब का लड़का और पंडित जी की लड़की दोनों जवान थे. दोनों में पहचान हुई. पहचान इतनी बढ़ी कि वे शादी के लिए तैयार हो गए.
जब प्रस्ताव उठा तो पंडित जी ने कहा - "ऐसा कभी हो सकता है ? ब्राह्मण की लड़की ठाकुर से शादी करे ! जाति चली जायेगी."
किसी ने उन्हें समझाया कि लड़का-लड़की बड़े हैं, पढ़े लिखे हैं, समझदार हैं. उन्हें शादी कर लेने दो. अगर उनकी शादी नहीं हुई तो भी वे चोरी-छिपे मिलेंगे और तब जो उन का सम्बन्ध होगा, वो व्यभिचार कहा जाएगा.
इस पर ठाकुर साहब और पंडित जी ने कहा - "होने दो. व्यभिचार से जाति नहीं जाती. शादी से जाती है."
--------- हरिशंकर परसाई जी.

Saturday, August 9, 2014

इतिहास अपना अपना

कुछ संवाद ज़हन से चिपक कर रह जाते हैं. इसी संवाद को देख लीजिये. एक मुसलमान हिस्ट्री का प्रोफ़ेसर अपने एक हिन्दू छात्र से क्लास में बेमानी बहस कर के घर लौटा है. उस के और उस की पत्नी के बीच हुआ ये वार्तालाप जैसे असल समस्या की जड़ तक पहुँचने की इमानदाराना कवायद लगती है.
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"क्या बात है ?" - सकीना ने पूछा.
इफ्फन ने बात बता दी. "....और अगर लड़कों के दिमाग में यहीं बातें भरी जाती रही तो इस मुल्क का क्या बनेगा ? नई नस्ल तो हमारी नस्ल से भी ज्यादा घाटे में है. हमारे पास कोई ख्वाब नहीं है. मगर इन के पास तो झूठे ख्वाब है. मैं हिस्ट्री पढाता हूँ. ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान की किस्मत में हिस्ट्री है ही नहीं. मुझे अंग्रेजों की लिखी हिस्ट्री पढ़ाई गई. चन्द्रबली को हिन्दुओं की बनाई हुई हिस्ट्री पढ़ाई जा रही है. यही हाल पाकिस्तान में होगा. वहाँ इस्लामी छाप होगी तारीख पर ! पता नहीं हिन्दुस्तानी हिस्ट्री कब लिखी जायेगी !"
"मैं तो कहती हूँ कि पाकिस्तान चले चलिए." - सकीना ने कहा.
"ये पढ़ाने के लिए कि मुसलमानों के आने से पहले हिन्दुस्तानी अनसिविलाइज्ड थे ? नहीं ! दोनों जगहों पर धूल में रस्सी बटी जा रही है. मैं पढ़ाने का काम ही छोड़ दूंगा."
----------- 'टोपी शुक्ला' उपन्यास से साभार.
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यूँ तो राही मासूम रजा साहब ने कई उम्दा रचनाएँ लिखी है लेकिन मेरे लिए उनकी सब से बेहतरीन रचना 'टोपी शुक्ला' ही रहेगी. सभी पुस्तक प्रेमियों को सलाह है कि जरुर जरुर पढ़े. 

Wednesday, August 6, 2014

मला आई व्हायचय ( i want to be a mother )

हर साल प्रदर्शित होने वाली हिंदी फिल्मों में गिनी चुनी ही ऐसी होती हैं जो काबिल-ए-जिक्र हो. जिन्हें देखने का मन करे. ज्यादातर तो किक, एक था टाइगर या राउडी राठोड जैसी मसाला फ़िल्में ही होती है जो कमाई चाहे ट्रक भर भर के कर ले लेकिन सिनेमा के नाम पर उन मे कुछ नहीं होता. बेहद अतार्किक, अतिरंजनापूर्ण ये फ़िल्में ना तो ढंग से मनोरंजन करती हैं और ना ही कोई सन्देश देती है. लंचबॉक्स, शिप ऑफ़ थिसियस या पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में बड़ी मुश्किलों से दे पाती है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री. शायद हिंदी वाले बने बनाए ढर्रे से अलग हटना ही नहीं चाहते. इस के मुकाबले प्रादेशिक भाषाओं के सिनेमा में कई सारे साहसिक प्रयोग आम दिखाई पड़ते हैं. अलग विषय चुनने का रिस्क लेकर, मंझे हुए कलाकारों के सधे हुए अभिनय के जरिये प्रादेशिक सिनेमा एक से बढ़कर एक फ़िल्में दे रहा है और हम हैं कि किक देखने को अभिशप्त है. बंगाली, तमिल, गुजराती, मराठी इन सभी भाषाओं में बेहतर फ़िल्में बन रही हैं. हर साल नेशनल अवार्ड्स में बेस्ट फिल्म का खिताब किसी न किसी प्रादेशिक फिल्म को ही मिलता है. ये सब से बड़ा सबूत है हिंदी वालों की 'लकीर का फ़कीर' बने रहने की मानसिकता का. खैर, आज मैं एक ऐसी ही मराठी फिल्म का जिक्र करना चाहूंगी जो कई मायनों में असाधारण फिल्म है. फिल्म का नाम है "मला आई व्हायचय". ( I want to be a mother.)
सरोगेट मदर जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी ये फिल्म सच में 'मस्ट सी' की कैटेगरी की है. किराये की कोख लेकर संतान-प्राप्ति आज कल बहुत चलन में है. प्रेगनेंसी का डर, नौकरी की दिक्कतें, कोई मेडिकल समस्या या पूर्वी देशों में सहज और सस्ती हासिल किराये की कोख जैसे कारणों के चलते ये व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है. ऐसी ही एक कहानी के इर्दगिर्द बुनी गई ये फिल्म कई मायनों में विशिष्ट है. यूँ तो इस विषय पर हिंदी में भी सलमान/रानी/प्रीती को लेकर एक फिल्म बनी थी. लेकिन वो इतनी फूहड़ थी कि उसका जिक्र भी करना फिजूल है. एक अच्छे विषय का कामयाबी से कचरा किया था उन लोगों ने. ये ऐसी नहीं है.
ये कहानी है यशोदा की. यशोदा महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में रहने वाली विधवा है जिस के पास अपनी इकलौती, अपाहिज बेटी के अलावा कुछ नहीं. अपनी अपाहिज बेटी के इलाज के लिए उसे पैसे चाहिए, जिस की वजह से वो सरोगेट मदर बनने का प्रस्ताव कबूल कर लेती है. उसे सारे कानूनी नुक्ते समझाए जाते हैं. जैसे कि जन्म के बाद बच्चे पर उसका कोई हक नहीं होगा वगैरह वगैरह. मेरी - जो कि असल माँ है - उससे मिलती है और कुछ पैसे उसे दे भी देती है. क्लिनिकल प्रोसेस पूरी हो जाती है और मेरी का बच्चा यशोदा की कोख में पलने लगता है. छठे महीने किये गए एक रूटीन चेक-अप के दौरान पता चलता है कि यशोदा की पहली औलाद की तरह ये बच्चा भी अपाहिज पैदा होगा. बस यहीं से वो घटनाएं शुरू होती है जो मानवी चरित्र के कई सारे पहलूंओं को उजागर करती है और दया, करुणा, ममता, क्रूरता और स्वार्थ जैसी भावनाओं से आपका करीब से परिचय कराती हैं. मेरी बच्चे को लेने से इनकार कर देती है. छठा महिना होने की वजह से एबॉर्शन भी नहीं हो सकता. वो यशोदा को कुछ पैसे देती है और 'बच्चे को अनाथ-आश्रम में दे देना' ये सलाह देती हुई विदेश लौट जाती है.
वक्त पर बच्चे का जन्म होता है. खुशकिस्मती से बच्चा बिल्कुल स्वस्थ है. यशोदा उसका नाम माधव रखती है और उसकी परवरिश में जुट जाती है. एक अंग्रेज़ बच्चा ( नीली आँखों वाला, बेहद गोरा ), एक मराठी परिवार में पलने लगता है. ज़िन्दगी ढर्रे पर लौट आती है. माधव और यशोदा के बीच माँ-बेटे का ऐसा अटूट बंधन बंध चुका है जिस को तोडना लगभग नामुमकिन है अब. माधव चार साल का होता है और..... और मेरी लौट आती है. बच्चे पर हक जताती हुई. उसके साथ किस्मत ने बहुत भद्दा मज़ाक किया है. वो खुद उम्र भर माँ नहीं बन सकती. माधव ही उसकी इकलौती संतान है इस दुनिया में. कानूनन माधव पर मेरी का हक़ है. लेकिन उसे पाला पोसा यशोदा ने है. बेशुमार मुहब्बत यशोदा ने दी है. तो बच्चे पर हक़ किस का ? एक कानूनी लड़ाई की भूमिका बंध चुकी है लेकिन भोली-भाली यशोदा क्या जानें कानूनी दांवपेंच ? वो बच्चे को मेरी को सौंप देने का फैसला करती है. उसके बाद जो होता है उससे आपकी आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकती. क्या माधव मेरी के साथ, अपने जैसे लोगों में रह पाया ? क्या माधव के बिना यशोदा जिंदा रह सकी ? सवालों के जवाब जानने के लिए ये फिल्म जरुर देखिये.
फिल्म की जान इसके किरदारों का अभिनय और समृद्धि पोरे का काबिले-तारीफ़ निर्देशन है. इतना संवेदनशील विषय होने के बावजूद फिल्म कहीं भी मेलोड्रामेटिक नहीं हुई. समृद्धि पोरे खुद एक वकील रही हैं और अपनी वकालत के दरमियान ऐसे ही एक केस से उनका वास्ता पड़ा था. अपने अनुभव को फिल्म में बेहद खूबसूरती से ढाला है उन्होंने. ये उनकी पहली फिल्म है और कहना न होगा कि वो अपने पहले ही प्रयास में भरपूर सफल रही हैं. यूँ तो फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा काम किया है लेकिन ये फिल्म सही मायनों में यशोदा की है. उर्मिला कानिटकर ने यशोदा के किरदार को अक्षरशः जिया है. माधव से उसका लगाव दर्शाते वक्त उसकी आँखें तक बोलती हैं. एक बार जब मेले में माधव खो जाता है उस वक्त उसकी बेचैनी आप खुद भी महसूस कर सकते हैं. जब मेरी माधव को उसके पेट में छोड़कर लौट रही होती है तब उसका आर्तनाद आपको झिंझोड़ देता है और आपको लगता है कि आप खुद वहाँ जा कर मेरी को थप्पड़ लगाए. यशोदा की भूमिका में उससे बढ़िया चयन शायद हो ही नहीं सकता था.
इस फिल्म की एक ख़ास बात ये कि माधव बने बच्चे की भी अपनी एक सच्ची कहानी है. एडन बर्कले नाम का ये बच्चा खुद भी एक सरोगेट चाइल्ड है. जो अमेरिका में अपने माता-पिता के साथ रहता है. एडन के माता पिता जब दूसरे बच्चे की प्राप्ति के लिए भारत आये थे तब समृद्धि पोरे ने उसे पसंद किया इस रोल के लिए. फिर इस बच्चे को सच में ही महाराष्ट्र के एक गाँव में रखा गया जहाँ उसे मराठी सिखाई गई. इसीलिए फिल्म में इस बच्चे द्वारा बोले गए संवाद हकीकत के करीब लगते हैं और पूरी फिल्म को एक विश्वसनीयता प्राप्त होती है. समृद्धि पोरे ने खुद भी एक रोल किया है फिल्म में जो छोटा भले ही हो लेकिन प्रभावशाली है.
इस फिल्म ने उस वर्ष का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था. उस वक्त की तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा ये फिल्म बराक ओबामा को भी दिखाई गई थी.
एक अनोखे विषय को लेकर इतनी बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए समृद्धि जी का जितना अभिनन्दन किया जाए वो कम है. अच्छी फिल्मों के चाहने वालें इस फिल्म को कतई मिस ना करें. अगर भाषा समझ न आये तो सब-टाइटल्स के साथ देखिये. लेकिन देखिये जरुर.
"A child gives birth to a mother" इस टैगलाइन को पूरी तरह सार्थक करती ये फिल्म अपने आप में एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव है. आजमा के देखिएगा.

गाली का जवाब

अगर आप गाली का जवाब ना दो तो गाली अपनी मौत खुद मर जाती है. लेकिन अगर आप गाली पर तड़प कर, तिलमिलाकर दिखाते हैं तो समझ लीजिये आप उस गाली के ही सरासर काबिल हैं. गाली को, गाली देने वाले को नज़रअंदाज़ कर देना आपकी वो नैतिक विजय होती है जिसको पचा पाना गाली देने वाले के बस का नहीं होता. ये हार उसे और ज्यादा तिलमिलाने पर मजबूर करती है. यकीन नहीं आता तो आजमा के देख लीजिये. मैं तो बरसों से आजमा रही हूँ. कामयाबी से...

Tuesday, August 5, 2014

कोई तो बात है

कोई तो बात है बाकी गरीब-खानों में,
वगरना जिल्ले-इलाही और इन मकानों में...
मुहाजिरों को पता है अज़ाब-ए-दरबदरी,
हयात काटनी पड़ती है शामियानों में...
ये जा के कौन बतायें शरीफजादों को,
खतायें पलती हैं अब तक यतीमखानों में...
हमारे खून से बनती है सैंकड़ों चीज़ें,
हमारे बच्चे मुलाजिम हैं कारखानों में....
चलो ये रात तवायफ के घर गुज़ार आयें,
है छान-बिन बहुत मजहबी घरानों में....
------ हबीब सोज़.

मूर्खता का प्रदर्शन

अब्राहम लिंकन ने बोला था,
"Better to remain silent and be thought a fool than to speak out and remove all doubt."
राष्ट्रभाषा में जिसका मतलब हुआ के,
"चुप रह कर मूर्ख समझ लिया जाना बेहतर है, बजाय इस के कि मुंह खोल कर मूर्खता साबित की जाए."
आखिर समझने में और साबित होने में कुछ तो फर्क होगा ना...
स्पेशल नोट :- इस स्टेटस का कनेक्शन पूर्व प्रधानमंत्री और मौजूदा पीएम साहब से जोड़ने की मनाही तो नहीं है, लेकिन इसे अपने रिस्क पर करे. भक्तजनों का हमला होने पर पोस्ट करने वाली की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी. धन्यवाद.

Monday, August 4, 2014

कन्फ्यूज़ कर दित्ता..

एक शायर ने कहा,
"इक दूजे के बिन न रहेंगे,
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे.."

एक कथाकार ने अपनी कहानी में लिख दिया,
"मैं तुम से पहले इज दुनिया से विदा हो जाना चाहता हूँ, ताकि तुम्हारे बगैर एक पल भी मुझे इस दुनिया में ना रहना पड़े."

एक अफसाना-निगार अपने अफ़साने में बोले,
"मेरी शदीद ख्वाहिश है कि मेरी मौत तुम्हारे बाद हो. ताकि मैं इस इत्मीनान से मर सकूँ कि अब तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं रही. तुम दुनिया में मेरे बिना अकेली हो ये सोच सोच कर मेरी रूह कब्र में भी बेचैन रहेगी."

मॉरल ऑफ़ दी इश्टोरी इज,
ये शायर, कथाकार, रूमानी अफसाना निगार इनकी बातों में नहीं आने का.. ये भयंकर रूप से कन्फयूजिंग बातें करते हैं. इस पल में जीने का भाई लोग. मरने-मराने की बातों पर किस का बस चला है. लेकिन जीना अपने हाथ में है. शायरी, कहानी, अफसाना पढने का लेकिन करने का अपने मन की. खुल के जीने का और अपने साथी की ज़िन्दगी बेहतर बनाने की कोशिश करने का. फ़ालतू की नारेबाजी नेता लोगों के लिए छोड़ दो..

( ज्ञान के इस डोज के साथ मैं ज़ारा खान आपसे विदा लेती हूँ. गुड नाईट. कल मिलेंगे. वैसे किसी को बताना मत मैं आज रात महकता आँचल पढ़ रही हूँ. )

Sunday, August 3, 2014

मित्र अवनीश कुमार के लिए

यूँ तो दोस्ती के लिए महज़ एक दिन मुक़र्रर कर देना कोई ख़ास समझदारी का काम तो है नहीं. लेकिन जब चलन चल ही पड़ा है तो इस दिन को मैं किसी ख़ास दोस्त की शुक्रगुजार होने का मौका जान कर कबूल कर रही हूँ.
अक्टूबर / नवम्बर 2012 की बात है. किताबों से सम्बंधित एक ग्रुप ज्वाइन किया था. उसमे किसी पोस्ट पर इन से परिचय हुआ. फिर इनबॉक्स में बातें होने लगी. वो मेरा फेसबुक पर शुरूआती वक्त था सो बेतहाशा झिझक थी. मेरे ही हमउम्र इस मित्र ने मेरी झिझक को बेहद शिष्टता से दूर किया. मुझे फेसबुक की कई बुनियादी बातें सिखाई. जैसे कमेंट में नाम टैग करना, चैट ऑफ करना, हिंदी में टाइपिंग करने वाले टूल का लिंक देना, उसे डाउनलोड करने का तरीका सिखाना, और भी बहुत कुछ. लेकिन जो सब से बड़ा एहसान उन का मुझ पर है वो ये कि उन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया. प्रेरित क्या किया एक तरह से बांह मरोड़ कर मजबूर किया. मैंने शुरू शुरू में लिखा आस्था वाला नोट हो या किताबों वाली पोस्ट, सब उन्हीं की देख रेख में हुआ. वो मेरे प्रूफ रीडर भी थे और पहले पाठक भी. लिखना तो शायद मुझे आता था लेकिन इस काम में जो आत्मविश्वास की दरकार होती है वो बिल्कुल नदारद था. उन्होंने उस आत्मविश्वास को मेरे अन्दर प्रज्वलित किया. आज जब भी कोई अनजान व्यक्ति मेरे इनबॉक्स में आ कर कहता है कि 'आप बहुत अच्छा लिखती हो' तो उन की बरबस याद आ जाती है. और दिल से उन के लिए दुआ निकलती है.
उन ख़ास मित्र का नाम है अवनीश कुमार जी. आज कल इन का फेसबुक पर आना बहुत कम हो गया है.
मैं आज के दिन अपने दिल की तमामतर गहराइयों के साथ आपका शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ अवनीश जी. मैंने तो आपको सिवाय सर-दर्द के कुछ नहीं दिया लेकिन आपने मुझे वो अता किया है जिस के लिए मैं चाहकर भी आपके एहसान से मुक्त नहीं हो सकती. ये जो मेरा लम्बा-चौड़ा फेसबुक परिवार है वो सिर्फ और सिर्फ आपकी बदौलत है.
आप का, आपकी अनगिनत नवाजिशों का दिल से शुक्रिया. आप खुश रहें, शाद रहें, आबाद रहें यही दुआ है.

Friday, August 1, 2014

दिल्ली में यूपी वाले बाहरी

ये यूपी से उत्तराखंड किसने अलग करवाया था ?? थैंक यू बोलना था उसे.. अगर वक्त रहते ऐसा न हुआ होता तो दिल्ली वाली खाला से मिलने जाते में दहशत होने लगती. शुक्र है मैं यूपी-बिहार से नहीं हूँ..
थैंक्स विजय जी फॉर स्पेयरिंग अस... एंड हैप्पी नागपंचमी टू...


सन्दर्भ :- भाजपा नेता विजय गोयल का बेतुका बयान 

पानी सस्ता है तो

पानी सस्ता है तो फिर उसका तहफ्फुज़ कैसा,
खून महंगा है तो हर शहर में बहता क्यूँ है ???
---- अज्ञात.