भारत
में पुलिस की छवि बहुत ही खराब है. प्रबुद्ध, पढ़ा लिखा वर्ग तो कोसता ही
है, साथ ही समाज का निचला तबका भी - जो पुलिसिया ज़ुल्मात का सीधा शिकार
होता है - जी भर के पुलिस को गरियाता है. एक दृश्य बता रही हूँ जो कतई नया
या अनदेखा नहीं है. आप बाज़ार में घूम रहे हैं, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफ़र
कर रहे हैं और राह में कोई पुलिस वाला नज़र आ जाता है ( सिपाही, हवलदार से
लेकर एसीपी, डीसीपी कोई भी.. बस वर्दी होनी चाहिए ). ऐसे वक्त आपके आसपास
का कोई ना कोई बंदा अपने मुंह से जरुर उस बन्दे के लिए अपशब्द निकालता है.
भले ही उस पुलिस वाले को कतई ना जानता हो. उसके जिस्म पर वर्दी होना ही
जैसे उसके बुरे आदमी होने की निशानी हो. उसका वर्दी में होना ही जैसे
पर्याप्त कारण हो उसे गाली देने का. कुल मिला कर पुलिस को लेकर आम जनमानस
की एक पुख्ता राय बन चुकी है कि पुलिस बुरी ही होती है.
पुलिस की वर्दी ज़ुल्म, दहशत और नाइंसाफी का प्रतीक बन चुकी है. इस फैक्ट को नकारा जा ही नहीं सकता. इसे बदलने के लिए क्या किया जा सकता है या किस किस को कोशिशें करनी चाहिए ये एक अलग चर्चा का विषय है. हाँ, ये ऐसा ही है इसे शायद ही कोई नकारे. मेरी चिंता इससे अलग है.
मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में मीडिया की भी यही गत होने वाली है. मुझे ख़ुशी होगी अगर मेरी ये आशंका निर्मूल साबित हुई लेकिन मुझे पूरा पूरा अंदेशा है कि ये खतरा मुंह बाये खड़ा है मीडिया जगत के आगे. जिस तेज़ी से मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है उससे तो लगता है आने वाले दिनों में पत्रकार होना, या ख़बरों के कारोबार का हिस्सा होना शायद ही गर्व का विषय हो. किसी जमाने में अखबार में छपी हुई बात अपने आप में सत्य का प्रतीक हुआ करती थी. लोग आँख मूंद कर विश्वास किया करते थे. मुझे याद है अपना बचपन जिसमे अखबार का अपना एक महत्त्व हुआ करता था. टीचर लोग पढ़ाते थे कि लोकतंत्र में अखबार ही ऐसी शक्ति है जिससे हुकूमतें डरा करती है. वे बताया करते थे कि कैसे दो पत्रकारों ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की सरकार हिला दी थी. कलम की ताकत को तलवार की ताकत से ज्यादा आंकना सिखाते थे गुरुजन. अखबार पर निबंध लिखते वक्त हम बड़ी शान से शुरुआत में ही अकबर इलाहाबादी का ये शेर लिख दिया करते थे.
"खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो."
और ये तब जब शायरी से अभी ढंग से परिचय भी नहीं हुआ था. उस ज़माने में 'प्रेस' कोई अद्भुत चीज़ लगा करती थी. एक अनोखी आभा हुआ करती थी प्रेस की. जब न्यूज़ चैनल्स का आगमन हुआ तब भी हम बच्चे ही थे. लेकिन कुछ कुछ समझ आनी शुरू हो चुकी थी. सिर्फ ख़बरों को समर्पित चैनल काफी अचम्भित करता था. लेकिन उसकी महत्ता भी स्वीकारने लगा था मन. पिछले दशक में समाचार माध्यमों द्वारा छुई गई अभूतपूर्व उंचाइयां हैरान कर देने वाली रही. और फिर उतना ही चौंका देना वाला उनका पतन भी रहा. जब प्रिंस नाम के बच्चे के बोअरवेल में गिरने का कवरेज मीडिया ने निरंतर चलाया तब लगा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक वरदान सा है. ( बाद में - और पहले भी - न जाने कितने प्रिंस अननोटिस्ड रहे इसकी ठीक ठाक गिनती पता नहीं.)
पूंजीपतियों की पत्रकारिता में घुसपैठ के बाद नैतिकता की नई नई परिभाषाएं गढ़ी गई हैं. अब सत्य वो नहीं रहा जो सर्वव्यापी और सार्वभौम है. सत्य वो है जो आपको, आपके आकाओं को सूट करता है. बस उसे पेश करने का ढंग आना चाहिए. तरुण तेजपाल केस, तनु शर्मा सुसाइड अटेम्प्ट, सुधीर चौधरी का स्टिंग जैसी हालिया घटनाएं एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाए हुए हैं पत्रकारिता के पेशे पर. पांच मिनट की खबर को घंटे भर के एपिसोड में बदल कर, 'बाघिन बनी प्रेम दीवानी', 'मुर्गी ने दिए उबले अंडे' या 'उसने भगवान देखा है' जैसे प्रोग्राम चला चला कर मीडिया ने खुद को हास्यास्पद बनाने की भरसक कोशिश की है और कामयाबी भी हासिल की है. वो दौर तो आ भी चुका जब लोग न्यूज़ चैनल को एंटरटेनमेंट के लिए देखा करते हैं. पता नहीं और कितनी डाउनस्लाइड बाकी है. हालांकि 'nobody is perfect, also nobody is total loss' की तर्ज़ पर अभी भी कुछ नाम ऐसे हैं जिन्होंने पत्रकारिता की गरिमा को थामे रखा है लेकिन क्या थामे रह पायेंगे ये सवाल कचोटता है.
उस दिन से डर लगता है जब हाथ में माइक/कलम थामे और गले में प्रेस कार्ड लटकाये किसी शख्स को देख कर आपके मन में जो पहला भाव आये वो वितृष्णा का हो. ऐसी नौबत आने से पहले संभल जाना होगा लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को. क्यूँ कि आपका ध्वस्त होना तो क्या चरमराना तक हम लोग अफोर्ड नहीं कर सकते. शोषितों की आखिरी पनाह के रूप में आपकी पहचान खतरे में है माई-बाप. इस पहचान को बनी रहने दीजिये. क्यूँ कि अगर कलम बिक गई, विरोध में उठने वाली आवाज़ का सौदा हो गया तो दुनिया का सब से महान लोकतंत्र मजाक बन कर रह जायेगा. उम्मीद के खिलाफ उम्मीद करती हूँ कि वो दिन देखना नहीं पड़ेगा.
पुलिस की वर्दी ज़ुल्म, दहशत और नाइंसाफी का प्रतीक बन चुकी है. इस फैक्ट को नकारा जा ही नहीं सकता. इसे बदलने के लिए क्या किया जा सकता है या किस किस को कोशिशें करनी चाहिए ये एक अलग चर्चा का विषय है. हाँ, ये ऐसा ही है इसे शायद ही कोई नकारे. मेरी चिंता इससे अलग है.
मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में मीडिया की भी यही गत होने वाली है. मुझे ख़ुशी होगी अगर मेरी ये आशंका निर्मूल साबित हुई लेकिन मुझे पूरा पूरा अंदेशा है कि ये खतरा मुंह बाये खड़ा है मीडिया जगत के आगे. जिस तेज़ी से मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है उससे तो लगता है आने वाले दिनों में पत्रकार होना, या ख़बरों के कारोबार का हिस्सा होना शायद ही गर्व का विषय हो. किसी जमाने में अखबार में छपी हुई बात अपने आप में सत्य का प्रतीक हुआ करती थी. लोग आँख मूंद कर विश्वास किया करते थे. मुझे याद है अपना बचपन जिसमे अखबार का अपना एक महत्त्व हुआ करता था. टीचर लोग पढ़ाते थे कि लोकतंत्र में अखबार ही ऐसी शक्ति है जिससे हुकूमतें डरा करती है. वे बताया करते थे कि कैसे दो पत्रकारों ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की सरकार हिला दी थी. कलम की ताकत को तलवार की ताकत से ज्यादा आंकना सिखाते थे गुरुजन. अखबार पर निबंध लिखते वक्त हम बड़ी शान से शुरुआत में ही अकबर इलाहाबादी का ये शेर लिख दिया करते थे.
"खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो."
और ये तब जब शायरी से अभी ढंग से परिचय भी नहीं हुआ था. उस ज़माने में 'प्रेस' कोई अद्भुत चीज़ लगा करती थी. एक अनोखी आभा हुआ करती थी प्रेस की. जब न्यूज़ चैनल्स का आगमन हुआ तब भी हम बच्चे ही थे. लेकिन कुछ कुछ समझ आनी शुरू हो चुकी थी. सिर्फ ख़बरों को समर्पित चैनल काफी अचम्भित करता था. लेकिन उसकी महत्ता भी स्वीकारने लगा था मन. पिछले दशक में समाचार माध्यमों द्वारा छुई गई अभूतपूर्व उंचाइयां हैरान कर देने वाली रही. और फिर उतना ही चौंका देना वाला उनका पतन भी रहा. जब प्रिंस नाम के बच्चे के बोअरवेल में गिरने का कवरेज मीडिया ने निरंतर चलाया तब लगा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक वरदान सा है. ( बाद में - और पहले भी - न जाने कितने प्रिंस अननोटिस्ड रहे इसकी ठीक ठाक गिनती पता नहीं.)
पूंजीपतियों की पत्रकारिता में घुसपैठ के बाद नैतिकता की नई नई परिभाषाएं गढ़ी गई हैं. अब सत्य वो नहीं रहा जो सर्वव्यापी और सार्वभौम है. सत्य वो है जो आपको, आपके आकाओं को सूट करता है. बस उसे पेश करने का ढंग आना चाहिए. तरुण तेजपाल केस, तनु शर्मा सुसाइड अटेम्प्ट, सुधीर चौधरी का स्टिंग जैसी हालिया घटनाएं एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाए हुए हैं पत्रकारिता के पेशे पर. पांच मिनट की खबर को घंटे भर के एपिसोड में बदल कर, 'बाघिन बनी प्रेम दीवानी', 'मुर्गी ने दिए उबले अंडे' या 'उसने भगवान देखा है' जैसे प्रोग्राम चला चला कर मीडिया ने खुद को हास्यास्पद बनाने की भरसक कोशिश की है और कामयाबी भी हासिल की है. वो दौर तो आ भी चुका जब लोग न्यूज़ चैनल को एंटरटेनमेंट के लिए देखा करते हैं. पता नहीं और कितनी डाउनस्लाइड बाकी है. हालांकि 'nobody is perfect, also nobody is total loss' की तर्ज़ पर अभी भी कुछ नाम ऐसे हैं जिन्होंने पत्रकारिता की गरिमा को थामे रखा है लेकिन क्या थामे रह पायेंगे ये सवाल कचोटता है.
उस दिन से डर लगता है जब हाथ में माइक/कलम थामे और गले में प्रेस कार्ड लटकाये किसी शख्स को देख कर आपके मन में जो पहला भाव आये वो वितृष्णा का हो. ऐसी नौबत आने से पहले संभल जाना होगा लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को. क्यूँ कि आपका ध्वस्त होना तो क्या चरमराना तक हम लोग अफोर्ड नहीं कर सकते. शोषितों की आखिरी पनाह के रूप में आपकी पहचान खतरे में है माई-बाप. इस पहचान को बनी रहने दीजिये. क्यूँ कि अगर कलम बिक गई, विरोध में उठने वाली आवाज़ का सौदा हो गया तो दुनिया का सब से महान लोकतंत्र मजाक बन कर रह जायेगा. उम्मीद के खिलाफ उम्मीद करती हूँ कि वो दिन देखना नहीं पड़ेगा.
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