कल
अपनी प्रोफाइल पिक चेंज की थी. पिक में 'सेक्युलर वुमन' शब्द है. कुछ
दोस्तों ने सराहा, कुछ ने ऐतराज उठाया तो कुछ ने जानबूझकर दूरी बनाए रखी.
कुछ अजीब कमेन्ट आये तो किसी कमेन्ट का इन्तजार होने के बावजूद नहीं आया.
खैर, अब जरा इस शब्द का पोस्टमार्टम करते है.
सेक्युलर..... शाब्दिक अर्थ 'धर्मनिरपेक्ष'. मेरे लिए सेक्युलर होने का अर्थ किसी भी धर्म या विचारधारा का समान भाव से सम्मान करना है. और इसमें बुराई क्या है ये मेरी समझ में नहीं आता. पता नहीं कब और कैसे हमने इस शब्द को एक पार्टीविशेष की बपौती बना डाला है. क्यूँ सेक्युलर व्यक्ति का मतलब एक पार्टी का हिमायती और दूसरी पार्टी का दुश्मन बन गया है ? और सबसे बड़ा सवाल, ये शब्द राजनीतिक कब से बन गया..?
मेरे तीन सौ से ज्यादा दोस्तों में एक भी ऐसा नहीं है जिसे मैंने नाम देखकर ऐड किया हो. मेरे लिए धार्मिक पहचान कभी भी अहम नहीं रही. और ना ही रहेगी. कोई मेरा महज इसलिए ज्यादा करीबी नहीं हो सकता की उसने उसी मजहब में जनम लिया जिसमे मैंने लिया है. मेरे लिए हितेंद्र भाई, वर्षा ताई या आलोक जी उतने ही करीबी है जितने हैदर जी, शब्बीर जी या संजीदा बाजी. मेरे मन में उनके लिए भी सम्मान है जिनसे मेरी विचारधारा मेल नहीं खाती. इसीलिए आशीष भाई जैसे मित्रों से घनघोर असहमति के बाद भी वो आज भी मेरे मित्र है.
सेक्युलर शब्द आज एक गाली सा बन गया है. या यूं कहिये जबरन बना दिया गया है. मेरी नजर में सेक्युलर होना कोई गुनाह नहीं है. हां सेक्युलर होने का पाखण्ड करना जरुर जरुर गुनाह है. हमारे स्वार्थी राजनेताओं ने इस शब्द की आड़ लेकर अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं खूब पूरी की है इस बात से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ. पर क्या महज इसीलिए हम एक अच्छी चीज में अपनी आस्था त्याग देंगे ? आसाराम ने धर्म को कलंकित किया तो क्या लोगों ने ईश्वर में विश्वास रखना छोड़ दिया ? सेक्युलर होना यानी सभी को एक ही तराजू पर तौलना कहां से गलत हो गया ? मुझे कोई समझाए प्लीज.
मेरी निगाह में गलत क्या है ये मैं आपको बताती हूँ. धर्म के नाम पर लोगों में फर्क करना गलत है. मजहब का पैमाना लेकर लोगों की विश्वसनीयता परखना गलत है. किसी एक ही सम्प्रदाय की भलाई के दावे करना गलत है. इसीलिए ओवैसी गलत है. तोगड़िया गलत है. हर वो शख्स गलत है जो इस देश के एक भी व्यक्ति को मजहब के आधार पर अपने से अलग समझता हो. ऐसी विचारधारा जो फूट डालने का काम करती हो - चाहे किसी भी आधार पर हो - गलत है. और जो गलत है वो गलत है, भले ही उसे 'राष्ट्रवाद' जैसा फैंसी नाम दिया जाए.
हमारे देश में सैंकड़ों समस्याएं है. जिन्हें सुलझाने में आम आदमी शायद कोई सक्रीय मदद नहीं कर सकता. पर वो कम से कम इतना तो कर ही सकता है की इस मुल्क की फिजाओं में धार्मिक विद्वेष का जहर ना फैलने दे. ये हमारा नैतिक और सामजिक दायित्व है की हम इस देश की एकता को बनाए रखे. और ऐसा तभी किया जा सकता है जब हमारे चश्मे के शीशे साफ़ हो. उसपर किसी का कोई रंग ना चढ़ा हुआ हो.
मैं सेक्युलर हूँ. और ताजिंदगी ऐसे ही बने रहना चाहती हूँ. इसपर गर्व करके अपने आप को महान साबित करने की मैं ख्वाहिशमंद नहीं. मुझे लगता है की ये मानवता के प्रति मेरा फ़र्ज़ है. और मैं इसका ताजिंदगी निर्वाहन करती रहूंगी.
सेक्युलर..... शाब्दिक अर्थ 'धर्मनिरपेक्ष'. मेरे लिए सेक्युलर होने का अर्थ किसी भी धर्म या विचारधारा का समान भाव से सम्मान करना है. और इसमें बुराई क्या है ये मेरी समझ में नहीं आता. पता नहीं कब और कैसे हमने इस शब्द को एक पार्टीविशेष की बपौती बना डाला है. क्यूँ सेक्युलर व्यक्ति का मतलब एक पार्टी का हिमायती और दूसरी पार्टी का दुश्मन बन गया है ? और सबसे बड़ा सवाल, ये शब्द राजनीतिक कब से बन गया..?
मेरे तीन सौ से ज्यादा दोस्तों में एक भी ऐसा नहीं है जिसे मैंने नाम देखकर ऐड किया हो. मेरे लिए धार्मिक पहचान कभी भी अहम नहीं रही. और ना ही रहेगी. कोई मेरा महज इसलिए ज्यादा करीबी नहीं हो सकता की उसने उसी मजहब में जनम लिया जिसमे मैंने लिया है. मेरे लिए हितेंद्र भाई, वर्षा ताई या आलोक जी उतने ही करीबी है जितने हैदर जी, शब्बीर जी या संजीदा बाजी. मेरे मन में उनके लिए भी सम्मान है जिनसे मेरी विचारधारा मेल नहीं खाती. इसीलिए आशीष भाई जैसे मित्रों से घनघोर असहमति के बाद भी वो आज भी मेरे मित्र है.
सेक्युलर शब्द आज एक गाली सा बन गया है. या यूं कहिये जबरन बना दिया गया है. मेरी नजर में सेक्युलर होना कोई गुनाह नहीं है. हां सेक्युलर होने का पाखण्ड करना जरुर जरुर गुनाह है. हमारे स्वार्थी राजनेताओं ने इस शब्द की आड़ लेकर अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं खूब पूरी की है इस बात से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ. पर क्या महज इसीलिए हम एक अच्छी चीज में अपनी आस्था त्याग देंगे ? आसाराम ने धर्म को कलंकित किया तो क्या लोगों ने ईश्वर में विश्वास रखना छोड़ दिया ? सेक्युलर होना यानी सभी को एक ही तराजू पर तौलना कहां से गलत हो गया ? मुझे कोई समझाए प्लीज.
मेरी निगाह में गलत क्या है ये मैं आपको बताती हूँ. धर्म के नाम पर लोगों में फर्क करना गलत है. मजहब का पैमाना लेकर लोगों की विश्वसनीयता परखना गलत है. किसी एक ही सम्प्रदाय की भलाई के दावे करना गलत है. इसीलिए ओवैसी गलत है. तोगड़िया गलत है. हर वो शख्स गलत है जो इस देश के एक भी व्यक्ति को मजहब के आधार पर अपने से अलग समझता हो. ऐसी विचारधारा जो फूट डालने का काम करती हो - चाहे किसी भी आधार पर हो - गलत है. और जो गलत है वो गलत है, भले ही उसे 'राष्ट्रवाद' जैसा फैंसी नाम दिया जाए.
हमारे देश में सैंकड़ों समस्याएं है. जिन्हें सुलझाने में आम आदमी शायद कोई सक्रीय मदद नहीं कर सकता. पर वो कम से कम इतना तो कर ही सकता है की इस मुल्क की फिजाओं में धार्मिक विद्वेष का जहर ना फैलने दे. ये हमारा नैतिक और सामजिक दायित्व है की हम इस देश की एकता को बनाए रखे. और ऐसा तभी किया जा सकता है जब हमारे चश्मे के शीशे साफ़ हो. उसपर किसी का कोई रंग ना चढ़ा हुआ हो.
मैं सेक्युलर हूँ. और ताजिंदगी ऐसे ही बने रहना चाहती हूँ. इसपर गर्व करके अपने आप को महान साबित करने की मैं ख्वाहिशमंद नहीं. मुझे लगता है की ये मानवता के प्रति मेरा फ़र्ज़ है. और मैं इसका ताजिंदगी निर्वाहन करती रहूंगी.
No comments:
Post a Comment