न सन्नाटों में तपिश घुले, न नज़र को वक्फ-ए-अजाब कर...
जो सुनाई दे उसे चुप सिखा, जो दिखाई दे उसे ख्वाब कर...
अभी मुंतशिर न हो अजनबी, न विसाल रुत के करम जता,
जो तेरी तलाश में गुम हुए, कभी उन दिनों का हिसाब कर...
मेरे सब्र पर कोई अज्र क्या, मेरी दोपहर पे ये अब्र क्यूँ ?
मुझे ओढने दे अज़ीयतें, मेरी आदतें न ख़राब कर...
कहीं आबलों के भंवर बजे, कहीं धूप रूप बदन सजे,
कभी दिल को थल का मिज़ाज दे, कभी चश्म-ए-तर को चनाब कर...
ये हुजूम-ए शहर-ए-सितमगरां , न सुनेगा तेरी सदा कभी,
मेरी हसरतों को सुखन सुना, मेरी ख्वाहिशों से ख़िताब कर...
-------- मोहसिन नकवी.