Monday, October 7, 2013

उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था

अन्सार-ए-सिदक-ओ-वफ़ा उसकी मुहब्बत में न था...
वो जो दिखता था मेरी जान वो हकीकत में न था...

रोज़ होता था हर एक रुख पे दिलो जान से फ़िदा,
एक दिलबर से निभाना भी तो फितरत में न था....

सुबह शीरीं के लिए, शाम थी लैला के लिए,
और शब में भी एक ही सोहबत में न था....

ज़हन पे छाया था लम्हों के मरासिम का नशा,
सोचते क्या वो हद्द-ए-फहम-ओ-फरासत में न था....

मैंने उसकी हकीकत को अयां कर तो दिया,
पर उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था...


-- अज्ञात

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