ग़ालिब कह गए हैं कि,
"इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना..."
क्या मतलब हुआ इस बात का ? कि अगर दर्द को बर्दाश्त करने की कूव्वत लानी है तो उसे हद से बढ़ जाने दें ? उसे उस मुकाम तक ले आयें जहाँ वो आपके वजूद का ही एक हिस्सा लगने लगे ? उसकी आदत हो जाने दें ? दर्द से इतनी उन्सियत क्या आपमें ज़िन्दगी को, उसकी ज्यादतियों को बर्दाश्त करने की ताकत सच में भर देगी ? चचा ग़ालिब कुछ और रौशनी डाल जाते तो बेहतर होता.
इसी बात को घुमा फिरा कर एक और शेर में उन्होंने कुछ यूँ कहा,
"रंज से खूंगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गईं."
क्या सचमुच ? मुश्किलातों की अधिकता क्या उनसे निपटने में कारगर सिद्ध होती है ? क्या बंदा तब ज्यादा अच्छी तरह लड़ सकता है जब उसे कार्नर किया जाए या उसकी पीठ दीवार से जा लगी हो ? या फिर मुश्किलों में गुजर बसर करने की आदत हो जाती है ? क्या फिरंगी लोग इसे ही 'यूज्ड टू होना' कहते हैं ? सही तरीका क्या है ? मुश्किलें कम करना या उन्हें ज़िन्दगी का हिस्सा मान लेना ? दर्द ख़त्म करना या उसे हद से बढ़ने देना ? कन्फ्यूज कर गए चचा...!!
और फिर एक सवाल ये भी कि कई बार दर्द से पीछा छुड़ा लेना या मुश्किलातों को दफा करना बन्दे के अधिकार-क्षेत्र से बाहरी चीज़ होती है. यानी उसके पास चॉइस नहीं होती. तो फिर वो क्या करे ? चचा की ग़ज़लों में पनाह तलाशें ? मानीखेज शेरों से मुतास्सिर हो खुद को यकीन दिलाये कि ये हद से गुजरेगा तो दवा बन जाएगा ? या ज़िन्दगी अहमद फ़राज़ को गुनगुनाते हुए बिताएं ??
"शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है,
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है...!!"
बोलो बोलो.. चचा तो रहे नहीं, कोई उनका शागिर्द ही बता दे...!!
"इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना..."
क्या मतलब हुआ इस बात का ? कि अगर दर्द को बर्दाश्त करने की कूव्वत लानी है तो उसे हद से बढ़ जाने दें ? उसे उस मुकाम तक ले आयें जहाँ वो आपके वजूद का ही एक हिस्सा लगने लगे ? उसकी आदत हो जाने दें ? दर्द से इतनी उन्सियत क्या आपमें ज़िन्दगी को, उसकी ज्यादतियों को बर्दाश्त करने की ताकत सच में भर देगी ? चचा ग़ालिब कुछ और रौशनी डाल जाते तो बेहतर होता.
इसी बात को घुमा फिरा कर एक और शेर में उन्होंने कुछ यूँ कहा,
"रंज से खूंगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गईं."
क्या सचमुच ? मुश्किलातों की अधिकता क्या उनसे निपटने में कारगर सिद्ध होती है ? क्या बंदा तब ज्यादा अच्छी तरह लड़ सकता है जब उसे कार्नर किया जाए या उसकी पीठ दीवार से जा लगी हो ? या फिर मुश्किलों में गुजर बसर करने की आदत हो जाती है ? क्या फिरंगी लोग इसे ही 'यूज्ड टू होना' कहते हैं ? सही तरीका क्या है ? मुश्किलें कम करना या उन्हें ज़िन्दगी का हिस्सा मान लेना ? दर्द ख़त्म करना या उसे हद से बढ़ने देना ? कन्फ्यूज कर गए चचा...!!
और फिर एक सवाल ये भी कि कई बार दर्द से पीछा छुड़ा लेना या मुश्किलातों को दफा करना बन्दे के अधिकार-क्षेत्र से बाहरी चीज़ होती है. यानी उसके पास चॉइस नहीं होती. तो फिर वो क्या करे ? चचा की ग़ज़लों में पनाह तलाशें ? मानीखेज शेरों से मुतास्सिर हो खुद को यकीन दिलाये कि ये हद से गुजरेगा तो दवा बन जाएगा ? या ज़िन्दगी अहमद फ़राज़ को गुनगुनाते हुए बिताएं ??
"शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है,
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है...!!"
बोलो बोलो.. चचा तो रहे नहीं, कोई उनका शागिर्द ही बता दे...!!
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