हर साल प्रदर्शित होने वाली हिंदी फिल्मों में गिनी चुनी ही ऐसी होती हैं जो काबिल-ए-जिक्र हो. जिन्हें देखने का मन करे. ज्यादातर तो किक, एक था टाइगर या राउडी राठोड जैसी मसाला फ़िल्में ही होती है जो कमाई चाहे ट्रक भर भर के कर ले लेकिन सिनेमा के नाम पर उन मे कुछ नहीं होता. बेहद अतार्किक, अतिरंजनापूर्ण ये फ़िल्में ना तो ढंग से मनोरंजन करती हैं और ना ही कोई सन्देश देती है. लंचबॉक्स, शिप ऑफ़ थिसियस या पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में बड़ी मुश्किलों से दे पाती है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री. शायद हिंदी वाले बने बनाए ढर्रे से अलग हटना ही नहीं चाहते. इस के मुकाबले प्रादेशिक भाषाओं के सिनेमा में कई सारे साहसिक प्रयोग आम दिखाई पड़ते हैं. अलग विषय चुनने का रिस्क लेकर, मंझे हुए कलाकारों के सधे हुए अभिनय के जरिये प्रादेशिक सिनेमा एक से बढ़कर एक फ़िल्में दे रहा है और हम हैं कि किक देखने को अभिशप्त है. बंगाली, तमिल, गुजराती, मराठी इन सभी भाषाओं में बेहतर फ़िल्में बन रही हैं. हर साल नेशनल अवार्ड्स में बेस्ट फिल्म का खिताब किसी न किसी प्रादेशिक फिल्म को ही मिलता है. ये सब से बड़ा सबूत है हिंदी वालों की 'लकीर का फ़कीर' बने रहने की मानसिकता का. खैर, आज मैं एक ऐसी ही मराठी फिल्म का जिक्र करना चाहूंगी जो कई मायनों में असाधारण फिल्म है. फिल्म का नाम है "मला आई व्हायचय". ( I want to be a mother.)
सरोगेट मदर जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी ये फिल्म सच में 'मस्ट सी' की कैटेगरी की है. किराये की कोख लेकर संतान-प्राप्ति आज कल बहुत चलन में है. प्रेगनेंसी का डर, नौकरी की दिक्कतें, कोई मेडिकल समस्या या पूर्वी देशों में सहज और सस्ती हासिल किराये की कोख जैसे कारणों के चलते ये व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है. ऐसी ही एक कहानी के इर्दगिर्द बुनी गई ये फिल्म कई मायनों में विशिष्ट है. यूँ तो इस विषय पर हिंदी में भी सलमान/रानी/प्रीती को लेकर एक फिल्म बनी थी. लेकिन वो इतनी फूहड़ थी कि उसका जिक्र भी करना फिजूल है. एक अच्छे विषय का कामयाबी से कचरा किया था उन लोगों ने. ये ऐसी नहीं है.
ये कहानी है यशोदा की. यशोदा महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में रहने वाली विधवा है जिस के पास अपनी इकलौती, अपाहिज बेटी के अलावा कुछ नहीं. अपनी अपाहिज बेटी के इलाज के लिए उसे पैसे चाहिए, जिस की वजह से वो सरोगेट मदर बनने का प्रस्ताव कबूल कर लेती है. उसे सारे कानूनी नुक्ते समझाए जाते हैं. जैसे कि जन्म के बाद बच्चे पर उसका कोई हक नहीं होगा वगैरह वगैरह. मेरी - जो कि असल माँ है - उससे मिलती है और कुछ पैसे उसे दे भी देती है. क्लिनिकल प्रोसेस पूरी हो जाती है और मेरी का बच्चा यशोदा की कोख में पलने लगता है. छठे महीने किये गए एक रूटीन चेक-अप के दौरान पता चलता है कि यशोदा की पहली औलाद की तरह ये बच्चा भी अपाहिज पैदा होगा. बस यहीं से वो घटनाएं शुरू होती है जो मानवी चरित्र के कई सारे पहलूंओं को उजागर करती है और दया, करुणा, ममता, क्रूरता और स्वार्थ जैसी भावनाओं से आपका करीब से परिचय कराती हैं. मेरी बच्चे को लेने से इनकार कर देती है. छठा महिना होने की वजह से एबॉर्शन भी नहीं हो सकता. वो यशोदा को कुछ पैसे देती है और 'बच्चे को अनाथ-आश्रम में दे देना' ये सलाह देती हुई विदेश लौट जाती है.
वक्त पर बच्चे का जन्म होता है. खुशकिस्मती से बच्चा बिल्कुल स्वस्थ है. यशोदा उसका नाम माधव रखती है और उसकी परवरिश में जुट जाती है. एक अंग्रेज़ बच्चा ( नीली आँखों वाला, बेहद गोरा ), एक मराठी परिवार में पलने लगता है. ज़िन्दगी ढर्रे पर लौट आती है. माधव और यशोदा के बीच माँ-बेटे का ऐसा अटूट बंधन बंध चुका है जिस को तोडना लगभग नामुमकिन है अब. माधव चार साल का होता है और..... और मेरी लौट आती है. बच्चे पर हक जताती हुई. उसके साथ किस्मत ने बहुत भद्दा मज़ाक किया है. वो खुद उम्र भर माँ नहीं बन सकती. माधव ही उसकी इकलौती संतान है इस दुनिया में. कानूनन माधव पर मेरी का हक़ है. लेकिन उसे पाला पोसा यशोदा ने है. बेशुमार मुहब्बत यशोदा ने दी है. तो बच्चे पर हक़ किस का ? एक कानूनी लड़ाई की भूमिका बंध चुकी है लेकिन भोली-भाली यशोदा क्या जानें कानूनी दांवपेंच ? वो बच्चे को मेरी को सौंप देने का फैसला करती है. उसके बाद जो होता है उससे आपकी आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकती. क्या माधव मेरी के साथ, अपने जैसे लोगों में रह पाया ? क्या माधव के बिना यशोदा जिंदा रह सकी ? सवालों के जवाब जानने के लिए ये फिल्म जरुर देखिये.
फिल्म की जान इसके किरदारों का अभिनय और समृद्धि पोरे का काबिले-तारीफ़ निर्देशन है. इतना संवेदनशील विषय होने के बावजूद फिल्म कहीं भी मेलोड्रामेटिक नहीं हुई. समृद्धि पोरे खुद एक वकील रही हैं और अपनी वकालत के दरमियान ऐसे ही एक केस से उनका वास्ता पड़ा था. अपने अनुभव को फिल्म में बेहद खूबसूरती से ढाला है उन्होंने. ये उनकी पहली फिल्म है और कहना न होगा कि वो अपने पहले ही प्रयास में भरपूर सफल रही हैं. यूँ तो फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा काम किया है लेकिन ये फिल्म सही मायनों में यशोदा की है. उर्मिला कानिटकर ने यशोदा के किरदार को अक्षरशः जिया है. माधव से उसका लगाव दर्शाते वक्त उसकी आँखें तक बोलती हैं. एक बार जब मेले में माधव खो जाता है उस वक्त उसकी बेचैनी आप खुद भी महसूस कर सकते हैं. जब मेरी माधव को उसके पेट में छोड़कर लौट रही होती है तब उसका आर्तनाद आपको झिंझोड़ देता है और आपको लगता है कि आप खुद वहाँ जा कर मेरी को थप्पड़ लगाए. यशोदा की भूमिका में उससे बढ़िया चयन शायद हो ही नहीं सकता था.
इस फिल्म की एक ख़ास बात ये कि माधव बने बच्चे की भी अपनी एक सच्ची कहानी है. एडन बर्कले नाम का ये बच्चा खुद भी एक सरोगेट चाइल्ड है. जो अमेरिका में अपने माता-पिता के साथ रहता है. एडन के माता पिता जब दूसरे बच्चे की प्राप्ति के लिए भारत आये थे तब समृद्धि पोरे ने उसे पसंद किया इस रोल के लिए. फिर इस बच्चे को सच में ही महाराष्ट्र के एक गाँव में रखा गया जहाँ उसे मराठी सिखाई गई. इसीलिए फिल्म में इस बच्चे द्वारा बोले गए संवाद हकीकत के करीब लगते हैं और पूरी फिल्म को एक विश्वसनीयता प्राप्त होती है. समृद्धि पोरे ने खुद भी एक रोल किया है फिल्म में जो छोटा भले ही हो लेकिन प्रभावशाली है.
इस फिल्म ने उस वर्ष का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था. उस वक्त की तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा ये फिल्म बराक ओबामा को भी दिखाई गई थी.
एक अनोखे विषय को लेकर इतनी बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए समृद्धि जी का जितना अभिनन्दन किया जाए वो कम है. अच्छी फिल्मों के चाहने वालें इस फिल्म को कतई मिस ना करें. अगर भाषा समझ न आये तो सब-टाइटल्स के साथ देखिये. लेकिन देखिये जरुर.
"A child gives birth to a mother" इस टैगलाइन को पूरी तरह सार्थक करती ये फिल्म अपने आप में एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव है. आजमा के देखिएगा.
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