कल एक साहब ने, जो खुद को हिन्दू संस्कृति के रक्षक जैसा कुछ बता रहे थे, मुझ पर ये इल्जाम लगाया कि मैं हिन्दू-विरोधी हूँ. जिस के सबूत में उन्होंने मेरी ठाकुर-पंडित वाली पोस्ट का हवाला दिया. मैंने कहा कि वो तो परसाई जी ने लिखा है. तो बोले, "कौन परसाई ?". कुछ क्षण तो मुझे क्या कहा जाये ये सूझा ही नहीं. फिर समझ में आया कि ये उस किस्म के संस्कृति रक्षक हैं जिन्हें भले ही अपने देश की सभ्यता, साहित्य, कला के बारे के रत्ती भर भी जानकारी ना हो लेकिन मानते ये खुद को महाराणा प्रताप से कम नहीं. खैर, किसी तरह उनसे पीछा छुडाया.
आज सुबह सुबह फेसबुक खोलते ही देखा कि एक इस्लाम के पैरोकार का मेसेज इंतज़ार कर रहा है. कल Awanish जी की पोस्ट पर एक कमेन्ट किया था मैंने जिस में एक से ज्यादा शादियाँ करने की इस्लाम में हासिल छूट का विरोध किया था. उदाहरण दे के बताया था कि कैसे व्यावहारिक ना होते हुए भी ऐसी प्रथायें ढोई जा रही हैं और इन का किस तरह मिस-यूज हो रहा है. उन साहब को इसी पर ऐतराज़ था. कह रहे थे कि मैं इस्लाम को बदनाम कर रही हूँ. मुझे इडियन तस्लीमा नसरीन बोल रहे थे. मेरी तरबियत पर लानत भेज रहे थे. बड़ी मुश्किलों से उन से भी निजात हासिल की.
तो कहने की बात ये कि आज कल हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही गरिया रहे हैं मुझे. इसका क्या मतलब हुआ ? एक मित्र से पूछा तो वो बोलें की तुम खालिस भारतीय बनने की राह पर हो. तो मैं खुश हो जाऊं अब ??? वैसे ये लोग मुझे मिल के कोस रहे हैं जब कि मैं नास्तिक भी नहीं. ऐसी सामूहिक कोसाई तो नास्तिकों की हुआ करती है. मुझ पर ये मेहरबानी काहे भई ?
खैर, जो भी है. फेसबुक का प्रसाद समझ कर ग्रहण कर रही हूँ. और तमाम तरह के धार्मिक/अधार्मिक लोगों से वही कहना चाहती हूँ जो अब्राहम लिंकन ने कहा था,
when i do good, i feel good...
when i do bad, i feel bad...
and that's my Religion.
when i do bad, i feel bad...
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