“अरे कहाँ रह गई ? जल्दी करो भाई । देर हो रही है ।” – जैसे ही दीवानखाने से आती आवाजें तेज़ हुई, सीमा की सांस फूलने लगी ।
‘इस कमबख्त कामवाली को भी यूँ ही वक्त के वक्त आने से मना कर देना था ! पहले से बताती तो जल्दी न उठ जाती मैं ! ऊपर से कुछ कह भी नहीं सकते इन लोगों को । काम छोड़ देने की धमकी ताने रहती है हर वक्त । पराये शहर में कहाँ से ढूंढे नयी कामवाली । और इस उमर में मुझ से भी तो नहीं होता काम ! जरा ज्यादा हिल डुल कर लो तो जिस्म का जर्रा जर्रा दुखने लगता है । शुगर, ब्लड प्रेशर सभी बहुतायत में है । इसीलिए इन लोगों की नाजायज बातें भी नज़रअंदाज़ करनी पड़ती है ।’
यूँ ही सोचती, भुनभुनाती सीमा जल्दी जल्दी टिफन पैक करने लगी । टिफन पैक कर, उसे एक मधुर मुस्कान के साथ पति को सौंप सीमा ने उन्हें ऑफिस के लिए रवाना कर दिया और चैन की एक गहरी सांस ली । अनायास ही उसे वो दिन याद आये जब वो रोजाना ये सब काम किया करती थी । बिना थके,बिना शिकायत किये । कितना कुछ बदल गया इन बीतें सालों में । अभी की बात लगती है जब वो ब्याह कर शैलेश क्षीरसागर, सिविल इंजिनियर साहब के साथ रहने आई थी । दिन, महीने, साल कैसे पंख लगाकर उड़ गए । औलादें हुई, उनकी शादियाँ हुई, जीवन की अर्धशतकीय दहलीज देखते देखते पार कर गई सीमा । बच्चे बड़े हो गए और उड़ गए । लड़की अपने एनआरआई दूल्हे के साथ कनाडा शिफ्ट हो गई । बेटा नौकरी करने बैंगलोर गया, अपनी कलिग के साथ प्रेम-विवाह कर के वहीं सेटल हो गया । सब अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त है, मस्त है। ये बात नहीं कि बच्चे उन्हें भूल गए या प्रेम नहीं करते । अभी पिछले साल उसके पचासवे जन्म-दिन को कितने धूम-धडाके से मनाया था सब ने । सभी इकट्ठे हुए थे । कितनी जिद कर रही थी श्रेया कि मेरे साथ चलो । उसका पति सुहास भी उत्सुक था अपनी सास को ले जाने के लिए । कह रहा था माँ की कमी पूरी हो जायेगी । ‘और कुछ नहीं तो दो-चार महीनों के लिए ही चली चलो’, श्रेया ने कितनी आजिजी से कहा था । उसको मना करते वक्त बहुत अपराधी सा फील हुआ था सीमा को । आलोक तो हर दूसरे दिन फ़ोन कर के जिद करता रहता है कि माँ अब आ जाओ । मेरे पास ही रहो । लेकिन पति को छोड़ कर कैसे जाए ? उन की नौकरी के अभी चार साल बचे हैं । वो पूरे हो जाए तब सोचेंगे क्या करना है ? बच्चों के साथ रहना है या बरेली में इन के पैतृक मकान में अपने अंतिम वर्ष बिताने है । उस घर में, जहाँ से उसका वैवाहिक जीवन शुरू हुआ था । जहाँ श्रेया ने जन्म लिया था । पति सरकारी नौकरी में होने की वजह से इन बीते वर्षों में लगभग आधा भारत भ्रमण कर लिया था सीमा ने । महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, आसाम, ओरिसा कहाँ कहाँ नहीं रहे वो । अब ये आखिरी पोस्टिंग है । मोक्ष नगरी बनारस में । फिर इसके बाद पति की आत्मा नौकरी के जंजाल से मुक्त हो जायेगी और जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो जाएगा ।
अपने लिए चाय का एक बड़ा सा कप बनाकर सीमा छत पर आ गई । कंपनी की तरफ से मिलने वाले फ्लैट को मना कर के ये अलग मकान किराए पर लेने का फैसला उचित ही साबित हुआ था । शहर की भीड़ भाड़ से जरा परे यहाँ अमूमन शांति रहा करती थी । अभी ठीक से बस रही इस कालोनी में शोर शराबा ना के बराबर था । गली के मोड़ पर दुर्गा मंदिर में सुबह शाम होने वाली आरती ही इसका अपवाद थी । तब खूब जोर जोर से आवाजें आती । कभी कभी वो छत पर चढ़कर आरती की गहमागहमी देखा करती थी । लयबद्ध रूप से गाये जाने वाले आरती के बोल उसे समझ तो नहीं आते इतनी दूर से पर कानों को सुहाने लगते । सीमा का मन आजकल धार्मिक गतिविधियों में ज्यादा ही लगता था । उसने अपने घर में भी एक छोटा सा कोना देवालय में तब्दील किया हुआ था । रोजाना गणेश जी की पूजा करना उसने अपनी दिनचर्या में शामिल किया हुआ था । दुर्गा मंदिर में सुबह-शाम खूब भीड़ रहती । आस पास के लोग नियम से आते । रौनक लगी रहती । इधर नामलेवा भीड़ बस दो ही स्थानों पर दिखाई पड़ती । एक मंदिर में और एक जरा दूर लगनेवाले बाज़ार में । बाकि दिन भर इस कालोनी में सन्नाटा अपनी चादर फैलाए विद्यमान रहता । सीमा ने चाय का एक घूँट भरा और मंदिर की तरफ नज़र दौड़ाई । वहां कुछ हलचल ना पाकर कुर्सी खींच कर बैठ गई और नीचे गली में झाँकने लगी ।
सीमा के दिन यूँ ही बेमकसद गुजरा करते थे । करने के लिए कुछ भी तो नहीं होता था । घर में टीवी था लेकिन उसे टीवी से सख्त अरुचि थी । किताबों में रूचि थी लेकिन अब चश्मा पहनकर भी किताब पढना काफी मशक्कत भरा काम साबित होता था । जरा सा पढ़ते ही आँखों में पानी आने लगता । सर में खूब दर्द होता । बतियाने के लिए भी कोई नहीं था । नौकरानी सुबह शाम आती । जल्दी जल्दी काम निपटाकर भाग जाती । ईश्वर भक्ति में भी कोई कितना समय व्यतित कर सकता है ? तो सीमा अपना पहाड़ जैसा नीरस दिन ज्यादातर लेट कर ही काटा करती थी । या संगीत सुनकर । रफ़ी, लता, आशा, किशोर कुमार सब कुछ था उसके पास । बजता ही रहता । संगीत के अलावा जो उसका पसंदीदा टाइमपास था वो था छत पर जाकर बैठना और आते जाते लोगों का बेमकसद निरीक्षण करना । यूँ छत पर बैठे बैठे ही उसने कालोनी के ज्यादातर लोगों को परख लिया था और उनके बारे में अपनी अच्छी-बुरी राय, उन से बिना मिले ही बना ली थी । इन सब में उसकी पारखी निगाह का मरकज़ एक स्पेशल किरदार हुआ करता था । ‘पगली माई ।’
‘पगली माई’ एक चालीसी के पेटे में पहुंची हुई पागल औरत थी । पिछले कुछ महीनों से वो इलाके में नज़र आ रही थी । वो एक बहुत ही ज्यादा मैली सलवार कमीज पहने रहते थी जिसका ओरिजिनल रंग शायद हरा रहा होगा लेकिन अब धुलाई को तरसते तरसते उसका रंग बंद पड़े कुओं में जमने वाली काई सा हो गया था । उस पर एक लाल रंग का बहुत मोटी ऊन का स्वेटर जो वो किसी भी मौसम में नहीं उतारती थी । नहाने को शायद जुर्म समझती थी । पानी को तरसते बाल उलझ कर यूँ खिचड़ी बन गए थे के अगर कोई उन्हें सुलझाने का इरादा करता तो खुद उलझ कर रह जाता । बदन पर मैल की मोटी परत । शरीर से उठने वाले बदबू के झोंके असह्य होते । कुल मिलाकर उसका रूप घृणास्पद था और लोगबाग उससे चार हाथ बचकर ही निकला करते । अमूमन वो मंदिर के अहाते में ही सो जाती । दिन भर इधर उधर भटकती फिरती । लेकिन आरती के दोनों वक्त पाबंदी से मंदिर में उपस्थित रहती । पुजारी जी भले आदमी थे । उसे झिड़कते नहीं । बने रहने देते । पगली के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था । कौन है ? कहाँ से आई है ? इस हालत में कैसे पहुंची ? कुछ भी नहीं । कई लोगों ने उससे पूछने की कोशिश की थी लेकिन वो बोल के न देती । बस घूरे जाती सवाल करने वाले को । कभी कोई जवाब भी देती तो ऐसा बेतुका होता कि पूछने वाला कुछ और पूछने का इरादा ही त्याग देता । सीमा को उसके बारे में ज़बरदस्त कौतुहूल था । वो एक संवेदनशील महिला थी । उसको चिंता होती कि न जाने कहाँ से आई है पागल, कैसे इस अंजाम तक पहुंची, न जाने इसके साथ क्या हुआ होगा वगैरह वगैरह । सीमा उसे बड़ी गौर से देखा करती । न जाने उसे क्यूँ लगता कि ये पागल हरगिज़ नहीं है । फिर इस स्वांग का मतलब ? उसका कौतुहूल उसे शांत नहीं बैठने देता । साथ ही उसका ममतामयी ह्रदय उसे पगली के किसी काम आने को उकसाता ।
पगली कभी किसी से कुछ मांगती नहीं थी । लोग खुद ही उसे खाना-वाना दिया करते थे । इधर पिछले कुछ दिनों से सीमा उसे दोपहर का खाना पाबंदी से देने लगी थी । शुरू शुरू में जब वो दोपहर के वक्त नहीं नज़र आती तो सीमा पड़ोस के किसी बच्चे को भेजकर उसे ढूंढवाती और उसे खाना खिलवाती । धीरे धीरे पगली को भी ये सिस्टम समझ आने लगा । अब वो खुद ही दोपहर को आने लगी । लेकिन बरामदे से आगे एक कदम न बढ़ाती । वही बैठ कर खाना खाती । सीमा आरामकुर्सी में बैठी उसे देखती रहती । कभी कुछ पूछती तो पगली यूँ टुकुर टुकुर देखती जैसे उस के आर-पार देख रही हो । यूँ जाहिर करती जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही हो । तंग आकर सीमा ही चुप हो जाती । करीब से देखने पर सीमा ने महसूस किया कि उसकी उम्र उतनी भी नहीं है जितने की वो दिखा करती थी । वो तो उसकी बेटी श्रेया से कुछ ही साल बड़ी होगी बस । सीमा के अन्दर कुछ टूटता उसकी आपबीती जानने को । वो उसके लिए कुछ करना चाहती थी । उसकी ज़िन्दगी आसान बनाना चाहती थी । इतनी कम उम्र में ऐसी विपदा की उसका संवेदनशील मन कल्पना भी नहीं कर सकता था । पता नहीं क्या क्या बीती होगी बेचारी पर । वो तो उसे अपने पास भी रख लेती बशर्ते पगली को मंजूर होता । लेकिन उसे समझाए तो आखिर कैसे ? एक बार सीमा ने जज्बात में आकर उसके सर पर हाथ फेर दिया था तो वो ऐसी चिहुंकी थी जैसे किसी ने खंजर मार दिया हो । फिर खाना फेंक इतनी जोर से भागी थी जैसे एक पल भी वहां ठहरने से अनर्थ हो जाता । उसके बाद तीन-चार दिन वो आई ही नहीं । सीमा का मन अपराधबोध और आश्चर्य के मिले जुले अहसास से उलझता रहा । फिर एक दिन खुद ही आ गई । यूँ जैसे कुछ हुआ ही न हो ।
सीमा को उसे पगली माई कहना बेतहाशा खटकता था । ‘अरे इसकी कोई उमर है जो इसे माई कहा जाए’, वो कहती । लेकिन उसका नाम भी तो उसे पता नहीं था । वो खुद तो क्या बताती, एक दिन सीमा ने ही उसका नामकरण कर दिया । श्रावणी । वो नाम जो मूलतः श्रेया का रखा जाना था लेकिन श्रेया के दादा-दादी को पसंद नहीं आया था । वही नाम पगली को देकर उसे एक तरह की अंदरूनी ख़ुशी महसूस हुई । उसने पगली को बता भी दिया कि आज से तेरा नाम श्रावणी है । उसने कुछ प्रतिक्रिया तो नहीं दी लेकिन पता नहीं क्यूँ सीमा को लगा कि उसकी आँखों के किनारों पर कोई चमकती सी लकीर देखी हो उसने । तो क्या वो रोई थी ? क्या उसे इस नामकरण का और उसके पीछे की भावना का मतलब समझ आ गया था ? सीमा फिर से हैरान थी ।
धीरे धीरे सीमा एक तरह से उसकी मुहाफ़िज़ बनने लगी थी । कोई उसके बारे में कुछ कहता तो उससे उलझ पड़ती । तकरीबन सारी कालोनी को सीमा का ये पगली-प्रेम पता चल गया था । दबी जुबान में उसका मज़ाक भी उड़ाया जाता । लेकिन सीमा को परवाह नहीं थी । वो तो बस श्रावणी के लिए चिंतित रहती। उसका बस चलता तो वो उसे विधिवत रूप से गोद ले लेती । एक बार किसी पडोसन ने मज़ाक में सीमा को कह दिया कि अपनी बेटी को जरा नहलाने का भी कष्ट कीजिये । सड़ांध मारती है वो । सीमा को ये बात तीर की तरह चुभी । ऐसा नहीं था के उसने कभी इस बारे में सोचा न हो या इसके लिए प्रयास न किये हो । उसने कई बार श्रावणी से इशारों में नहाने के लिए और कपडे बदलने के लिए कहा था । हर बार वो बड़ी सहजता से उसके इशारों को नज़रअंदाज़ कर गई थी । एक बार उसने जबरन उसपर पानी उंडेलना चाहा था तो ऐसा धक्का देकर भागी थी कि सीमा चारो खाने चित्त जा पड़ी थी । लेकिन वो सीमा के अपने प्रयास थे । अब किसी के ताना देने पर उसे एक जिद सी हो गई । उसने इरादा कर लिया कि श्रावणी को नहलाकर ही रहेगी । भले ही इसके लिए जोर-ज़बरदस्ती ही क्यूँ न करनी पड़े ।
पिछले कुछ दिनों से पगली उसके घर में दाखिल होने लगी थी । अब शायद वो उसपर मुकम्मल भरोसा करने लगी थी । इशारों में कोई काम बताने पर वो भी कर दिया करती थी । जैसे कोई चीज़ उठाकर देना, बर्तन किचन में पहुंचाना आदि आदि । उस दिन सीमा ने ठान लिया था कि आज इसे नहलाना ही है । उसके आने से पहले ही एक खाली बाल्टी सीमा ने मुख्यद्वार के पास लाकर रख दी थी । उसके आने के कुछ देर बाद उसने इशारे से उससे कहा कि इस बाल्टी को ले जाकर बाथरूम में रख दे । पगली किसी भी हमले की आशंका से अनजान बाल्टी लेकर बाथरूम में घुस गई । पीछे पीछे फुर्ती से सीमा भी बाथरूम में घुस आई और उसने दरवाजा बंद कर दिया । अकस्मात् हुए इस घटनाक्रम से पगली कुछ सहम सी गई ।
“आज तुझे नहलाकर ही रहूंगी करमजली ।” – सीमा ने घोषणा की ।
पगली असहज नज़र आने लगी । सीमा ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ से उसका स्वेटर उतारने लगी । पगली प्रतिरोध करने लगी । कुछ क्षणों के लिए उस छोटे से बाथरूम में जंग सी छिड़ गई । सीमा ने उसको नहलाने का दृढ निश्चय किया हुआ था और पगली ने शायद ना नहाने की भीष्म-प्रतिज्ञा की हुई थी । हारना कोई भी नहीं चाहता था । सीमा के मुकाबले पगली में जिस्मानी ताकत ज्यादा थी । जल्द ही मुकाबला बराबरी का ना रहा । सीमा की पकड़ उस पर से ढीली होने लगी । खुद को कमज़ोर पड़ता देख सीमा तिलमिलाई । पड़ोसन के ताने यादकर के उसमे एक नई शक्ति का संचार हुआ । उसने फिर से जोर लगाया । इस बार अपने से ज्यादा ताकतवर पगली पर वो हावी होने लगी । पगली बौखलाई । जब उसे लगने लगा कि अब बचकर निकलना नामुमकिन है तो वो पूरी ताकत से चिल्लाई,
“छोड़ दीजिये मुझे ।”
उसकी करारी, आक्रोश भरी आवाज़ सीमा पर वज्रपात सी टूटी । हैरानी के झटके से सीमा लड़खड़ाई और आँखे फाड़ फाड़ कर पगली को देखने लगी । उसके गिने चुने तीन शब्दों का प्रभाव इतना ज्यादा था कि सीमा कितने ही क्षण अवाक सी, मुंह खोले पगली को ताकती रही । फिर हडबडाकर बोली,
“तो..... तो तुम बोल सकती हो ?”
“हाँ, बोल भी सकती हूँ, सुन भीसकती हूँ और समझ भी सकती हूँ ।” – पगली ने धीमी लेकिन संतुलित आवाज़ में उत्तर दिया ।
“फिर ये स्वांग क्यूँ ?” – चिल्लाने की अपनी इच्छा पर सीमा ने बड़ी मुश्किल से काबू पाया ।
“कोई भी काम अकारण नहीं होता माँ जी ।” – उसकी आवाज स्पष्ट और लहजा गंभीर था ।
“क्या कारण है ? मुझे बताओ ।” – सीमा ने याचना सी की ।
“क्या करेंगी आप जानकर ?” – उसने प्रतिप्रश्न फेंका ।
“सुनूंगी । तुम्हारा दर्द अपने ह्रदय में उतार कर सुनूंगी । महसूस करुँगी । तुम्हारी दुश्वारी का हल ना भी खोज सकी तो भी तुम्हारे दुःख में शिरकत करुँगी । तुम जानती हो मैंने तुम्हें हमेशा अपनी बच्ची की तरह देखा है । अपनी माँ से अपना दुःख न छुपाओ लाडो । कह डालों । सबकुछ बता दो मुझे । इतने दिन मैंने जो तुमसे निस्वार्थ प्रेम किया है तुम्हे उसका वास्ता । मुझसे कुछ न छुपाओ । बता दो सब । मैं सुनना चाहती हूँ । मैं तुम्हारे से............” – अपनी बात पूरी करते करते सीमा का गला रुंध गया । शब्द निकलने मुश्किल हो गए ।
और फिर पगली के सब्र का बाँध भी टूट गया । वो जहाँ थी वहीं बैठ गई और फूट फूट कर रोने लगी । सीमा ने उसे खुद से चिपटा लिया और दोनों जार जार रोई । फिर सीमा ने ही पहले खुद को संभाला । उसे उठाकर बाथरूम से बाहर ले आई । पानी पिलाया और सोफे पर बिठा दिया । बहुत देर तक कोई कुछ न बोला । फिर सीमा ने ही शुरुआत की । उससे खोद खोद कर उसके बारे में पूछा । बदले में जो कहानी सीमा को सुनने को मिली उसने उसे हिलाकर रख दिया । पुरुषप्रधान समाज की वो बीभत्स हकीकत उसके सामने उजागर हुई जिसने उसके पूरे जिस्म में एक सिहरन सी पैदा कर दी । एक सुखवस्तु जीवन जीती आई सीमा की कल्पना से भी परे था वो यथार्थ जो उस पगली ने भोगा था । भोग रही थी । उसकी आपबीती ने सीमा की इस धारणा को ही जड़ से हिला दिया कि इस दुनिया में कभी न कभी इन्साफ जरुर मिलता है । जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है । इस पगली को तारने तो कोई भगवान नहीं पहुंचा । इसे तो कोई इन्साफ ना मिला । जो कुछ सीमा को सुनने को मिला उससे सीमा पर शब्द दर शब्द उसकी आपबीती का आइना चुंधियाता गया ।
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पगली का नाम ज्योति था । मथुरा जिले के एक छोटे से गाँव में पैदा हुई थी वो । कुदरत की पहली और शायद सबसे बड़ी मार उसपर उसके पैदा होते ही पड़ गई थी । उसे जन्म देकर उसकी माँ दुनिया से रवाना हो गई। पूरा खानदान उसे मनहूस, शापित और न जाने क्या क्या समझने लगा । सिवाय उसके बाप के । पूरे खानदान की मुखालफत सह कर उसने अपनी बेटी का पालन-पोषण जारी रखा । जब बेटी से खानदानियों की नफरत बेतहाशा बढ़ गई तो गाँव ही छोड़ दिया । आगरा आकर रहने लगा । मेहनत-मजदूरी कर के बेटी को बड़ा किया । धीरे धीरे दिन भी सुधरे । उसने छोटा सा व्यवसाय शुरू किया था जो ठीक चल पड़ा । दो लोगों के पहनने-खाने लायक खर्च करने के बाद भी बहुत कुछ बच जाता था । बेटी को दसवी तक पढ़ाया उसने । बेटी सुन्दर थी । बाप ने बड़े चाव से उसके लिए रिश्ता ढूँढा । बरसों मेहनत कर के उसने बहुत कुछ जमा कररखा था । वो सब कुछ बेटी-दामाद को सौंप कर वो जैसे कृतार्थ हो गया । दामाद कमाऊ शख्स था, कोई नशा नहीं करता था, एक भाई के अलावा उसके परिवार में और कोई भी नहीं था । ना सास न नन्द । एक बाप की निगाह में ये सर्वोत्तम रिश्ता था । शादी हो गई और बेटी के सुख के दिनों का कोटा जैसे ख़त्म हो गया । नयी नवेली शादी के शुरूआती दिन तो ठीक गुजरे फिर धीरे धीरे असलियत उभरकर सामने आने लगी । पति नशा नहीं करता था क्यूँ कि उसे जुए का नशा था । कमाता ठीक था लेकिन सब जुए में उड़ा भी देता था । जो बचता था उसे अपनी प्रेमिका के चरणों में अर्पण कर आता था । रामबाग में एक औरत थी जिसे उसके पति ने छोड़ रखा था और इसने अपना रखा था । उसी के यहाँ पड़ा रहता । पत्नी से उसके चर्चे रस ले लेकर करता । ज्योति की मानसिक हालत अस्थिर रहने लगी । कई बार बाप से कहने का सोचा लेकिन उसके इत्मीनान को ठेस पहुंचाने का हौसला नहीं हुआ । कुछ दिन यूँ ही चलता रहा । फिर उम्मीद की एक किरण जगी । वो प्रेग्नेंट हो गई । आनेवाली औलाद से उम्मीद बंधी कि शायद वो उसके आने वाले दिन आसान करने में कोई मदद कर दे । पति का रवैया भी जरा बदला । अच्छे दिनों की आहट महसूस होने लगी । लेकिन ईश्वर शायद उसे सारे दुःख इसी जनम में देना चाहता था । कोई छोटी सी, निरर्थक सी अंदरूनी बीमारी हुई और बच्चा जाता रहा । साथ ही डॉक्टरों ने घोषणा कर दी कि अब वो कभी भी माँ नहीं बन पाएगी । उसपर तो जैसे आसमान ही टूट पड़ा । अच्छी ज़िन्दगी की एकमात्र आस भी छीन गई । पति का व्यवहार तेज़ी से बदला । अब तो जैसे उसकी कोई औकात ही ना रही । बात बेबात हाथ उठा देता । और तो और देवर भी आँखें दिखाने लगा । ज़िन्दगी नर्क बन गई।
ऐसे में एक दिन पति परमेश्वर उस औरत को अपने घर ही ले आया । हमेशा के लिए । जिस दिन उस औरत ने घर में कदम रखा ज्योति ने ज़हर खा लिया । वक्त रहते एक पड़ोसन को पता चला तो उसे अस्पताल पहुंचाया गया । जान तो बच गई लेकिन सारा किस्सा उसके पिता को पता चल गया । उस दिन अस्पताल में उसका हाथ थामे बैठे पिता ने उससे वो वचन ले लिया जिससे उसका सरेंडर कर देने का आखिरी रास्ता भी बंद हुआ । पिता ने कहा कि उसने अपने पूरे खानदान को त्याग कर, उनसे हमेशा के लिए सम्बन्ध तोड़ कर उसे जिंदा रखा था । सिर्फ उसकी ज़िन्दगी के लिए उसने सब कुछ छोड़ दिया । और अगर उसने वही जीवन मिटा दिया तो ये उसके पूरे संघर्ष को मिटटी में मिलाने जैसा होगा । बेतहाशा रोते हुए उसने अपनी बेटी से अपने उम्र भर की मुसाफिरी के बदले उसकी खुद की ज़िन्दगी मांगी । अपने सर पर हाथ रखवाकर उसने कसम दिलवा दी कि वो कभी भी आत्महत्या करने की सोचेगी तक नहीं । अपने इकलौते हमदर्द की, अपने जन्मदाता की उस करुण पुकार को वो दरकिनार नहीं कर सकी और वचन दे बैठी । आनेवाले वक्त में वही वचन – जो पिता ने उसकी बेहतरी का सोच के उससे लिया था – उसके लिए श्राप बन गया ।
घर लौटी तो ज़िन्दगी पहले से ज्यादा मुश्किल बन गई । पति के साथ साथ उस औरत को भी झेलना असम्भव हो गया था । किसी तरह दिन काटती रही । उधर बाप बेटी के ग़म में घुल घुल कर तीन महीनों के अन्दर अन्दर ख़त्म हो गया । उसका इकलौता सहारा भी उससे छीन गया । फिर अचानक से देवर की निगाहें भी बदली । भाई द्वारा त्यागी गई भाभी अब उसे आसानी से हाथ लग सकने वाली स्त्री लगने लगी । पहले नज़रें गुस्ताख हुई, फिर जुबान और फिर स्पर्श मानीखेज हुए । और फिर एक रात उसने उसे दबोच लिया । ज्योति ने चीख चीख कर मोहल्ला इकठ्ठा कर लिया । देवर की लोगों द्वारा सब के सामने पिटाई की गई और उसकी पति द्वारा अकेले में । उसका कहना था कि उसने शोर मचाकर उसके घर की इज्जत को तार तार किया था । ज्योति से पलट कर ये नहीं कहा गया कि पत्नी के होते किसी और को अपने साथ रखने से क्या इज्जत नहीं घटती ? लेकिन और मार के डर से वो चुप ही रही । पिटती रही । लेकिन एक बात उसके पति ने ऐसी कह दी जो ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित हुआ । वो बोला कि तू मेरे तो किसी काम की नहीं रही उसी के काम आ जा । वो शब्द सुनकर उसका रोम रोम नफरत से जल उठा । उसने हाथ आया पतीला उसके सर पर दे मारा और सिर्फ पहने हुए कपड़ों में ही घर छोड़ दिया । यूँ उसने एक राक्षस के चंगुल से निकलने के लिए राक्षसों से भरी पड़ी, जहन्नुम से बदतर दुनिया में खुद को झोंक दिया ।
वहां से निकल कर वो एक सहेली की शरण में पहुंची, जिसने उसे दिल्ली में एक घर में कामवाली की नौकरी लगवा देने की पेशकश की । इस शहर में उसे वैसे भी नहीं रहना था । उसने झट पेशकश स्वीकार ली । फिर अगले ही रोज़ दिल्ली आ गई । न्यू फ्रेंड्स कालोनी में था उसका अगला बसेरा । वो दो रिटायर्ड पति-पत्नी थे जिनके बच्चे विदेश में सेटल्ड थे । ज्यादा काम नहीं होता था। आंटी-अंकल दोनों ही अच्छे लगे । उसको बेटा कह कर बोलते । नौकरानी जैसा बिलकुल फील नहीं होने देते । ज़िन्दगी में एक ठहराव आने की आस बंध गई । लेकिन आस ही बंधी, ठहराव आया नहीं । एक दिन भरी दुपहरी में बेटा बेटा बोलने वाले अंकल द्वारा उस पर आगे दोहराई जाने वाली लम्बी श्रृंखला का पहला बलात्कार किया गया । आंटी किसी काम से बाहर गई हुई थी । अंकल ने उसे कोल्ड-ड्रिंक में मिलाकर कुछ पिला दिया और अपनी हवस शांत कर ली । जब वो होश में आई तब तक उजड़ चुकी थी । अंकल ने उसे पहले समझाया कि इसमें कोई गलत बात नहीं है । अगर सहयोग करोगी तो फायदे में रहोगी । उसका चीखना-चिल्लाना बंद ना होने पर धमकियों पर उतर आये । उसने एक न सुनी और सीधे पुलिस स्टेशन पहुँच गई । और इस तरह सफेदपोश भेडिये से छूटकर वर्दी वाले भेडियों में पहुँच गई । उसके पहुँचने से पहले ही फ़ोन पहुँच चुका था । समर्थ लोगों का सामर्थ्य उसके और इन्साफ के बीच ठोस दीवार बन कर खड़ा हो गया । सिर्फ इन्साफ से ही वंचित की जाती तो गनीमत थी । दरोगा ने और उसके मातहतों ने थाने के पीछे वाले कमरे में पूरी रात उसे रौंदा । कई बार । बार बार । बेहोशी में डूबती-उतराती वो लाश की मानिंद पड़ी रही । दूसरे दिन पूरा दिन उसे बंद कर के रखा गया । फिर शाम को चुपके से भगा दिया गया । छोड़ने से पहले एक से एक भयंकर धमकियां देना नहीं भूले । वहां से वो निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पहुंची । हफ्ता भर उसने वहां काटा ।
फिर एक दिन न जाने क्या सूझी कि स्टेशन पहुँच गई और जो पहली ट्रेन दिखी उसमे सवार हो गई । ट्रेन मुंबई जा रही थी । जिसका कोई न हो उसके लिए सारे शहर एक से ही होते है । ट्रेन में उसे एक ऐसी महिला मिली जिसने उसका दुःख कुरेद कुरेद कर पूछा । जरा सी हमदर्दी पाकर इसने सब बता दिया । वो नेक औरत इससे ज्यादा रोई । कुल जहान को कोसते हुए उसने ज्योति को पापड बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम लगवा देने का भरोसा दिलाया । अच्छाई पर से और भगवान पर से उठने लगा भरोसा थोडा थोडा लौट आया । वो बेहिचक उसके साथ मुंबई के बदनाम इलाके कामाठीपुरा आ गई । और यूँ उसकी एक नई किस्म की बरबादी से मुठभेड़ हुई । यहाँ आकर पता चला कि वो नेक औरत तो एक चकले की संचालक है और मुसीबत की मारी लड़कियों को बहला-फुसला कर इस नर्क में दाखिल करवाने में उसे महारत हासिल है । वो खूब तडपी, रोई, चीखी-चिल्लाई लेकिन इन बातों के अभ्यस्त लोगों द्वारा उसकी एक न सुनी गई । हाँ, इतना जरुर हुआ कि नेक औरत ने उसे धमकाने की जगह समझाने का रास्ता अपनाया । रोजाना वो उसे बंद किये हुए कमरे में आती और खूब दुनियादारी समझाकर जाती। पेशे को खुदमुख्तार होने का जरिया बताती । अपने आप को कैश कर लेने की सलाह देती। उदाहरण दे के समझाती कि कैसे अकेली औरत को मर्द जात चौपाल का हुक्का समझ लेते हैं । जब लुटना ही है तो क्यूँ न इसकी कीमत वसूली जाए । वो टूटने के कगार पर थी । लेकिन इससे पहले की वो हामी भरती उस महिला के सब्र का बांध टूट गया । उस रात उसे तीन दानव से लगने वाले गुंडों के हाथ सौंपा गया । उन दरिंदों ने औरत के शरीर पर मुमकिन हर अत्याचार उसपर आजमाया । जहन्नुम की आग में झुलसकर भी वो मरी नहीं । शायद पिता को दिया वचन कुछ ज्यादा ही ताकतवर था ।
सुबह होते होते वो लोग उसे कल से धंधे पर बैठने की ताकीद देते हुए पटक गए । उसने बची खुची हिम्मत समेटी और तीसरी मंजिल से पिछवाड़े में छलांग लगा दी । वहां मौजूद एक गैरेज की छत से टकराई और धडाम से सड़क पर आ गिरी । तुरंत पकड़ो पकड़ो का शोर मच गया । खून रीसते जिस्म की परवाह किये बगैर वो जान छुड़ा कर भागी । पता नहीं ये उसकी अच्छी किस्मत मानी जायेगी या बुरी लेकिन उस वक्त वो उनसे बच निकलने में कामयाब रही । शरीर पर, ख़ास तौर से पैर पर बहुत चोट आई थी । लेकिन दवा दारु का हाल न था । वहां से निकल भागी तो पुणे पहुंची । पुणे रेलवे स्टेशन के बाहर हफ्ते भर तक पड़ी रही । वहां एक धर्मार्थ संस्था द्वारा गरीबों को रोजाना खाना बांटा जाता । उसके सहारे उसने अपने ज़ख्म ठीक होने के दिन काट लिए । जब वो चलने फिरने के काबिल हुई तो लोगों की भूखी नज़रें फिर से उसे घेरने लगी । वो घबराकर उस शहर से भी भागी । पहले की तरह ही जो ट्रेन उपलब्ध हुई उसमे सवार हो गई । यूँ इलाहाबाद पहुंची । वहां पहुंचकर भी वही हाल रहा । उसकी जात औकात पहचानने तक सब ठीक रहता । जैसे ही लोगों को उसके बेसहारा होने का पता चलता एक भोगने लायक जिस्म आसानी से हासिल होने के ख्वाब उनकी आँखों में चमकने लगते। एक रात सीआरपीएफ का एक जवान उसे उठाकर जंक यार्ड में ले गया । अपनी तृष्णा शांत करने के बाद बोला कि जरा नहा-धो लिया कर । बदबू आती है तेरे में से । यूँ ही गन्दी कुतिया जैसी रही तो कोई हाथ भी नहीं लगाएगा । अपमान करने के इरादे से बोले गए उन शब्दों ने जैसे उसपर एक नया रास्ता खोल दिया ।
यूँ ही रही तो कोई हाथ भी नहीं लगाएगा ।
यूँ ही रही तो कोई हाथ भी नहीं लगाएगा ।
उसके दिमाग में बजता ही रहा । बजता ही रहा । और उस दिन से उसने नहाना ही त्याग दिया । शरीर पर मैल की मोटी मोटी परत चढ़ जाने दी । बालों को जटाओं में तब्दील हो जाने दिया । और इस तरह हवस भरी नज़रों पर परदा डालने में वो कामयाब रही । जिस तिस द्वारा नोंच-खसोट लिए जाने की चिंता ख़त्म हुई । ईलाहाबाद से वो यहाँ बनारस आ गई । इस मंदिर में अहाते में उसे सुकून मिलता है । बाप के वचन से बंधी ज़िन्दगी को उसने आखिर तक ढोने का इरादा कर लिया है ।
वो सांस लेने के लिए रुकी । उसने नज़र उठाकर सीमा की तरफ देखा । सीमा का चेहरा आंसुओं से तर था । पूरी देह थरथरा रही थी । पगली हौले से उठी । सीमा की तरफ देख कर बोली,
“ये गंदे कपडे, ये मैला शरीर,ये पागलपन मुझे उन भूखे भेडियों से बचाये रखता है माँ जी । इस को त्याग दूँगी तो फिर से एक बार भोग्य वस्तू बन जाउंगी । बाहर की दुनिया में मौजूद हर मर्द मुझे मंदिर का प्रसाद समझ कर हजम कर जाना चाहेगा । क्या आप चाहती हैं मैं फिर से उस नर्क का नज़ारा करूँ ? ये मेरा ‘रक्षा-कवच’ है माँ जी । इसको भेद कर किसी की गन्दी निगाह मेरे तक नहीं पहुँच पाती । इसे कैसे त्याग दूं ? मंदिर की कथाओं में सुना है कि कर्ण ने अपने कवच कुंडल दे दिए थे तो फलस्वरूप उसे मृत्यु प्राप्त हुई थी । मैं अपना ये कवच दे दूं तो मुझे मौत से ज्यादा भयंकर पुरस्कार मिलेगा । क्या आप ये चाहती है ?”
वो सवाल कर रही थी और सीमा शर्म से गड़े जा रही थी । उसको अपने कमरे में मौजूद हर चीज़ घूमती महसूस हो रही थी । गुस्सा, शर्म, आक्रोश के मिलेजुले अहसासों के तले सीमा का दम घुट रहा था । कुछ कहते नहीं बन रहा था । उसे समझ में नहीं आ रहा था के पहाड़ जैसे इस दर्द को कौन से शब्द सांत्वना देने में कारगर होंगे । अपने सुखवस्तु जीवन से उसे पहली बार घिन आई । इस तरह कि ज़िन्दगी की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी । ये तो उसकी सोच से भी परे का यथार्थ था । कैसे मुमकिन था ये इसी दुनिया में जहाँ ईश्वर की बनाई हुई सबसे बेहतरीन प्रजाति मनुष्य का राज था ? पहली बार उसका ईश्वरीय न्याय में विश्वास डोलने लगा । पहली बार उसे ईश्वर से शिकायत हुई ।
पगली धीमे धीमे क़दमों से घर के बाहर चली गई । सीमा यूँ ही बैठी रही । सोच सोच के उसका दिमाग फटने को हुआ । उसका मन जोर जोर से चिल्लाने को चाह रहा था लेकिन हलक से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी । अपने, अपनी बेटी के पूरे जीवन पर उसने नज़र दौड़ाई और उसे खुद से भी शर्म आने लगी । कैसे इस सभ्य समाज में किसी को इतना कुछ झेलने पर मजबूर किया जा सकता है ? क्या मजलूमों के लिए कोई ठिकाना नहीं ? क्या सरकारों का, समाज का कोई दायित्व नहीं ? ये एक ज्योति उससे टकराई थी । इस सड चुके समाज की हवस की बलि चढ़ चुकी ऐसी और कितनी ज्योतियां थी ? सवाल, सवाल और सवाल । । सीमा को घबराहट होने लगी ।
बगल के घर में टीवी पर प्रधानमन्त्री जी घोषणा कर रहे थे कि अगले सत्र में वो ‘मजबूत’ महिला सुरक्षा विधेयक पेश करेंगे जिसके तहत लावारिस महिलाओं के रहने और रोजगार का प्रबंध किया जाएगा ।
देवालय में चौबीसों घंटे जलते रहने वाले दिए की ज्योति फडफडाकर बुझ गई । यूँ लगा जैसे भगवान को भी आखिर शर्म आ गई थी ।
और सीमा...........सीमा थी कि घुटनों में सर दिए रोये जा रही थी । रोये जा रही थी ।
--------- ज़ारा.
28/04/2014.