गले से शब को लगाया सहर के धोके में..
हम आ गए है खुद अपनी नज़र के धोके में...
इधर है आग का दरिया, उधर लहू की नदी,
कहां पहुंच गए ये हम रहबर के धोके में...
कभी चले थे जहां से उसी मकाम पर है,
थे दायरों में रवां हम सफ़र के धोके में...
फरेब-ए-हुस्न-ए-नज़र है के सादगी दिल की,
हमेशा संग चुने है गुहर के धोके में...
अभी तो जुल्मत-ए-शब का तलिस्म बाकी है,
अभी ना शमा बुझाओ सहर के धोके में...
फिजायें अजनबी, बेगाना सूरते 'अजान'
कहां ये आ गये हम अपने घर के धोके में...
------------- अजान हुसैन.
हम आ गए है खुद अपनी नज़र के धोके में...
इधर है आग का दरिया, उधर लहू की नदी,
कहां पहुंच गए ये हम रहबर के धोके में...
कभी चले थे जहां से उसी मकाम पर है,
थे दायरों में रवां हम सफ़र के धोके में...
फरेब-ए-हुस्न-ए-नज़र है के सादगी दिल की,
हमेशा संग चुने है गुहर के धोके में...
अभी तो जुल्मत-ए-शब का तलिस्म बाकी है,
अभी ना शमा बुझाओ सहर के धोके में...
फिजायें अजनबी, बेगाना सूरते 'अजान'
कहां ये आ गये हम अपने घर के धोके में...
------------- अजान हुसैन.
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