Wednesday, December 18, 2013

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे गलत थे जवाब क्या देते

------- मुनीर नियाजी.

क्या मेरे सिवा शहर में मासूम है सारे

हर जुर्म मेरी जात से मंसूब हुआ है,
क्या मेरे सिवा शहर में मासूम है सारे....??

-------- अज्ञात.

रीढविहीन लोगों में आत्मसम्मान

ये चुनावी मौसम भी जो ना करवाये वो थोडा है...
बताओ तो, दुनिया के चौधरी को धमका दिया...
रीढविहीन लोगों में आत्मसम्मान की ऐसी भावना देख कर आँखें भर आई....

Sunday, December 15, 2013

इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है

"हिस्ट्री इज अ क्रॉनिकल ऑफ़ क्राइमस, फॉलीज़ एंड मिसफॉर्चयूनस...!"

उर्दू तर्जुमा :-
"तारीख़ जराइम, हिमाक़तों और बदकिस्मती की फ़ेहरिस्त का दूसरा नाम है...!"

हिंदी अनुवाद :-
"इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है..."

----------------- बशारत मंज़िल से ( मंज़ूर एहतेशाम )

Saturday, December 14, 2013

बशारत मंजिल - मंजूर एहतेशाम

पिछले दिनों एक किताब पढ़ी. मंजूर एहतेशाम की 'बशारत मंजिल.' शुरू शुरू में इस किताब को पढ़ते वक्त थोड़ी बोरियत महसूस हुई. पर जैसा कि मेरी आदत है कि मैं किसी भी किताब को अधूरा नहीं छोडती, मैंने उसे पढना जारी रखा. थोडा आगे जाकर मेरी दिलचस्पी जागृत हुई, थोडा और आगे पढ़कर मुझे उसमे बहुत आनंद आने लगा और किताब ख़त्म होते होते ये किताब मेरी पसंदीदा किताबों की लिस्ट में काफी उंचे स्थान पर विराजमान हो गई. एक बेहतरीन अनुभव रहा इस किताब को पढना.

'बशारत मंजिल' कहानी है एक मुस्लिम खानदान कि तीन से ज्यादा पीढ़ियों के जीवन सफ़र की. ये कहानी है संजीदा अली सोज नाम के एक ऐसे इंसान की जो शायर था, गांधी-भक्त था और साथ ही साथ एक तरक्कीपसंद मुसलमान भी था. ये कहानी है एक ऐसे बड़े भाई की जो अपने छोटे भाई की मकबूलियत को बर्दाश्त ना कर सका और उससे ताजिंदगी नफरत करता रहा. ये कहानी है मुल्ला किफायतुल्लाह की जिनका मानना था कि मजहब एक साथ सलामती से रहने के बजाय दूसरों को ख़त्म करने के बहानों का नाम हो गया है और जब किताबें पढने की बजाय पूजी जाने लगे तो गड़बड़ लाजमी है. ये कहानी दरअसल कहानी है ही नहीं. ये दस्तावेज है उन जिंदगियों का जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई.

ये किताब सच, कल्पना और इतिहास का ऐसा अनोखा मिश्रण है जिसकी सराहना किये बगैर नहीं रहा जा सकता. इस उपन्यास का कालखंड सन 1900 से लेकर 1947 तक का है. ये वो दौर था जब पूरा भारत एक संघर्ष के और बदलाव के दौर से गुजर रहा था. उस ऐतिहासिक कालखंड को हमारी कहानी के किरदारों की नजर से देखना एक दिलचस्प अनुभव है. न जाने कितनी ही ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं के सन्दर्भ आपको उस दौर के भारत को करीब से समझने में मदद करते है. फिर चाहे वो वलिउल्लाही तहरीक हो, खिलाफत आन्दोलन हो, स्वराज की मांग हो, मुस्लिम लीग की गतिविधियां हो या गांधी जी का भारतीय राजनीति के पटल पर उभरना हो. एक बहुत ही विस्तृत कैनवास पर उकेरी गई खूबसूरत तस्वीर की तरह ये किताब आपकी संवेदनाओं को झकझोर देती है.

एक मुस्लिम खानदान का इतनी बारीकी से चित्रण है इसमें की मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है. वो रिवायतें, वो आदतें, वो तहजीबें और वो हिमाकतें. सब कुछ मौजूद है इस उपन्यास में. भोपाल और दिल्ली शहर का इतनी खूबसूरती से जिक्र है की आप खुद को वहां मौजूद पाते हो. मुझे नहीं पता की ये लेखक की अपनी कहानी है या नहीं. पर लेखक की भाषा और कथानक पर जो पकड़ है उसके जादू से आप बच नहीं सकते. कहानी कहने के मामले में इस उपन्यास को एक नया प्रयोग कहा जा सकता है. और इस प्रयोग को इतनी सफाई से अमल में लाया गया है कि पता ही नहीं चलता कब हकीकत और कल्पना एक दूसरे में घुल मिल गए.

लेखक की धारदार लेखनी एक ही मुद्दे को कई अलग अलग नजरियों से दिखाने में कामयाब रही है. मंजूर एहतेशाम कई विचारधाराओं को अपने किरदारों के माध्यम से एक समान बेरहमी से काटते चले जाते हैं. फिर चाहे वो खोखला राष्ट्रवाद हो, अंधी मजहब परस्ती हो या बेतुका कम्युनिज्म.. सबकी खबर ली है उन्होंने. एक जगह बिरजू नाम का एक दलित किरदार कहता है,
"शर्म से पानी पानी होना एक लक्जरी है जिसे ऊँची ज़ात वाले ही अफोर्ड कर सकते है. कभी सोचा है आपने, इस मुल्क की मिटटी में ही ये तासीर है कि बराबरी का सबक लेकर इस्लाम भी आया, तो अशरफ़, अजलफ़ और अरज़ल में बंट गया."
तो दूसरी तरफ एक और किरदार 'जेहाद का जवाब धर्मयुद्ध' वाली सोच को फटकारता है. इसी तरह कई जगह मंजूर एहतेशाम साहब अतिवाद को धुत्कारते हुए नजर आते है.

इस कहानी के किरदार मेरे ज़हन में रच बस से गए है. अमतुल कबीर, जहांआरा बेगम, बंदा अली खान, अमीना बेगम, गुलबदन, मौलवी किफायतुल्ल्लाह, फरीदा, बिल्लो, बब्बो, ग़जल और ख़ास तौर से जनाब संजीदा अली सोज... हर एक का चरित्रचित्रण इतनी गहराई से किया गया है कि आपके सामने उस किरदार की तस्वीर सजीव हो उठती है. वो दौर, वो हालात, वो जज्बात आप महसूस कर सकते हो और यही लेखक की सबसे बड़ी जीत है.

मुझे हैरानी है की इस किताब को साहित्यिक जगत में कोई स्थान क्यूँ नहीं मिल पाया. इस किताब का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना. या ये मेरी अल्प जानकारी का नतीजा है..? जो भी हो, मेरा मानना है की ये किताब must read तो है ही साथ ही सहेज कर रखे जाने लायक भी है. कम से कम मैं तो इसे अभी कई कई बार पढूंगी.

झूठ ने इस खूबी से अपनी जड़ें मजबूत कर ली

झूठ ने इस खूबी से अपनी जड़ें मजबूत कर ली,
बड़ा मुश्किल हुआ फिर सच को सच साबित करना...

----- ज़ारा.

Wednesday, December 11, 2013

रौशन मिजाज लोगों का, क्या अजब मुकद्दर है

मेरी एक बहुत ही पसंदीदा नज्म उन लोगों को समर्पित जो बिना कोई शोर शराबा किये अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन किये जाते हैं. जो बिना किसी स्वार्थ के लोगों में खुशियां बांटते रहते है और बदले में कुछ नहीं मांगते. उनके जज्बे को सलाम...!!!

रौशन मिजाज लोगों का,
क्या अजब मुकद्दर है..
जिंदगी के रास्ते में आने वाले काँटों को,
राह से हटाने में...
एक एक तिनके से,
आशियां बनाने में..
खुशबूएं पकड़ने में,
गुलिस्तां सजाने में,
उमर काट देते हैं...
और अपने हिस्से के फूल बांट देते हैं...
कैसी कैसी ख्वाहिश को,
क़त्ल करते जाते है..
दरगुजर के गुलशन में,
अब्र बनके रहते है..
सब्र के समंदर में,
कश्तियां चलाते है..

ये नहीं के उनको इस,
रोज-ओ-शब की कोशिश का,
कुछ सिला नहीं मिलता...
मरने वाली आसों का,
खून बहा नहीं मिलता...
ज़िन्दगी के दामन में,
जिस कदर भी खुशियां हैं,
सब ही हाथ आती है..
सब ही मिल भी जाती है..
वक्त पर नहीं मिलती
वक्त पर नहीं आती..
यानी उनको मेहनत का,
अज्र मिल तो जाता है..
लेकिन इस तरह जैसे,
कर्ज की रकम कोई
किश्त किश्त हो जाये..
अस्ल जो इबारत हो,
पस-ए-नविश्त हो जाये...
फस्ल-ए-गुल के आखिर में,
फूल उनके खिलते है...
उनके आंगन में सूरज,
देर से निकलते है...

उनके आंगन में सूरज देर से निकलते है....!!!

----------------- अफ़सोस के साथ ये भी अज्ञात.

Tuesday, December 10, 2013

बेख्वाब सआअतों का का परस्तार कौन है

बेख्वाब सआअतों का का परस्तार कौन है ?
इतनी उदास रात में बेदार कौन है ?

सब कश्तियां जलाके चले साहिलों से हम,
अब तुम को क्या बताये के उस पार कौन है ?

ये फैसला तो शायद वक्त भी ना कर सके,
सच कौन बोलता है अदाकार कौन है ?

( और ये आखिरी शेर आज के दौर की राजनीति को समर्पित )

किसको है ये फ़िक्र के कबीले का क्या हुआ,
सब इस पे लड़ रहे है के सरदार कौन है ?

--------- अज्ञात.

जरा सी देर को आये थे ख्वाब आँखों में

जरा सी देर को आये थे ख्वाब आँखों में 
फिर उसके बाद मुसलसल अजाब आँखों में
वो जिसकी निसबत से रौशन था सारा वजूद,
खटक रहा है वही आफताब आँखों में...

--------- अज्ञात.

Sunday, December 8, 2013

ईलाका तेरा, धमाका मेरा

मुख्यमंत्री जी जिस भी सीट से कहे वहीं से लडूंगा और जीत के भी दिखाऊंगा.

--------- अरविन्द केजरीवाल. ( कुछ महीनों पहले )

आज उसे साबित भी करके दिखा दिया. नई दिल्ली सीट से मुख्यमंत्री जी को ( उफ्फ भूतपूर्व मुख्यमंत्री जी को ) बड़े मार्जिन से हराया. भारतीय राजनीति में ये भी एक दुर्लभ उदाहरण रहा कि किसी आम आदमी ने तीन बार की मुख्यमंत्री को चैलेंज दे के हराया. मज़ा आ गया.

पता नहीं क्यूँ एक डायलॉग याद आ रहा है....

""ईलाका तेरा... धमाका मेरा...""


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अगर भाजपा सरकार बना लेती है तो कोई बात ही नहीं लेकिन हंग हाउस की स्थिति में दुबारा चुनाव तय है. जनता ने आप को परिवर्तन के लिए वोट दिया है. वो लोग जहीन है, इस बात को समझते है. वो लोग खुद की भ्रूणहत्या नहीं करेंगे. अगर अपने स्टैंड पर डटे रहे तो कल इनका है.

इस बात से सहमत की केजरीवाल साहब ने अभी कुछ किया नहीं है.. पर एक बात जरुर की है. आज उस बन्दे की वजह से विधायकों की खरीद-फरोख्त करने का खेल दिल्ली में नहीं हो पा रहा. ये भी एक शुभ संकेत है की नेता लोग अब समझने लगे है की जनता को जवाब भी देना पड़ सकता है. 

आम आदमी पार्टी और दिल्लीवालों को बधाई

सवा सौ साल पुरानी पार्टी को उसके गढ़ में धुल चटाकर आम आदमी पार्टी ने साबित कर दिया कि अगर विकल्प हो तो जनता उसे अपनाने में नहीं हिचकेगी. ये भारतीय राजनीति में निस्संदेह एक नई शुरुआत है. ये सही मायनों में और कई पैमानों पर लोकतंत्र की जीत है. ये एक सबक है दो प्रमुख पार्टियों के लिए कि वो जनता को ग्रांटेड लेना छोड़ दे. जब भी, जहां भी मौका मिलेगा लोग उन्हें उखाड़ फेकेंगे. काश ऐसे विकल्प सारे भारत में उपलब्ध हो जाए.

खैर, फिलहाल आम आदमी पार्टी और दिल्लीवालों को बधाई...

p.s. मुझे नहीं पता था की मेरी तुच्छ सी अपील को इतना सीरियसली लिया जाएगा. शुक्र है मेरे एक मित्र के कहे अनुसार मुझे 'शर्मिंदा' नहीं होना पड़ा.


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हम भाग्यशाली है की भारत जैसे देश में रहते है. जहां हम अपने रहनुमा बेबाकी से चुन सकते है. चुनाव धांधली, प्रलोभन, जातीय समीकरण आदि आदि मुद्दों के होने बावजूद भी अगर देश का प्रबुद्ध माना जाने वाला तबका एक साल भर पुरानी पार्टी को दिल खोल के वोट करता है तो ये शुभ संकेत है. और मैं फिर दोहराती हूँ  कि लोकतंत्र की जीत है.

सरकार बनाने की पोजीशन में होने के बावजूद भी ये लोग कह रहे है की हम जनमत का सम्मान करेंगे. ये अच्छी शुरुआत तो यकीनन है. बाकी जो आपकी शंकाएं हैं वो सही भी हो सकती है पर ये अगर मगर की बातें है. ये सब हम इन्हें परखने के बाद कहें तो बेहतर. वैसे भी अगर ये नहीं तो कौन वाला सवाल भी है ही.

रहा सवाल मोदी का तो उसके बारे में सर धुनने का क्या फायदा..? जो खिलाफ है वो रहेंगे ही. जो समर्थक है वो तो हैं ही. जो होगा सामने आ जाएगा. कल के चुनावों से मेरा भरोसा बढ़ा है लोगों में.
 

Saturday, December 7, 2013

मंदिर मस्जिद

एक नास्तिक मंदिर तोड़ने की बात करता है. लोग उसे गरियाते हैं, उसको भला बुरा कहते है और आगे बढ़ जाते हैं. कोई सीरियसली नहीं लेता.
एक नास्तिक मस्जिद तोड़ने की बात करता है. लोग उसे गरियाते हैं, उसको भला बुरा कहते है और आगे बढ़ जाते हैं. कोई सीरियसली नहीं लेता.

एक मुस्लिम मंदिर तोड़ने की बात करता है. तुरंत हिन्दू अस्मिता जाग जाती है. साले मुल्ले की हिम्मत कैसे हुई ? जिस आदमी ने महीनों से मंदिर की शक्ल भी ना देखी हो वो भी आस्तीनें चढ़ाकर मैदान में कूद जाता है. भगाओ इन म्लेच्छों को बाहर. आतंकी साले. देश का सत्यानास कर रखा है. एक तरह का कम्पटीशन शुरू हो जाता है कि कौन इस शख्स को सबसे ज्यादा गन्दी और यूनिक गाली देगा. एक पागल का प्रलाप पूरे मजहब को परखने का पैमाना बन जाता है. औरंगजेब, बाबर, जिन्ना, लादेन और पता नहीं किन किन मरे हुए लोगों के किये की सफाई जिंदा लोगों से मांगी जाती है. और अंतिम निष्कर्ष ये निकलता है कि ये लोग वफादार हो ही नहीं सकते. इन्हें तो दूर ही रखो.

एक हिन्दू मस्जिद तोड़ने की बात करता है. तुरंत इस्लाम खतरे में आ जाता है. काफिर की इतनी जुर्रत..? ये दोजखी कीड़ा खुद को समझता क्या है ? इसका तो वजूद मिटा देंगे हम. वो शख्स जिसने जुमे के अलावा कभी मस्जिद में कदम ना रखा हो वो भी मस्जिद का सबसे बड़ा मुहाफिज बनकर जंग में कूद जाता है. खूब तरीके से अगले की माँ बहनों से पारिवारिक रिश्ते स्थापित किये जाते है. ये भूल कर की पब्लिक फोरम पर गाली-गलौच कर के हम अपने ही संस्कार उजागर कर रहे हैं. अगले की आस्थाओं का भरपूर मजाक उड़ाकर और मारने, काटने, पीटने की करोड़ों धमकियां जारी करने के बाद अंतिम निष्कर्ष ये निकलता है कि ये कौम किसी की सगी नहीं हो सकती. इन्हें तो दूर ही रखो.

अजीब सर्कस है यार..!!

नफरत का बीज बोकर हम लोग मुहब्बत कि फसल की उम्मीद कैसे कर सकते है ? वही तो पायेंगे जो देंगे. गाली देंगे तो गाली ही वापस आएगी. लेकिन फूल देंगे तो यक़ीनन गुलदस्ता आएगा. इत्ती सी बात समझने के लिए कोई आलिम फाजिल होना पड़ता है ? हम अपने अपने धर्म की न जाने कितनी बातें खोज निकालते है जो हमारी नफरत को जस्टिफाई करती है. पर जो बेसिक शिक्षा है वो हम किस सफाई से नजरअंदाज़ कर जाते है. हर धर्मग्रन्थ की जो बुनियादी सीख है वो यही है की प्राणिमात्र से प्रेम करो. इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं है की कुत्ते-बिल्लियों को गले लगाओं और इंसानों के गले काट दो. जब तक हम इंसान को धर्म/रंग/नस्ल आदि आदि चश्मे से देखना बंद नहीं कर देते तब तक हमारी इबादतों का, हमारी प्रार्थनाओं का कोई मोल नहीं. फिर भले ही पूरी दुनिया को मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों से पाट दो. अगर हमारे दिल में उस परमात्मा की करुणा का कोई अंश नहीं बचा है तो ये तय मानिए हम उसके द्वारा निर्मित सबसे बेहतरीन कृति से एक निकृष्ट प्रजाति में तब्दील हो गए है. और ये हमारा ही किया धरा है. इसे हमें ही सुधारना होगा.

"मंदिर की सीढ़ियों पे बैठके, मस्जिद से आती अजां सुनी मैंने
जहां नफरतों का वजूद ना हो, ऐसी दुनिया की तस्वीर बुनी मैंने
वो रास्ता जिस पे चल के, हुआ इंसानियत का कत्लेआम,
छोड़ उस रहगुजर को, राह अमन-ओ-मुहब्बत की चुनी मैंने."

Friday, December 6, 2013

कायरता

ये जानते हुए भी कि क्या सही है, उसे ना करना कायरता है.

------ कन्फ्यूशियस.

हम करे बात दलीलों से तो रद होती है

हम करे बात दलीलों से तो रद होती है
उसके होठों की ख़ामोशी भी सनद होती है

अपनी आवाज़ के पत्थर भी ना उस तक पहुंचे,
उसकी आँखों के इशारे में भी जद होती है

सांस लेते हुए इंसान भी है लाशों की तरह,
अब धड़कते हुए दिल की भी लहद होती है

जिस की गर्दन में है फंदा वहीं इंसा है बड़ा,
सूलियों से यहां पैमाइश-ए कद होती है

कुछ ना कहने से भी छीन जाता हैं ऐजाज़े सुखन,
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है

सर से गुजरा भी चला जाता है पानी की तरह,
जानता भी है कि बर्दाश्त की हद होती है

मैंने हर सांस में काटी है मुज़फ्फर सदियां,
मेरे इमरोज़ में तारीख अबद होती है

~~~~~~~ मुज़फ्फर वारसी.

Thursday, December 5, 2013

मम्मो : फिल्म समीक्षा

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'... 

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है. 

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का. 

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा. 

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'...

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है.

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का.

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा.
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Wednesday, December 4, 2013

होठों पे हंसी आंख में तारों की लड़ी है

होठों पे हंसी आंख में तारों की लड़ी है
वहशत बड़े दिलचस्प दो-राहे पे खड़ी है

दिल रस्म-ओ-राह-ए-शौक से मानूस तो हो ले
तकमील-ए-तमन्ना के लिए उम्र पड़ी है

चाहा भी अगर हम ने तेरी बज्म से उठना
महसूस हुआ पांव में जंजीर पड़ी है

आवारा-ओ-रूसवा ही सही हम मंजिल-ए-शब में
इक सुबह-ए-बहारां से मगर आंख लड़ी है

क्या नक्श अभी देखिए होते हैं नुमायां
हालात के चेहरे से जरा गर्द झड़ी है

कुछ देर किसी जुल्फ के साए में ठहर जायें
‘काबिल’ गम-ए-दौरां की अभी धूप कड़ी है

--------- काबिल अजमेरी.

Tuesday, December 3, 2013

लेट्स मेक अ राईट चॉइस गाइज

दिल्लीवालो....

कल 4 दिसम्बर है. अपनी अपनी झाड़ू तैयार रखियेगा. पूरे देश में आप ही हो जिन्हें कोई विकल्प मिला है इस बार. उसे अपनाकर भारतीय राजनीति का चेहरा बदल दो. पूरे देश को बेलगाम होकर रौंदती आई मुख्य धारा की पार्टियों को सबक सिखाने का मौका है आप लोगों के पास. इसे गंवा न देना. इस चुनाव से बहुत बड़ा बदलाव भले ही ना आये पर देश को एक दिशा-निर्देश तो यकीनन मिलेगा. भारतीय राजनीति में विश्वास खो चुके हम जैसे लोग शायद अपने अपने वोट की कीमत समझने लगे. दिखा दो इन राजनेताओं को कि हम लोग अगर ठान ले तो आप लोगों के तिलिस्म को तोड़ने की हिम्मत भी रखते है. और ये भी बता दो की हम हर बार बेवक़ूफ़ नहीं बनने वाले..

हो सकता है की आम आदमी पार्टी में कमियां हो. होंगी ही. पर एक चांस उनका सरासर बनता है. जिन लोगों ने एक साल से भी कम समय में देश की दो प्रमुख पार्टियों की सांस फूला दी उनमे कुछ तो बात होगी. आजमाने में हर्ज ही क्या है..? ख़ास तौर से तब जब बाकियों को हम कई कई बार आजमा चुके है और खता खा चुके है. आम आदमी पार्टी एक संजीदा पहल है. उसके हाथ मजबूत करने से ही हमारी आवाज मुखर होने के चांसेस ज्यादा है. और कुछ नहीं तो ये लोग हमें सीधे तौर पर जवाबदेय तो होंगे.

तो दिल्लीवालों,
हैरी पॉटर बनने का वक्त आ गया है. हो जाओ सवार जादुई झाड़ू पर.प्रोफ़ेसर डम्बलडोर ने कहा था कि It is our choices that show us who we truly are, far more than our abilities. सो लेट्स मेक अ राईट चॉइस गाइज.

और हां,
बदलाव बदलाव का नारा लगाने के बाद, लगाते रहने के बाद जब सचमुच बदलाव का क्षण आ गया है उस वक्त अगर हम उससे मुंह मोडेंगे तो मुझे दुःख के साथ यही कहना पड़ेगा की जस्टिस काटजू सही थे.

तमंचे पे डिस्को

कौन कहता है के 'शॉटगन' सिन्हा साहब की अब कहीं नहीं चलती.. बॉलीवुड में तो खूब चलती है. अगर ऐसा ना होता तो हर तीसरी फिल्म में बिटिया रानी नज़र आती भला...?? कोई भी म्यूजिक चैनल लगा के सिर्फ दस मिनट देख लीजिये. अगर उतने समय में आपको सोनाक्षी के दर्शन नहीं हुए तो समझ लीजियेगा की आप फ्रेंच या अमेरिकन चैनल देख रहे है. जब देखो तब मैडम किसी ना किसी चैनल पर जलवाअफरोज हुई होती है. कहीं तमंचे पे डिस्को कर रही है तो कहीं किसी से गन्दी बात कर रही है. और तो और वाहियात कपडे पहन कर जन्माष्टमी पर मटकी भी फोड़ आई मैडम..

जब ये मोहतरमा आई थी तब इन्होने ऐलान किया था की इन्हें थप्पड़ से डर नहीं लगता. अब तमंचे से भी नहीं लगता. इसी तरह तरक्की करती रही तो वो दिन दूर नहीं जब राइफल, हथगोले, तोप और तो और परमाणु बम से भी इम्यून हो जायेंगी. ऐसी स्थिति में क्या इनका उपयोग राष्ट्रीय सीमा सुरक्षा दल के लिए किया जा सकता है ये भी एक विचारणीय मुद्दा होगा. रक्षा विशेषज्ञ कृपया अध्ययन करें.

एक और बात.. इनके डांस स्टेप्स जो भी कोरियोग्राफ करता है क्या उसके खिलाफ मानसिक उत्पीडन का मुकदमा किया जा सकता है इसका भी पता लगाना होगा. मेरी मित्रता सूची में अगर कोई काबिल वकील हो तो कृपया मदद कीजिये. राऊडी राठौड में इनका डांस देखकर ही पता चलता है की अक्षय के इतने भयानक अभिनय के पीछे वजह क्या थी.. इनकी सोहबत में रहकर मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया होगा खिलाड़ी कुमार का.

वैसे एक अन्दर की बात बताती चलूं की लूटेरा हमें पसंद आई थी. पर उसका जिक्र नहीं करुँगी आज. आज तो रजत शर्मा के स्टाइल का मुकदमा चलेगा मैडम पर. मेरी लिस्ट में जो भी मित्र सोनाक्षी के प्रशंसक है वो कृपया Dheeraj बनाएं रखे. और खुद को ये यकीन दिलाने की कोशिश करें की मैडम का हर वक्त टीवी पर दिखाई देना उनके लोकप्रिय होने की निशानी है. बाकी बुराई करना हम फुरसती फेसबूकीयों का धर्म है. और हम उसे निभाते रहेंगे. और हमें आता ही क्या है.?
— feeling मैं अमिताभ तो नहीं पर कभी कभी मेरे दिल में भी ख़याल आ ही जाता है... :p.