ख़ुशी की बात है या दुःख का मंज़र देख सकती हूं
तेरी आवाज़ का चेहरा मैं छूकर देख सकती हूं...
अभी तेरे लबों पे जिक्र-ए-फस्ल-ए-गुल नहीं आया,
मगर इक फूल खिलता अपने अन्दर देख सकती हूं...
किनारा ढूंढने की चाह तक मुझमे नहीं होगी,
मैं अपने गिर्द इक ऐसा समंदर देख सकती हूं...
विसाल-ओ-हिज्र अपने यकसां हैं, वो मंजर हैं चाहत में,
मैं आंखे बंद करके तुझको अक्सर देख सकती हूं....
अभी तेरे सिवा दुनिया भी हैं मौजूद इस दिल में,
मैं खुद को किस तरह तेरे बराबर देख सकती हूं...
--------------------------- परवीन शाकिर.
तेरी आवाज़ का चेहरा मैं छूकर देख सकती हूं...
अभी तेरे लबों पे जिक्र-ए-फस्ल-ए-गुल नहीं आया,
मगर इक फूल खिलता अपने अन्दर देख सकती हूं...
किनारा ढूंढने की चाह तक मुझमे नहीं होगी,
मैं अपने गिर्द इक ऐसा समंदर देख सकती हूं...
विसाल-ओ-हिज्र अपने यकसां हैं, वो मंजर हैं चाहत में,
मैं आंखे बंद करके तुझको अक्सर देख सकती हूं....
अभी तेरे सिवा दुनिया भी हैं मौजूद इस दिल में,
मैं खुद को किस तरह तेरे बराबर देख सकती हूं...
--------------------------- परवीन शाकिर.
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