समझते थे मगर फिर भी न रखी दूरियां हमने
चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने...
कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये उम्र भर काग़ज़ के फूल और पत्तियां हमने
यूँ ही घुट-घुट के मर जाना हमें मंज़ूर था लेकिन
किसी कमज़र्फ पर ज़ाहिर न की मजबूरियां हमने
हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ 'वाली'
ज़बां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियां हमने
---------वाली आसी
चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने...
कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये उम्र भर काग़ज़ के फूल और पत्तियां हमने
यूँ ही घुट-घुट के मर जाना हमें मंज़ूर था लेकिन
किसी कमज़र्फ पर ज़ाहिर न की मजबूरियां हमने
हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ 'वाली'
ज़बां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियां हमने
---------वाली आसी
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