Thursday, October 9, 2014

इतिहास : सहायक या मारक ?

इतिहास हमेशा से एक दिलचस्प विषय रहा है. अपने पूर्वजों के, अपनी पिछली पीढ़ियों के, अपने मुल्क के इतिहास को जानना हम सब को भाता है. उनकी जीवनशैली, उनके विचार, उनकी हरकतें और हिमाकतें हमेशा हमारे लिए उत्सुकता का विषय रही है. साथ ही हम ये भी जानना चाहते हैं कि जिस समाज में हम आज रह रहे हैं वो किन किन बदलावों से होकर गुजरा. लेकिन आजकल इतिहास या ऐतिहासिक तथ्य एक और काम में भी इस्तेमाल किये जाने लगे हैं. नफरत फैलाने के. और इसी वजह से आज कल इतिहास से डर लगने लगा है.

आज कल ये आम देखा जाने लगा है कि इतिहास के किसी एक सियाह पक्ष को उठाकर, उसे नजीर बना कर एक पूरी कौम/बिरादरी/समूह पर सवालों की बमबारी की जाती है. उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है. ये कुछ कुछ यूँ है जैसे कृष्ण के मटकी तोड़ने के लिए अखिलेश यादव से जवाबतलबी की जाए. अगर औरंगजेब ने मंदिर तोड़े थे तो तोड़े होंगे भई.. इस मुल्क का आम मुसलमान क्या करे ? उसने तो नहीं तोड़े.. और ना ही कभी समर्थन किया. फिर वो क्यूँ सफाई दे ? वो भी उसी समाज की देन है जिसके तुम हो. उतने ही भले-बुरे हैं जितने तुम. तो उनका मूल्यांकन उनकी हरकतों से करो ना कि सैंकड़ो साल पहले मर खप चुके किसी शासक की हरकतों को ध्यान में रखकर. किसने क्या किया इसका जिम्मेदार कोई और कैसे हो सकता है ? इसी तरह हिन्दू माइथोलॉजी में वर्णित किसी प्रसंग या घटना के आधार पर समस्त हिन्दू समाज को कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता. इस देश का बहुसंख्य हिन्दू समाज सहिष्णु है और इसी सहिष्णुता की वजह से इस मुल्क का सामाजिक ताना-बाना मजबूत बना हुआ है. इतिहास से ढूंढ ढूंढ कर निकाले गए ऐसे तथ्य जो हमारे 'वाद' को ( जो कोई भी वो हो ) सही ठहराने में सहायक होते हैं अमूमन नफरत फैलाने के ही काम आते हैं.

मुझे लगता था कि इतिहास अपनी भूलों को सुधारने के, आत्मचिंतन के काम आने वाली चीज़ है. इतिहास वो जरिया है जिससे हम अपने पूर्वजों की जिंदगियों में झांके, उनके अच्छे कामों से सीख ले और उनकी गलतियों को दोहराने से बचे. मगर ये बहुत कम होता है. नकारात्मक मानसिकता के शिकार हम लोग इतिहास में भी नेगेटिविटी ढूंढते हैं. ऐसे प्रसंग खोजते हैं जिनको इस्तेमाल कर अपने विरोधियों की बोलती बंद कर सके. उन्हें शर्मिंदा कर सके. और अपने हमखयालों के खून में उबाल पैदा कर सके. इतिहास का ये उपयोग ( दुरुपयोग ) बेहद चिंता का विषय है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े इतिहास को ही ले लीजिये. उस वक्त भी भारत में अलग अलग विचारधाराएं काम कर रही थी. कोई नरम दल, कोई गरम दल, कोई डायरेक्ट एक्शन में विश्वास रखने वाला तो कोई समन्वयवादी. लेकिन उन सब का उद्देश्य अंत पन्त एक ही था. आज़ादी. लेकिन आज के हालात देख लीजिये. आज उस कालखंड को ऐसे पेश किया जाता है जैसे ये सभी लोग आपस में दुश्मन थे. गांधी और आंबेडकर दुश्मन थे, नेहरु और पटेल की नहीं पटती थी, नेताजी को गांधीजी से बैर था आदि आदि. जब कि ये सब लोग एक दूसरे का खूब सम्मान करते थे. विचारधाराएं बेशक भिन्न हो लेकिन इनका आखिरी मकसद एक ही था. लेकिन हमने इन्हें भी बाँट लिया. किसी को कांग्रेसी ले उड़ा तो किसी पर भाजपाइयों ने कब्ज़ा जमा लिया तो किसी पर दलितों का एकाधिकार हो गया. दो अक्टूबर अब गांधी जयंती नहीं बल्कि 'गांधी को गाली दो प्रतियोगिता' ज्यादा लगने लगा है. हमें सिर्फ नकारात्मकता खोजने की एक खतरनाक आदत पड़ चुकी है. और ये नकारात्मकता जब इतिहास के पन्नों से निकल कर आती है तो और भी खतरनाक हो जाती है. क्यूँ कि इसकी सत्यता जांचने का आम जनमानस के पास कोई जरिया नहीं.

इन हालातों में मुझे अपनी प्रिय किताब बशारत मंजिल से एक वाक्य याद आ जाता है,

"हिस्ट्री इज अ क्रॉनिकल ऑफ़ क्राइमस, फॉलीज़ एंड मिसफॉर्चयूनस...!"  ( "इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है...")

ये विषय बेहद विस्तृत है, बहुआयामी है. अपने सीमित ज्ञान के दायरे में रह कर इसके सभी पहलूओं को छू पाना मेरे बस की बात नहीं. लेकिन मुझे उम्मीद है कि अपना नजरिया, अपनी चिंता मैंने ढंग से व्यक्त कर दी है. माना के इतिहास का अपना महत्त्व है लेकिन वर्तमान ज्यादा मायने रखता है. अगर हम अपने इतिहास का इस्तेमाल अपना वर्तमान बिगाड़ने में कर रहे हैं तो ऐसे इतिहास से दूरी ही भली. बेहतर है कि दिमाग की स्लेट को साफ़ कर के एक नया इतिहास लिखा जाये जिसमे प्रेम की बहुतायत हो, सद्चरित्रता के किस्से हो, अमन का पैगाम हो..

1 comment:

  1. Zaara bibi, agar kutch log itihas ko tod-marod me pesh kartey hain to iska yeah matlab nahi ki itihas ki seekhon ko nakaar diya jaye.

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