Wednesday, February 5, 2014

शिप ऑफ़ थिसियस

मेरी पिछली पोस्ट में मैंने 2013 की तीन अच्छी फिल्मों के बारे में पूछा था. उस पोस्ट पे हासिल कमेंट्स में एक अच्छी और एक बुरी बात नज़र आई मुझे. अच्छी बात ये कि किसी ने भी कृष 3, धूम 3 या चेन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्मों का नाम नहीं लिया. जिसके लिए मैं शुक्रगुज़ार हूँ सबकी. और बुरी बात ये कि प्रेरणा जी को छोड़कर किसी ने भी पिछले साल आई एक मास्टरपीस फिल्म का नाम नहीं लिया. बहुतों को शायद उस फिल्म के बारे में पता ही नहीं था. अफ़सोस... फिल्म का नाम है Ship of Theseus.
सबसे पहले तो इसके टाइटल के पीछे छिपी फिलोसोफी पर बात करना चाहूंगी. अगर किसी जहाज का एक एक पुर्जा अलग करते चले जाए और उन को दूसरे पुर्जे से रिप्लेस करते जायें तो क्या सभी पुर्जे रिप्लेस होने के बाद वो वही जहाज रहेगा जो पहले था ? और उससे अलग किये गए पुर्जों से कोई और जहाज बनाया जाए तो दोनों में से मूल जहाज कौन सा माना जाएगा ? पहली शताब्दी से चली आ रही इस बहस को प्लेटो, सोक्रेटेस और अन्य कई जाने माने विद्वानों ने आगे बढ़ाया है. पिछले साल इसी थीम पर नवोदित डायरेक्टर आनंद गांधी ने ये फिल्म बनाई है. और क्या खूब बनाई है. पूरी दुनिया ने इस फिल्म को सराहा है. जहां जहां भी ये फिल्म देखी गई, खूब पसंद की गई. कई सारे प्रतिष्ठित अवार्ड भी जीते इसने. ये सही मायनों में ऐसी भारतीय फिल्म है जिसपर गर्व किया जा सकता है.

इस फिल्म में तीन कहानियां है. पहली कहानी है एक ऐसी अंधी लड़की की जो टेक्निकली एडवांस्ड कैमरे की मदद से तस्वीरें खींचती है. सिर्फ अपनी सुनने की क्षमता के भरोसे. जो कि बेहतरीन होती है. फिर आई ट्रांसप्लांट द्वारा आँखे मिलने पर उसका काम बेहद साधारण रह जाता है. जब कि अब वो देखकर तस्वीरें खींच पाती है. तो क्या एक पुर्जा तब्दील होने के बाद वो वही नहीं रह पाई ?
दूसरी कहानी में एक सन्यासी - जो एनिमल राइट्स के लिए लड़ रहा है - खुद लीवर सिरोसिस का शिकार हो जाता है. और डॉक्टरों द्वारा दी गई दवाइयां लेने से और ट्रांसप्लांट से इनकार कर देता है. उसका मानना है कि आधुनिक दवाइयां प्राणियों की हत्या किये बगैर वजूद में नहीं आ पाती.
तीसरी कहानी में एक स्टॉक ब्रोकर - जिसका की किडनी ट्रांसप्लांट का हाल ही में ऑपरेशन हुआ है - ये जानकर थर्रा जाता है कि उसकी किडनी किसी गरीब से चुराई हुई हो सकती है. असलियत पता लगाने की उसकी जद्दोजहद और उससे हासिल हुआ रिजल्ट देखने लायक है.
और अंत में इन तीनों कहानियों को जोड़ने वाला वो अद्भुत क्लाइमेक्स. जिससे इस सवाल का जवाब पाने में मदद मिलती है कि क्या पुर्जे बदलने के बाद मूल तत्व में बदलाव हो जाता है ? अगर हाँ तो कितना ?
इस फिल्म के कई दमदार पक्ष है. जैसे कि असाधारण एक्टिंग. ऐडा अल काशेफ़, नीरज कबी और सोहम शाह ने अपनी अपनी भूमिका को अक्षरशः जिया है. उनसे आँखें नहीं हट पाती. इनसे बढ़िया कास्टिंग हो ही नहीं सकती थी. कई सारे सीन तो ऐसे है जो मैंने बार बार देखे. इस फिल्म का एक और सशक्त पक्ष है इसकी सिनेमेटोग्राफी. कई फ्रेम तो इतने खूबसूरत है कि मैं पॉज करके उन्हें देखती रही. भारत में ऐसा कैमरा वर्क मैंने पहले कभी नहीं देखा. अभिनय, फिल्मांकन, स्टोरी-टेलिंग और सन्देश हर फ्रंट पर फिल्म पूरे नंबर हासिल करती है. असली सिनेमा क्या होता है, ये इसे देखकर पता चला. अगर आपने अभी तक नहीं देखी है, तो फ़ौरन देखिये. इसे मिस करना एक बेहतरीन अनुभव से खुद को विमुख करना होगा. लेकिन अगर आपको मसाला मूवीज ही असली सिनेमा लगता है तो दूर रहिये.

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