Wednesday, November 19, 2014

अन्दर की अच्छाई

कई धार्मिक ऐसे देखे हैं जो पत्थरदिल निकले वहीँ कुछ नास्तिक बला के नर्मदिल. अनपढ़ों को शालीन बने रहते देखा वहीँ विद्वानों को जाहिल भी. कुछ धार्मिक ऐसे भी रहे जो कट्टर थे अपने धर्म के प्रति लेकिन जहाँ इंसानियत का फ़र्ज़ निभाने की बात आई दौड़ दौड़ कर विधर्मी की मदद करते पाए गए.. रक्तदान के शिविरों में जा के खून देकर आ गए बगैर ये आग्रह किये कि इसे उसी के धर्म के व्यक्ति को दिया जाये. सरदार ने मुसलमान को घर में घुसा लिया क्यूँकि दंगाईयों के हाथों उसका मरना तय था. कहीं मियाँ साहब काँवडियों के लिए पानी का इंतज़ाम करते पकडे गए तो कहीं पंडित जी रोजेदारों का रोजा खुलवाते हुए धर लिए गए. मानवता डीएनए में घुले उस वायरस की तरह है जो कमबख्त कभी न कभी उबाल जरुर मारती है.

इंसान दुनिया में कोरी स्लेट की तरह आता है. लिखावट तो दुनिया की देन है. भले ही स्लेट की शक्ल कितनी भी बदल जाए कुछ लोग उस पर वो इबारत भी लिखने में कामयाब हो जाते हैं जो यूनिवर्सल है.. प्रेम की इबारत.. करुणा की इबारत... और इस मुकाम पर आ कर तमाम विचारधाराओं पर डस्टर फिर जाता है.

इसीलिए कहा था कि अंत-पन्त इंसान की अपनी अच्छाई-बुराई ही उसके व्यक्तित्व को डिफाइन करती है ना कि उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता...

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