Saturday, November 15, 2014

वक्त-ए-रुख्सत करीब आ पहुंचा

मोहसिन नकवी साहब लिख गये हैं.. काम हमारे आ रहा है.. थोड़ी सी छेड़खानी के लिए माफ़ी तलब करते हुए पेश है मेरे सारे अजीजों की नज्र एक नज़्म.. नज़्म क्या मुस्तकबिल का आईना समझ लीजियेगा..
 

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हमारा क्या है के हम तो चराग-ए-शब की तरह
अगर जलें भी तो बस इतनी रौशनी होगी
के जैसे तुंद अंधेरों की राह में जुगनू
ज़रा सी देर को चमके, चमक के खो जाये
फिर इस के बाद किसी को ना कुछ सुझाई दे
ना शब कटे, ना सुराग-ए-शहर दिखाई दे


हमारा क्या है के हम तो पस-ए-गुबार-ए-सफ़र
अगर चले भी तो बस इतनी राह तय होगी
के तेज़ हवाओं की ज़र्द माइल नक्श-ए-कदम
ज़रा सी देर को उभरे, उभर के मिट जाये
फिर उसके बाद ना रस्ता ना रहगुजर मिले
हद्द-ए-निगाह तलक दश्त-ए-बेकिनार मिले


हमारी सिम्त ना देखो के कोई देर में हम
कबीला-ए-दिल-ओ-जान जुदा होने वाले हैं
बसे बसाये हुए शहर अपनी आँखों के
मिसाल-ए-खाना-ए-वीरां उजड़ने वाले हैं
हवा का शोर ये ही है तो देखते रहना
हमारी हस्ती के खेमें उखड़ने वाले हैं....!!!


लो वक्त-ए-रुख्सत करीब आ पहुंचा
ऐ दोस्त अब हम बिछड़ने वाले हैं.....!!!!
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