Sunday, February 2, 2014

खुद अपनी ज़िन्दगी को

खुद अपनी ज़िन्दगी को किसी से उधार लूं
या तो जी लूं बेशर्मी से, या खुद को मार लूं
सफ़र सहरा का मुकद्दर है तो ऐसा ही सही,
लबों में तिश्नगी भर लूं, नज़र में गुबार लूं

न जाने कितनी घुटन है समाई रग रग में,
कहाँ मिलेगा सुकूं, किस तरह मैं करार लूं
जमी है गर्द की परतें पलकों के दरीचे पर,
शफ्फाफ आइनों में कैसे सूरत संवार लूं
न जाने कौन सी रुत में उड़ेंगे आस के पंछी,
ऐ खालिक मैं कैसे तुझसे वादा-ए-बहार लूं
-------- ज़ारा.
03/02/2014.

सहरा - रेगिस्तान
तिश्नगी - प्यास
गुबार - हवा से उड़ने वाली धूल मिटटी
गर्द - धूल
शफ्फाफ - उज्ज्वल, साफ़ सुथरा
खालिक - ईश्वर, सृष्टि का रचयिता

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