Friday, September 12, 2014

विषहर

ये पोस्ट कल की पोस्ट का अगला हिस्सा है. उस पोस्ट की भावना से बहुत लोग सहमत हुए लेकिन समस्या के निराकरण की वहाँ कोई बात नहीं हुई. कोई उपाय सामने न आया. वो तो भला हो संजय सर का जिन्होंने ज़ोर देकर पूछा कि समस्या तो पकड़ में आ गई लेकिन उपाय क्या हो ? उनसे बातचीत में कुछ नुस्खे पकड़ में आये हैं. शायद काम आयें.

मेरा मानना है कि समस्या की पहचान करना उसके निराकरण की तरफ पहला और सब से जरुरी कदम है. सब से पहले तो ये जान लिया जाए कि इस समस्या को समस्या मानने वालों की संख्या अभी बहुत कम है. मेरी उस पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स से अंदाजा हो जाता है. तो सब से पहला काम तो यही है कि लोगों में एक कॉमन समझ विकसित की जाए कि धर्म के नाम पर बहकाने वाले लोग आपके हमदर्द कतई नहीं हो सकते. कहने को ये बात एक लाइन में तो समा गई लेकिन है ये एवरेस्ट फ़तह करने से भी ज्यादा मुश्किल काम. इसके लिए कई मोर्चों पर काम किये जाने की जरुरत है.
सब से पहले तो हमें पारिवारिक तौर पर इस समस्या से दो चार होने का रास्ता ढूंढना होगा. बच्चों को कच्ची उम्र से ही ये पाठ पढ़ाना होगा कि मानवता ही सर्वोपरि है. आपस में मिलजुल कर रहना, दूसरे धर्मों का सम्मान करना बेहद जरुरी है. हिंसा - शाब्दिक या शारीरिक - हर हाल में गलत ही होती है ये उनके मस्तिष्क में पक्के तौर पर अंकित कराना होगा.

एक और तरीका सख्त कानून और उसका सख्ती से अनुपालन भी हो सकता है. हेट स्पीच के लिए बिल्कुल साफ़ साफ़ क़ानून हो और इसका उल्लंघन करने वाले पर त्वरित कार्यवाई हो. लेकिन इसके लिए हमें फिर से नेताओं पर निर्भर रहना होगा जिसका साफ़ मतलब ये है कि कुछ नहीं होगा. कहने को तो कानून अब भी है.

एक त्वरित उपाय तो ये भी हो सकता है कि ऐसी हेट स्पीच एक से ज्यादा बार देने वाले से चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लिया जाए. अगर ये हो गया तो जादू की तरह काम करेगा. ये हो पाये ऐसा होने से पहले आम जनता के हाथ में ये भी है कि ऐसे लोगों को चुनाव ना जीतने दे. ये भी होने लगा तो अभूतपूर्व बदलाव आएगा.

लेकिन सब से जरुरी काम वो ही है जो मैंने शुरू में कहा. ये एक समस्या है ये लोगों को समझाना. इन्हें हीरो मानने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है. उन्हें ये समझाना बेहद चुनौतीभरा काम है कि इन लोगों का मकसद सिर्फ जाती फायदा है ना कि अवाम की भलाई. असल काम इसी दिशा में होना चाहिए.
बकौल संजय सर शिक्षा का क्षेत्र एक ऐसा टूल साबित हो सकता है जो इस समस्या से निपटने में मदद करे. ट्रेंड टीचर जो जनरेशन के सोचने के तरीके में परिवर्तन लाये, प्लस आने वाली जेनेरेशन के सोचने में खुलापन भरे, टोलरेंस सिखाएं, non interference, अपने अपने खेत में चरना आदि गुण इंजेक्ट करे. मैं भी सहमत हूँ इससे. शिक्षा का क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जो इस बदलाव को लाने में समर्थ है. क्यूँ कि इस की रीच भी ज्यादा है और इम्पैक्ट भी.

महज बातों से, कोसाई से कुछ नहीं होगा. लेकिन विरोध करना भी जरुरी है. बदलाव का पहला कदम ही है मुखालफत. मेरी आवाज़ में जब किसी और की आवाज़ शामिल होगी, फिर हम दोनों की आवाज में कोई तीसरी आवाज आ मिलेगी तभी तो बात आगे बढ़ेगी. सीमित साधनों वाले मुझ जैसे लोग आखिर ये भी न करे तो क्या करे ? आग भड़काना गलत है. आग बुझाने का प्रयास करना प्रशंसनीय है. जो पहला काम नहीं करना चाहते और दूसरा अपनी लिमिटेशंस के चलते नहीं कर सकते वो कम से कम आग बुझाने की अहमियत को तो बता ही सकते हैं लोगों को. कुछ ना करने से तो 'कुछ' करना हर हाल में बेहतर है.

है न ??

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