Monday, July 14, 2014

दौर-ए-खूंरेजी

उजड़े से लम्हों को आस तेरी
ज़ख़्मी दिलों को है प्यास तेरी
हर धड़कन को तलाश तेरी
तेरा मिलता नहीं है पता
खाली आँखें खुद से सवाल करे
अमनों की चीख बेहाल करे
बहता लहू फ़रियाद करे
तेरा मिटता चला है निशाँ
रूह जम सी गयी
वक़्त थम सा गया
टूटे ख़्वाबों के मंज़र पे तेरा जहाँ चल दिया
नूर-ए-खुदा, नूर-ए-खुदा
तू कहाँ छुपा है हमें ये बता
नूर-ए-खुदा, नूर-ए-खुदा
यूँ ना हमसे नज़रें फिरा..
( खूंरेजी के इस दौर में चादर तान के सोये हुए खुदा को कोई जगाओ दोस्तों.. कहना कि विश्वास दरकने लगा है, यकीन डगमगा रहा है. चारों ओर बहता लहू तेरे ना होने का सबूत देता नज़र आ रहा है. और ये भी कहना कि 'खुदा की हर बात में कुछ न कुछ बेहतरी होती है' वाला लॉजिक समझना भी अब मुश्किल होता जा रहा है. आस्था-अनास्था की मुंडेर पर लटक रहे लोगों को या तो रास्ता दिखा या रास्ते से हट जा. बिलखते हुए बच्चों को नज़र-अंदाज़ करने वाले को पिता कैसे माने ? तेरे होने का सबूत नहीं चाहिए बस सिर्फ इतना कर दे कि आस्था भी बनी रहे और इंसानियत भी. बाकि तेरे नाम पर सदियों से चल रहा सर्कस जारी तो रहेगा ही. कोई कह दें खुदा से.)

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