Tuesday, May 13, 2014

हवा-हवाई

बच्चों का मनोविज्ञान समझने में कुछ एक ही बॉलीवुडीया निर्देशक कामयाब रहे हैं. अमोल गुप्ते यकीनन उनमे से एक है. तारे ज़मीन पर जैसी कमाल फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्शन के बाद और 'स्टैनली का डिब्बा' जैसी बेहद खूबसूरत फिल्म के निर्देशन के बाद वो अब हवा हवाई लेकर आये हैं. बालमन की इतनी गहरी समझ हिंदी सिनेमा में दुर्लभ ही है.
हवा हवाई कहानी है अर्जुन हरिश्चंद्र वाघमारे की. एक किसान फॅमिली का बेटा जिसका परिवार मुखिया की मौत के बाद मुंबई के धारावी इलाके में आ बसा है. माँ दूसरे के घरों का काम कर के घर चला रही है. माँ को सपोर्ट करने के लिए अर्जुन एक टी-स्टाल पर काम करना शुरू कर देता है. पहला ही सीन आपको जकड लेता है. अर्जुन की माँ बनी नेहा जोशी का अभिनय उस सीन में ज़बरदस्त है. अपने बेटे को चाय के खोखे पर छोड के जाते वक्त एक माँ की कशमकश उन्होंने बेहतरीन तरीके से व्यक्त की है. खैर, अर्जुन काम करना शुरू करता है और पहले ही दिन उसे पता चलता है की उसके स्टाल के ऐन सामने रात के वक्त बच्चे स्केटिंग की प्रैक्टिस करते हैं. स्केटिंग शूज की रफ़्तार से अभिभूत अर्जुन की आँखों में खुद भी स्केटिंग करने का सपना तैरने लगता है. फिर कैसे वो सपना जूनून बन जाता है, किस तरह उसे मदद हासिल होती है और कैसे वो अपनी मंजिल तलाशने में कामयाब रहता है इसकी कहानी है ये फिल्म.
यूँ तो फिल्म की कहानी बिलकुल सिम्पल है. लेकिन इसे देखने लायक बनाता है इसे निर्देशक द्वारा दिया गया ट्रीटमेंट और कलाकारों का ऑनेस्ट अभिनय. पार्थो गुप्ते अपने हुनर का परिचय स्टैनली का डिब्बा में दे ही चुके है. इस फिल्म में वो और बेहतर तरीके से साबित कर देते हैं कि अभिनय उनके खून में है. अर्जुन के रूप में वो सिर्फ और सिर्फ अर्जुन लगे हैं. एक ऐसे बच्चे की तस्वीर उभारने में वो पूरी तरह कामयाब रहे हैं जिसकी आँखों में तो बेशुमार सपने हैं लेकिन कंधे पर जिम्मेदारियों का बोझ भी है. साकिब सलीम एक बार फिर अपना प्रेजेंस दर्ज करने में कामयाब रहे हैं. 'मेरे डैड की मारुती' जैसी हलकी फुलकी फिल्म में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने के बाद वो इस फिल्म में स्केटिंग कोच लकी की भूमिका के साथ पूरा न्याय करते नज़र आते हैं. लेकिन शो तो चुराया है अर्जुन के दोस्तों की भूमिका करने वाले बच्चों ने.. गोची, भूरा, अब्दुल और मुरुगन आपको भुलाए नहीं भूलेंगे. हज़ारों रुपयों के स्केटिंग शूज खरीदने में असमर्थ अर्जुन की मदद के लिए वो जो जद्दोजहद करते हैं वो आपको हंसाती भी है और द्रवित भी करती है. सड़कों पर ज़िन्दगी गुज़ारने वाले इन बच्चों में दूसरे की मदद करने का ज़ज्बा देखकर सभ्य समाज को कुछ तो शर्म आएगी जरुर. इन बच्चों के बारे लकी अपने अमेरिकी भाई को लिखता है, "मैं समझता था कि मैं इन बच्चों की ज़िन्दगी बेहतर बना रहा हूँ लेकिन हकीकत तो ये है कि इन बच्चों ने मेरी ज़िन्दगी बदल कर रख दी है. इत्ते इत्ते से बच्चे और ये बड़े बड़े दिल...."
बहुत पहले एक किताब पढ़ी थी सिटी ऑफ़ जॉय.. उसका एक वाक्य अब भी दिमाग में गूंजता रहता है. 'सबसे नीचे के तबकों में ही मित्रता का मोल पहचाना जाता हैं । उनके लिए संसार भर के डॉलरों से एक मुस्कान की कीमत ज्यादा हैं.' इन बच्चों को देखते वक्त अचानक इस लाइन की याद आई.
ये फिल्म मास्टरपीस नहीं है. कुछ कमियाँ इसमें भी है. जैसे कुछ सीन्स में मेलोड्रामा ज्यादा ही हुआ लगता है, ख़ास तौर से क्लाइमेक्स में. संगीत भी उतना अच्छा नहीं है. एकाध गीत को छोड़कर. लेकिन इन कमियों के बावजूद इसे जरुर जरुर देखा जाना चाहिए. और वो भी अपने बच्चों को साथ लेकर. सपने देखने की और उन्हें पूरा करने की कोशिश में जुट जाने की अहमियत जताती ये फिल्म देखने से विमुख न रहिये दोस्तों. वैसे भी एक था टाइगर, चेन्नई एक्सप्रेस, राऊडी राठोड जैसी फ़िल्में देने वाली हमारी फिल्म इंडस्ट्री बहुत कम ऐसी फ़िल्में देती है. इनके निर्माता-निर्देशकों का हौसला बढ़ाना हमारा फ़र्ज़ है. इस शुक्रवार इस फिल्म के बदलने से पहले इसे देखने की कोशिश जरुर कीजियेगा. और खुद को और अपने बच्चों को ये नया और कारगर सबक सिखाइएगा कि,
"कठिन है अगर रस्ता तू फिकर ना कर,
उड़ने की ख्वाहिश में निकल आयेंगे पर..."

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