Tuesday, February 25, 2014

उदास मत हुआ करो

आज का दिन अपने लिए.... dedicating to myself..

तुम्हे उदास देख कर,
किसी के रंग खो गये
कहीं पे चाँद बुझ गया,
कहीं सितारे सो गये
---कहीं पे बारिशों की रुत,
---ग़ज़ब की प्यास बन गई
---कोई बहार रूठ कर,
---सरापा-ए-आस बन गई
किसी के मौसमों को यूं,
अजाब मत दिया करो
उदास मत हुआ करो
उदास मत हुआ करो...!!!


------------ अज्ञात.

Saturday, February 22, 2014

शाद

पांव में बेड़ी ,पहरे में हर ख्वाब रखा है
नाम तेरा उन लोगो ने क्यूँ शाद रखा है...!!
--------- Gurvinder Singh जी की कलम से.

Friday, February 21, 2014

डरते हैं

झलक जाते हैं अक्सर दर्द की मानिंद आँखों से
मगर खामोश रहते हें, बयां होने से डरते हैं
कुचल देती है हर हसरत हमारी बेरहम दुनिया,
दिल- ए -मासूम के अरमां जवां होने से डरते हैं
------- साजिद हाशमी.

Thursday, February 20, 2014

हम हर रोज़...

हम,
हर रोज़ उदास होते है
और...

ये शाम गुजर जाती है...

किसी दिन...

शाम उदास होगी
और...
हम गुजर जायेंगे....!!!!


-------- अज्ञात.

Monday, February 17, 2014

खट्टर काका

सुना है पेंगुइन इंडिया ने हिन्दू धार्मिक भावनाएं आहत करने वाली किताब THE HINDUS: AN ALTERNATIVE HISTORY पर बैन लगा दिया है. लेकिन अगर पेंगुइन इंडिया में से कोई भी हरी मोहन झा द्वारा लिखित 'खट्टर काका' पढ़ लेता तो इस बैन को लगाने की नौबत ही नहीं आती. खट्टर काका पिछले पचास सालों से एक बेस्ट सेलर किताब रही है. मैंने the hindus तो नहीं पढ़ी लेकिन मेरा दावा है कि खट्टर काका उससे कही गुणा ज्यादा भयंकर किताब है. हिन्दू धर्म की सबसे पवित्र मान्यताएं, आचार विचार आदि पर लेखक ने ज़बरदस्तप्रहार किया है. व्यंग की धार इतनी तेज़ है कि आप कही ठहाका लगाते है तो कहीं सोचने पर विवश हो जाते है. ये कई मायनों में एक अद्भुत किताब है. और सबसे बड़ी बात ये कि ये बेहद प्रसिद्ध है. धडाके से बिकती है. अब तक कई संस्करण आ चुके है. जबकि इसमें बारूद भरा हुआ है. आपसे गुजारिश है कि THE HINDUS: AN ALTERNATIVE HISTORY पर लगे बैन का समर्थन करने से पहले एक बार 'खट्टर काका' पढियेगा जरुर. ये किताब ऑनलाइन परचेज के लिए सहज उपलब्ध है. राजकमल पेपरबैक्स के ऑफिस से भी मंगाई जा सकती है. दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला लगा है. वहां पर ये जरुर उपलब्ध होगी.

एक स्वीकारोक्ति करना चाहूंगी यहाँ पर. खट्टर काका मेरे कलेक्शन में तकरीबन पांच साल से है. यदा कदा पढ़ लेती हूँ. हमेशा पढ़कर इस बात का सुकून महसूस किया करती थी कि हिन्दू धर्म में इतनी सहिष्णुता तो है कि वो आत्म-आलोचना को बेहद खुले रूप में स्वीकारने की हिम्मत रखता है. बेहद अच्छी लगती थी ये बात मुझे. लेकिन THE HINDUS पर लगे बैन ने दिल तोड़ दिया. इसलिए नहीं की वो किताब अच्छी है. मेरा विश्वास है कि वो किताब जरुर भ्रामक तथ्य पेश करती है लेकिन पाबंदी लगाना कोई हल नहीं है. सलमान रुश्दी, तसलीमा नसरीन आदि पर जारी फतवे पहले ही मुझे निराश करते आये है. अब इस किताब पर बैन ने जैसे कट्टरता और सहिष्णुता का भेद ही मिटा दिया. ये अलग अलग धार्मिक आस्थाएं स्कोर लेवल करने के लिए इतनी आतुर क्यूँ रहती है ?
खैर, बहस में नहीं पड़ते है. आप खट्टर काका पढ़िए. जरुर जरुर जरुर पढ़िए. इसलिए नहीं कि इसमें किसी धर्म-विशेष में स्थापित रुढियों पर प्रहार किया गया है बल्कि अपने आप को ये याद दिलाने के लिए कि हम वही भारतीय है जिसने 'खट्टर काका' जैसी किताब को खुले मन से सराहा था.
वैसे किस किस ने ये किताब पढ़ी है ? मैं जरुर जानना चाहूंगी.

Friday, February 14, 2014

सुनो....

उन सभी प्रेमी जनों को एक नज़्म समर्पित जो संस्कृति रक्षकों के हमले से खुद को बचाने में कामयाब रहे. ( जो उनके हत्थे चढ़ गए उनके लिए तक़रीर फिर कभी.  )
संस्कृति शब्द पर तबसरा किये बगैर नज़्म का मज़ा लीजिये, ये गुजारिश अलग से है.

सुनो,
इक काम करना
चाँद से थोड़ी मिटटी लेना
फिर उससे दो बुत बनाना
इक तुम जैसा........ इक मुझ जैसा.......
फिर,
उन बुतों को तोड़ देना
फिर एक बार उसी मिटटी से,
दो नये बुत बनाना
इक तुम जैसा........ इक मुझ जैसा.......
ताकि,
तुम में कुछ कुछ मैं रह जाऊं.....
और,
मुझ में कुछ कुछ तुम रह जाओ....!

------------- शायर नामालूम...( हमेशा की तरह ) 

Wednesday, February 12, 2014

हस्ती

उसी पल या खुदा हस्ती मेरी गर्क कर देना,
जिस पल खुद को कोई हस्ती समझ लूं मैं.
------ ज़ारा.
12/02/2014.

Tuesday, February 11, 2014

जुगनी

ये इरशाद कामिल भी बड़ा बेहतरीन लिख रहे है आजकल... देखिये तो सही क्या लिखते है जनाब...
"जुगनी रुख पीपल दा होई
जिस नूं पूजता हर कोई
जिस दी फ़सल किसे ना बोई
घर वी रख सके ना कोई

रास्ता नाप रही मरजानी
पट्ठी बारिश दा है पानी
जब नज़दीक जहान दे आनी
जुगनी मैली सी हो जानी.."
कितनी गहरी बात. भारत में पीपल के पेड़ की पूजा की जाती है लेकिन उसका पौधा मर्जी से नहीं लगाया जाता. अगर वो गलती से खुद ब खुद आंगन में उग भी आये तो उसे सावधानी से हटाकर दूसरी जगह पहुंचा दिया जाता है. जैसे मंदिर वगैरह. स्त्री के हालात भी कुछ जुदा तो है नहीं. तमाम जुगनियां ऐसी ही किस्मत लिखवा के आती है.
इसलिए सभी जुगनीयों को एक बिन मांगी सलाह... ए आर रहमान स्टाइल में..
"ऐंवे लोक लाज की, सोच सोच के क्यूँ है आफत डाली
तू ले नाम रब का, नाम साईं का, अली अली अली..""
सलाम रहमान.. सलाम इरशाद... सलाम नूरन सिस्टर्स ( ज्योति और सुलतान नूरन )

Saturday, February 8, 2014

मैं भी काफिर

पाकिस्तानी शायर सलमान हैदर की ये नज़्म आजकल तूफ़ान मचाये हुए है. ये नज़्म तो बेहतरीन है ही लेकिन जो बात मुझे हैरान कर गई वो ये कि ये नज़्म पाकिस्तान से आई है जो कि एक कट्टर मुल्क के तौर पर बदनाम है. इसी तरह पीछे हबीब आसिफ का एक व्यंग लेख पढ़ा था जिसमे पाकिस्तानी हुक्मरानों की जमकर धज्जियां उड़ाई गई थी. मैं हैरान हूँ कि पाकिस्तानी हुकूमत और अदबी दुनिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इतना सम्मान कर लेती है.
मैं भी काफिर, तू भी काफिर
मैं भी काफिर, तू भी काफिर
फूलों की खुशबू भी काफिर
शब्दों का जादू भी काफिर
यह भी काफिर, वह भी काफिर
फैज भी और मंटो भी काफिर


नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफिर
हंसी गुनाह, जोक भी काफिर
तबला काफिर, ढोल भी काफिर
प्यार भरे दो बोल भी काफिर
सुर भी काफिर, ताल भी काफिर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफिर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफिर
काफी और खयाल भी काफिर
वारिस शाह की हीर भी काफिर
चाहत की जंजीर भी काफिर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफिर
भेंट नियाज की खीर भी काफिर
बेटे का बस्ता भी काफिर
बेटी की गुड़िया भी काफिर

हंसना-रोना कुफ्र का सौदा
गम काफिर, खुशियां भी काफिर
जींस भी और गिटार भी काफिर
टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफिर
कला और कलाकार भी काफिर
जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफिर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफिर
डार्विन भाई का बंदर काफिर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफिर
मार्क्स के सबसे मतवाले काफिर

मेले-ठेले कुफ्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफिर
कुछ मस्जिद में अंदर काफिर
मुस्लिम देश में अक्सर काफिर
काफिर काफिर मैं भी काफिर
काफिर काफिर तू भी काफिर

---------- सलमान हैदर.

Friday, February 7, 2014

इस्मत आपा

आज कल इस्मत चुगताई को पढ़ रही हूँ. लम्बे अरसे बाद. 6-7 साल पहले उनकी एकाध किताब पढ़ी थी. तब शब्दों के पीछे छिपे निहितार्थ पढने की काबिलियत नहीं थी. वो तो खैर अब भी नहीं है लेकिन अब उनके जादू से खुद को परे रख पाना असंभव प्रतीत होने लगा है. अब जब फिर से उनकी किताब थामी है तो मैं हैरान हूँ, चमत्कृत हूँ. शब्दों की ऐसी इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने की कला किस तरह से हासिल की होगी उन्होंने.? ये जरुर जरुर खुदाई तोहफा होता होगा. हम जैसे लोग जो थोड़े बहुत शब्दों की दुकान लगाकर और उसपर कुछ सहृदय मित्रों की तारीफें वसूल कर खुश हो जाते है, उन्हें समय समय पर ऐसे लोगों को जरुर पढना चाहिए. अगर कुछ आत्ममुग्धता आने लगी भी हो तो झट से झड जायेगी.
इस्मत जी कि लेखन शैली की मैं तो दीवानी बन गई हूँ.. सोचती हूँ किस तरह उन्होंने उस ज़माने में इतना बढ़िया काम किया. तब, जब मुस्लिम लडकियां तो छोडिये हिन्दू लड़कियों तक के लिए जीना एक बड़ी चुनौती थी. 1935 के आसपास. बताया जाता है कि इस्मत जी पहली भारतीय मुस्लिम महिला थी जिन्होंने बीए और बी.एड की डिग्रियां हासिल की थी. उनके लेखन में उस वक्त के मुस्लिम परिवेश की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है. लेकिन उनकी लेखनी का कमाल तो उनके शब्द-चयन में है. एक छोटी सी चीज भी उनके नज़रिए से देखने पर इतनी अहम लगने लगती है कि पढने वाला चमत्कृत रह जाता है. उनके अंदाजेबयां में उर्दू शब्दों की भरमार उनके लेखन को एक चाशनी सा मीठापन बख्शता है जिसकी मिठास आपके ज़हन-ओ-दिल में देर तक छाई रहती है. किरदारों पर उनकी पकड़ लाजवाब है. जिस किसी भी किरदार की डिटेलिंग में वो जाने लगती है, साथ साथ आप भी उस किरदार के अन्दर उतरने लगते है. यूं लगने लगता है कि उस किरदार की रूह का कोई टुकड़ा आपके अन्दर पैवस्त कर दिया गया हो. फिर आप आप नहीं रहते. उस किरदार में तब्दील होने लगते है. उसका दर्द, उसकी हंसी, उसके ख्वाब, उसकी नाकामियां सब आपको अपनी लगने लगती है. और पाठक को इस हद तक किरदार में उतार देना एक रचनाकार का अज़ीम करिश्मा है. अल्फाजों के मामले में इस्मत जी का खज़ाना इतना वैभवशाली है कि उर्दू भाषा के तालिबेइल्म अगर उनको पाबंदी से पढ़े तो उर्दू जुबां पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ बन जाए.
इस्मत जी के लेखन में एक तरह की बगावत है. आग है. दकियानूसी मान्यताओं को धता बताती, वर्जनाओं को तोडती, सीमाओं को धुत्कारती उनकी लेखनी के साहस को नमन करने का दिल करता है. इतना साहसिक लेखन, वो भी उस ज़माने में, यकीनन एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. और सबसे बड़ी बात ये कि उनका लेखन बोझिल नहीं है. वो ज्ञान की कक्षाएं नहीं लेती बल्कि अपने किरदारों के माध्यम से इतनी सहजता से हमें आईना दिखाती है कि हम दंग रह जाते है. कभी गुदगुदाता हुआ तो कभी चेतना को झिंझोड़ता हुआ उनका लेखन यकीनन भारतीय साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है.
मैं तो खैर उनकी बहुत बड़ी फैन बन गई हूँ.. आपमें से जिन्होंने उन्हें पढ़ा है उनकी क्या राय है ? और जिन्होंने नहीं पढ़ा वो पढ़कर बताएं.

Wednesday, February 5, 2014

शिप ऑफ़ थिसियस

मेरी पिछली पोस्ट में मैंने 2013 की तीन अच्छी फिल्मों के बारे में पूछा था. उस पोस्ट पे हासिल कमेंट्स में एक अच्छी और एक बुरी बात नज़र आई मुझे. अच्छी बात ये कि किसी ने भी कृष 3, धूम 3 या चेन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्मों का नाम नहीं लिया. जिसके लिए मैं शुक्रगुज़ार हूँ सबकी. और बुरी बात ये कि प्रेरणा जी को छोड़कर किसी ने भी पिछले साल आई एक मास्टरपीस फिल्म का नाम नहीं लिया. बहुतों को शायद उस फिल्म के बारे में पता ही नहीं था. अफ़सोस... फिल्म का नाम है Ship of Theseus.
सबसे पहले तो इसके टाइटल के पीछे छिपी फिलोसोफी पर बात करना चाहूंगी. अगर किसी जहाज का एक एक पुर्जा अलग करते चले जाए और उन को दूसरे पुर्जे से रिप्लेस करते जायें तो क्या सभी पुर्जे रिप्लेस होने के बाद वो वही जहाज रहेगा जो पहले था ? और उससे अलग किये गए पुर्जों से कोई और जहाज बनाया जाए तो दोनों में से मूल जहाज कौन सा माना जाएगा ? पहली शताब्दी से चली आ रही इस बहस को प्लेटो, सोक्रेटेस और अन्य कई जाने माने विद्वानों ने आगे बढ़ाया है. पिछले साल इसी थीम पर नवोदित डायरेक्टर आनंद गांधी ने ये फिल्म बनाई है. और क्या खूब बनाई है. पूरी दुनिया ने इस फिल्म को सराहा है. जहां जहां भी ये फिल्म देखी गई, खूब पसंद की गई. कई सारे प्रतिष्ठित अवार्ड भी जीते इसने. ये सही मायनों में ऐसी भारतीय फिल्म है जिसपर गर्व किया जा सकता है.

इस फिल्म में तीन कहानियां है. पहली कहानी है एक ऐसी अंधी लड़की की जो टेक्निकली एडवांस्ड कैमरे की मदद से तस्वीरें खींचती है. सिर्फ अपनी सुनने की क्षमता के भरोसे. जो कि बेहतरीन होती है. फिर आई ट्रांसप्लांट द्वारा आँखे मिलने पर उसका काम बेहद साधारण रह जाता है. जब कि अब वो देखकर तस्वीरें खींच पाती है. तो क्या एक पुर्जा तब्दील होने के बाद वो वही नहीं रह पाई ?
दूसरी कहानी में एक सन्यासी - जो एनिमल राइट्स के लिए लड़ रहा है - खुद लीवर सिरोसिस का शिकार हो जाता है. और डॉक्टरों द्वारा दी गई दवाइयां लेने से और ट्रांसप्लांट से इनकार कर देता है. उसका मानना है कि आधुनिक दवाइयां प्राणियों की हत्या किये बगैर वजूद में नहीं आ पाती.
तीसरी कहानी में एक स्टॉक ब्रोकर - जिसका की किडनी ट्रांसप्लांट का हाल ही में ऑपरेशन हुआ है - ये जानकर थर्रा जाता है कि उसकी किडनी किसी गरीब से चुराई हुई हो सकती है. असलियत पता लगाने की उसकी जद्दोजहद और उससे हासिल हुआ रिजल्ट देखने लायक है.
और अंत में इन तीनों कहानियों को जोड़ने वाला वो अद्भुत क्लाइमेक्स. जिससे इस सवाल का जवाब पाने में मदद मिलती है कि क्या पुर्जे बदलने के बाद मूल तत्व में बदलाव हो जाता है ? अगर हाँ तो कितना ?
इस फिल्म के कई दमदार पक्ष है. जैसे कि असाधारण एक्टिंग. ऐडा अल काशेफ़, नीरज कबी और सोहम शाह ने अपनी अपनी भूमिका को अक्षरशः जिया है. उनसे आँखें नहीं हट पाती. इनसे बढ़िया कास्टिंग हो ही नहीं सकती थी. कई सारे सीन तो ऐसे है जो मैंने बार बार देखे. इस फिल्म का एक और सशक्त पक्ष है इसकी सिनेमेटोग्राफी. कई फ्रेम तो इतने खूबसूरत है कि मैं पॉज करके उन्हें देखती रही. भारत में ऐसा कैमरा वर्क मैंने पहले कभी नहीं देखा. अभिनय, फिल्मांकन, स्टोरी-टेलिंग और सन्देश हर फ्रंट पर फिल्म पूरे नंबर हासिल करती है. असली सिनेमा क्या होता है, ये इसे देखकर पता चला. अगर आपने अभी तक नहीं देखी है, तो फ़ौरन देखिये. इसे मिस करना एक बेहतरीन अनुभव से खुद को विमुख करना होगा. लेकिन अगर आपको मसाला मूवीज ही असली सिनेमा लगता है तो दूर रहिये.

Tuesday, February 4, 2014

प्रेम ही अंतिम शरणस्थली है.

हिन्दू धर्म - शैव, वैष्णव, ब्राह्मण, दलित, शूद्र, वैश्य, और इनके अन्दर और सब-डिविजन्स . 'हर एक मनुष्य में ईश्वर का अंश है', सभी अवतारों की इस सीख को धता बताते हुए हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने इतनी शाखाओं का विस्तार कर लिया कि इसकी मूल पहचान को पहचानना ही एक टास्क बन गया.
इस्लाम - शिया, सुन्नी, अहमदिया, कादियानी, बोहरा, वहाबी, देवबंदी, बरेलवी, और भी बहुत से.. इस्लाम की मूलभूत सीख कि 'कोई भी बड़ा छोटा नहीं है, सब बराबर है' सिर्फ मस्जिदों में एक सफ में नमाज़ पढने तक और दस्तरख्वान शेयर करने तक सिमट कर रह गई. अशरफ़, अजलफ़ और अरज़ल का फर्क करना न जाने कहाँ से सीख लिया भाई लोगों ने..

बुद्धिज़्म - थेरावडा बुद्धिज्म, महायाना बुद्धिज्म, तिबेटियन बुद्धिज्म, वज्रायना बुद्धिज्म..... मूर्ती पूजा के घोर विरोधी रहे गौतम बुद्ध की खुद की इतनी मूर्तियां लगा दी अनुयायियों ने के अगर वो देख रहे होंगे तो बेहद शर्मसार हो रहे होंगे.
क्रिश्चियनिटी - प्रोटेस्टंट, कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स... और भी छोटी मोटी शाखाएं... हर कोई खुद को दूसरे से बेहतर समझते है और सिर्फ खुद को ईसा मसीह का सच्चा अनुयायी मानते है. मुझे यकीन है प्रभु येशु आज भी अपने अल्फाज़ बार बार दोहराते होंगे के, हे प्रभु, इन्हें माफ़ कर देना. ये नहीं जानते ये क्या कर रहे है.
सिक्खिज्म - उदासी पंथ के सिख, सहजधारी सिख, केशधारी सिख, डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी सिख, दस गुरुओं का सिद्धांत मानने वाले सिख, दस गुरुओं का सिद्धांत ना मानने वाले सिख.... सिर्फ पांच सौ साल पहले वजूद में आये इस धर्म ने भी बिखराव के मामले में कम समय में अच्छी तरक्की कर ली है.
अथिज्म ( निरीश्वरवाद ) - हालांकि ये धर्म की कैटेगरी में नहीं आता लेकिन इस विचारधारा में भी बहुत सा भटकाव नज़र आता है. सेमी अथिस्ट, फुल अथिस्ट, कम्युनिस्ट, ( मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, नॉन मार्क्सिस्ट आदि आदि ).
कहने का मतलब ये कि कोई भी धर्म, मजहब या विचारधारा खुद अपने अन्दर होने वाली टूट फूट को रोकने में असमर्थ रही है. इनका खूंटा इतना मजबूत नहीं साबित हुआ कि सबको जोड़ कर रख सके. तो फिर धर्म विशेष की श्रेष्ठता का दंभ कैसा..? आप किस धर्म में पैदा हुए हो ये जब आपके हाथ में नहीं था तो उसपर इतराना कैसा ? जो चीज़ इत्तेफाक से हो गई उसकी वजह से खुद को श्रेष्ठतम समझ लेना मूर्खता की निशानी है. किसी भी, आई रीपीट, किसी भी धर्म या विचारधारा में ये ताकत नहीं है के वो सभी को एक बराबरी का मंच दे सके. सभी के साथ एक जैसा बरताव कर सके. ऐसी ताकत तो सिर्फ और सिर्फ प्रेम में है. प्रेम ही है हर समस्या का रामबाण ईलाज.
मुझे पता है आप लोगों को मेरी ये बात काफी किताबी लग रही होगी लेकिन यकीन मानिए दोस्तों, प्रेम हमारी इकलौती पनाह है. जब हम सबसे प्रेम करना सीख जायेंगे तभी उस सृष्टि के रचयिता की सबसे उम्दा रचना होने का हमारा दावा जस्टिफाई कर पायेंगे. प्रेम करने के लिए हमें कोई भी एक्स्ट्रा मेहनत नहीं करनी पड़ती. सिर्फ अपने ह्रदय में इतनी जगह बना लेनी है के उसमे सब लोग समा सके. और कमाल की बात ये के ऐसा करके हम अपने अपने धर्म का मूल सिद्धांत ही कार्यान्वित कर रहे होंगे. और अपने अपने ईश्वरों, खुदाओं और रहनुमाओं को खुश कर रहे होंगे. तो ये बुरा सौदा तो यकीनन नहीं है न..?
आइये गुरु नानक देव के ये वचन दोहराते है,
"अवल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे
एक नूर से सब जग उपजया, कौन भले कौन मंदे"

Sunday, February 2, 2014

खुद अपनी ज़िन्दगी को

खुद अपनी ज़िन्दगी को किसी से उधार लूं
या तो जी लूं बेशर्मी से, या खुद को मार लूं
सफ़र सहरा का मुकद्दर है तो ऐसा ही सही,
लबों में तिश्नगी भर लूं, नज़र में गुबार लूं

न जाने कितनी घुटन है समाई रग रग में,
कहाँ मिलेगा सुकूं, किस तरह मैं करार लूं
जमी है गर्द की परतें पलकों के दरीचे पर,
शफ्फाफ आइनों में कैसे सूरत संवार लूं
न जाने कौन सी रुत में उड़ेंगे आस के पंछी,
ऐ खालिक मैं कैसे तुझसे वादा-ए-बहार लूं
-------- ज़ारा.
03/02/2014.

सहरा - रेगिस्तान
तिश्नगी - प्यास
गुबार - हवा से उड़ने वाली धूल मिटटी
गर्द - धूल
शफ्फाफ - उज्ज्वल, साफ़ सुथरा
खालिक - ईश्वर, सृष्टि का रचयिता

Saturday, February 1, 2014

कुछ तुझ से कहा

कुछ तुझ से कहा, कुछ तेरी सुनी, और दिल का बोझ हलका सा लगा
मेरी हयात का दर्द, मेरी रूह का अश्क, तेरी आँख से छलका सा लगा
वो क्या है जो बेनूर रात की सरहद पर चमक रहा है बार बार,
तुझे क्या लगा मुझे पता नहीं , मुझे रौशन सुबह का धुंधलका सा लगा


------------ ज़ारा.
01/02/2014