Thursday, December 5, 2013

मम्मो : फिल्म समीक्षा

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'... 

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है. 

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का. 

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा. 

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'...

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है.

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का.

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा.
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2 comments:

  1. Where can I get the script, if I want to adapt this as a play

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