Saturday, December 14, 2013

बशारत मंजिल - मंजूर एहतेशाम

पिछले दिनों एक किताब पढ़ी. मंजूर एहतेशाम की 'बशारत मंजिल.' शुरू शुरू में इस किताब को पढ़ते वक्त थोड़ी बोरियत महसूस हुई. पर जैसा कि मेरी आदत है कि मैं किसी भी किताब को अधूरा नहीं छोडती, मैंने उसे पढना जारी रखा. थोडा आगे जाकर मेरी दिलचस्पी जागृत हुई, थोडा और आगे पढ़कर मुझे उसमे बहुत आनंद आने लगा और किताब ख़त्म होते होते ये किताब मेरी पसंदीदा किताबों की लिस्ट में काफी उंचे स्थान पर विराजमान हो गई. एक बेहतरीन अनुभव रहा इस किताब को पढना.

'बशारत मंजिल' कहानी है एक मुस्लिम खानदान कि तीन से ज्यादा पीढ़ियों के जीवन सफ़र की. ये कहानी है संजीदा अली सोज नाम के एक ऐसे इंसान की जो शायर था, गांधी-भक्त था और साथ ही साथ एक तरक्कीपसंद मुसलमान भी था. ये कहानी है एक ऐसे बड़े भाई की जो अपने छोटे भाई की मकबूलियत को बर्दाश्त ना कर सका और उससे ताजिंदगी नफरत करता रहा. ये कहानी है मुल्ला किफायतुल्लाह की जिनका मानना था कि मजहब एक साथ सलामती से रहने के बजाय दूसरों को ख़त्म करने के बहानों का नाम हो गया है और जब किताबें पढने की बजाय पूजी जाने लगे तो गड़बड़ लाजमी है. ये कहानी दरअसल कहानी है ही नहीं. ये दस्तावेज है उन जिंदगियों का जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई.

ये किताब सच, कल्पना और इतिहास का ऐसा अनोखा मिश्रण है जिसकी सराहना किये बगैर नहीं रहा जा सकता. इस उपन्यास का कालखंड सन 1900 से लेकर 1947 तक का है. ये वो दौर था जब पूरा भारत एक संघर्ष के और बदलाव के दौर से गुजर रहा था. उस ऐतिहासिक कालखंड को हमारी कहानी के किरदारों की नजर से देखना एक दिलचस्प अनुभव है. न जाने कितनी ही ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं के सन्दर्भ आपको उस दौर के भारत को करीब से समझने में मदद करते है. फिर चाहे वो वलिउल्लाही तहरीक हो, खिलाफत आन्दोलन हो, स्वराज की मांग हो, मुस्लिम लीग की गतिविधियां हो या गांधी जी का भारतीय राजनीति के पटल पर उभरना हो. एक बहुत ही विस्तृत कैनवास पर उकेरी गई खूबसूरत तस्वीर की तरह ये किताब आपकी संवेदनाओं को झकझोर देती है.

एक मुस्लिम खानदान का इतनी बारीकी से चित्रण है इसमें की मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है. वो रिवायतें, वो आदतें, वो तहजीबें और वो हिमाकतें. सब कुछ मौजूद है इस उपन्यास में. भोपाल और दिल्ली शहर का इतनी खूबसूरती से जिक्र है की आप खुद को वहां मौजूद पाते हो. मुझे नहीं पता की ये लेखक की अपनी कहानी है या नहीं. पर लेखक की भाषा और कथानक पर जो पकड़ है उसके जादू से आप बच नहीं सकते. कहानी कहने के मामले में इस उपन्यास को एक नया प्रयोग कहा जा सकता है. और इस प्रयोग को इतनी सफाई से अमल में लाया गया है कि पता ही नहीं चलता कब हकीकत और कल्पना एक दूसरे में घुल मिल गए.

लेखक की धारदार लेखनी एक ही मुद्दे को कई अलग अलग नजरियों से दिखाने में कामयाब रही है. मंजूर एहतेशाम कई विचारधाराओं को अपने किरदारों के माध्यम से एक समान बेरहमी से काटते चले जाते हैं. फिर चाहे वो खोखला राष्ट्रवाद हो, अंधी मजहब परस्ती हो या बेतुका कम्युनिज्म.. सबकी खबर ली है उन्होंने. एक जगह बिरजू नाम का एक दलित किरदार कहता है,
"शर्म से पानी पानी होना एक लक्जरी है जिसे ऊँची ज़ात वाले ही अफोर्ड कर सकते है. कभी सोचा है आपने, इस मुल्क की मिटटी में ही ये तासीर है कि बराबरी का सबक लेकर इस्लाम भी आया, तो अशरफ़, अजलफ़ और अरज़ल में बंट गया."
तो दूसरी तरफ एक और किरदार 'जेहाद का जवाब धर्मयुद्ध' वाली सोच को फटकारता है. इसी तरह कई जगह मंजूर एहतेशाम साहब अतिवाद को धुत्कारते हुए नजर आते है.

इस कहानी के किरदार मेरे ज़हन में रच बस से गए है. अमतुल कबीर, जहांआरा बेगम, बंदा अली खान, अमीना बेगम, गुलबदन, मौलवी किफायतुल्ल्लाह, फरीदा, बिल्लो, बब्बो, ग़जल और ख़ास तौर से जनाब संजीदा अली सोज... हर एक का चरित्रचित्रण इतनी गहराई से किया गया है कि आपके सामने उस किरदार की तस्वीर सजीव हो उठती है. वो दौर, वो हालात, वो जज्बात आप महसूस कर सकते हो और यही लेखक की सबसे बड़ी जीत है.

मुझे हैरानी है की इस किताब को साहित्यिक जगत में कोई स्थान क्यूँ नहीं मिल पाया. इस किताब का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना. या ये मेरी अल्प जानकारी का नतीजा है..? जो भी हो, मेरा मानना है की ये किताब must read तो है ही साथ ही सहेज कर रखे जाने लायक भी है. कम से कम मैं तो इसे अभी कई कई बार पढूंगी.

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