Saturday, September 28, 2013

इक जरा सी रंजिश से

इक जरा सी रंजिश से,
शक की जर्द टहनी पर
फूल बदगुमानी के,
कुछ इस तरह से खिलते है...
ज़िन्दगी से प्यारे भी,
अजनबी से लगते है...
उम्र भर की चाहत को,
आसरा नहीं मिलता....
हाथ छूट जाते है,
साथ टूट जाते है,
और...
सिरा नहीं मिलता....
..................इक जरा सी रंजिश से....

Friday, September 27, 2013

मेरे सरहाने जलाओ सपने

कुछ गीत दिल से कभी जुदा नहीं होते... ऐसे ही चुनिन्दा गीतों में से एक गीत ये भी है.... गुलजार साहब के जादुई बोल जो सीधे दिल में उतर जाते है और आंसूओं का स्विच ऑन कर देते है.... हृदयनाथ मंगेशकर जी का बेजोड़ संगीत.... और उसपर लता की मखमली आवाज़..... किलर कॉम्बिनेशन......



https://www.youtube.com/watch?v=OGxGpqnr4AA

बोल कुछ यूं है.....

मेरे सरहाने जलाओ सपने
मुझे जरा सी तो नींद आये....

ख़याल चलते हैं आगे आगे,
मैं उन की छांव में चल रही हूं....
न जाने किस मोम से बनी हूं,
जो कतरा कतरा पिघल रही हूं...
मैं सहमी रहती हूं नींद में भी
कही कोई ख्वाब डस ना जाये.....

कभी बुलाता हैं कोई साया,
कभी उड़ाती हैं धूल कोई..
मैं एक भटकी हुई सी खुशबू,
तलाश करती हूं फूल कोई...
ज़रा किसी शाख पर तो बैठू
ज़रा तो मुझ को हवा झुलाये....

मेरे सरहाने जलाओ सपनें
मुझे जरा सी तो नींद आये......

तेरे जैसी आंखों वाले

तेरे जैसी आंखों वाले जब साहिल पर आते है,
लहरें शोर मचाती है लो आज समंदर डूब गया....!!

Thursday, September 26, 2013

नसीम - फिल्म समीक्षा


Photo: अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब.... 

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...
अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब....

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...

Wednesday, September 25, 2013

किसी के वास्ते खुद को संभाल रक्खा है

बिखर ना जाए कहीं ये ख़याल रक्खा है....
किसी के वास्ते खुद को संभाल रक्खा है....

हमारे हंसने हंसाने से यूं फरेब ना खा,
के हमने दर्द का दरिया खंगाल रक्खा है....

जुदा ही होना है तुम को तो जल्द हो जाओ,
न जाने अश्कों को कैसे संभाल रक्खा है....

तुम्हारा लम्स अकेले में हम को छूता है,
तो नाम हिज्र का हम ने विसाल रक्खा है...

वफ़ा है बाकी हमारे ही दम से दुनिया में,
तुम्हारा नाम तो यूं ही उछाल रक्खा है...

जवाब देते नहीं बन रहा है आज हमसे,
ये उसकी आंखों में कैसा सवाल रक्खा है....

---------- अज्ञात.

तू बहुत दूर, बहुत दूर गया था मुझसे

दश्त-ए-दरिया के उस पार कहां तक जाती....
घर की दीवार थी, दीवार कहां तक जाती....

मिट गई दीदार की हसरत भी रफ्ता-रफ्ता,
हिज्र में हसरत-ए-दीदार कहां तक जाती....

थक गए होंठ भी तेरा नाम लेते लेते,
एक ही लफ्ज़ की तकरार कहां तक जाती....

रहबर उसको सराबों में लिए फिरते है,
खलकत-ए-शहर की बीमार कहां तक जाती....

हर तरफ हुस्न के बाज़ार लगे थे यारो,
हर तरफ चश्म-ए-खरीदार कहां तक जाती....

तू बहुत दूर, बहुत दूर गया था मुझसे,
मेरी आवाज़, मेरे यार कहां तक जाती....

------------ अज्ञात.

Sunday, September 22, 2013

उसको छुट्टी ना मिली जिसको सबक याद हुआ

मकतब-ए-ईश्क में इक ढंग निराला देखा
उसको छुट्टी ना मिली जिसको सबक याद हुआ....

Saturday, September 21, 2013

मुझे दुःख है हमदम

मुझे दुःख है हमदम,
के तुम्हारे पास...
मुझे देने के लिए,
मुहब्बत का सिक्का तो है....
मगर मेरी मजबूरी है के,
मेरे पास वो कशकोल नहीं
जिसमे तुम.....
ये इनायत उछाल सको....
मुहब्बत की ये भीक डाल सको.....!!!

----------- अज्ञात.

बोलो तुमको गैर लिखे या अपना मीत लिखे

इक इक जीवन बनकर गुजरा प्यास का इक इक मील,
प्यास के हर हर मील पे आई आंसू की इक झील,
होठों के सूखे खाते में हार कि जीत लिखे....
बोलो तुमको गैर लिखे या अपना मीत लिखे.....


Friday, September 20, 2013

नज़र और नसीब

नज़र और नसीब का इत्तेफाक ऐसा है कि नज़र को अमूमन वही चीज पसंद आती है जो नसीब में नहीं होती.

Monday, September 16, 2013

ठोकर लगी तो अपने मुकद्दर पे जा गिरा

ठोकर लगी तो अपने मुकद्दर पे जा गिरा...
फिर यूं हुआ के आईना पत्थर पे जा गिरा...

एहसास-ए-फ़र्ज़ जब भी हुआ नींद आ गई,
चलना था पुल-सरात पे, बिस्तर पे जा गिरा...

खुशबू कसूरवार नहीं, उसको छोड दो,
मैं फूल तोड़ते हुए खंजर पे जा गिरा...

सहराओं में फिरता रहा पानी की जुस्तजू लिए,
जब प्यास मर गई तो समंदर पे जा गिरा....

-------------- अज्ञात.

Sunday, September 15, 2013

मैंने ठीक किया ना

मैंने ठीक किया ना....??????

कहते है जब घर में अचानक
ऐसी आग भड़क उठे
जो घर में मौजूद
हर एक शय को
अपनी लपेट में ले ले...
आग बुझाना मुश्किल हो और,
घर को बचाना नामुमकिन....
तो ऐसे में,
एक ही रास्ता रह जाता है...
जो बचता हो वो बचाओ..
घर की सबसे कीमती चीज़ें,
हाथ में लो,
और
उससे दूर निकल जाओ.....
मेरे दिल में भी ऐसी ही आग लगी थी...
मैंने जल्दी जल्दी,
आँख में तेरे बुझते 'ख्वाब' समेटे,
तेरी 'याद' के टुकड़े चुनकर ध्यान में रखे,
और उस आग में,
'दिल' को जलता छोड के,
दूर निकल आई हूँ.....

मैंने ठीक किया ना....??????????

------------ अज्ञात.

Friday, September 13, 2013

जाने ये लोग मुहब्बत को कहां रखते है

इतनी शिद्दत से इंतज़ार तो मुझे अपने दूल्हे का भी नहीं जितनी शिद्दत से मुझे 2014 का इन्तजार है.... आ के ही नहीं दे रहा कमबख्त.... आ जाए तो फेसबूकिया बुद्धिजीवियों से कुछ राहत मिले.... आ भी जाओ दुष्ट.... वरना फेसबुक पर नेट वीरों की अकल के टूटते तारे देख देख कर मैं पागल हो जाउंगी....

अपने सीने में तो नफरत को बहा रखते है...
जाने ये लोग मुहब्बत को कहां रखते है.....

Thursday, September 12, 2013

उसे ये कौन समझाए

उसे ये कौन समझाए....?

वो दश्त-ए-ख़ामोशी में
उँगलियों में सींपे पहने
किसी सूखे समंदर की
अधूरी प्यास की बातें
बहुत चुपचाप सुनता है...
बहुत खामोश रहता है...

उसे ये कौन समझाए....?

ख़ुशी के एक आंसू से,
समंदर भर भी सकते है....
बहुत खामोश रहने से,
ताल्लुक मर भी सकते है....

उसे ये कौन समझाए.....?

-----------------अज्ञात.

Sunday, September 8, 2013

"इज्ज़तों" से बढ़कर तो और कुछ नहीं होता

इज्ज़तों से बढ़कर तो और कुछ नहीं होता
***********************
***********************

इज्ज़तों से बढ़कर तो और कुछ नहीं होता...
चाहतों की डोरी को,
तोडना ही पड़ता है...
मंजिलों की कश्ती को,
मोड़ना ही पड़ता है...
भूलना ही पड़ता है,
खुद से प्यारे लोगों को...
और दिल के आंगन में,
नक्श उनकी तस्वीरें....
कुछ हसीन लफ़्ज़ों की,
कुछ हसीन तहरीरें...
पांव जिन में जकड़े हो,
उन सभी जंजीरों को,
खोलना ही पड़ता है....
खूबसूरत आंखों में,
बसने वाले ख्वाबों को,
नोचना ही पड़ता है....
दिल से मिलता हर रिश्ता,
तोडना ही पड़ता है.....

क्यूं के,

"इज्ज़तों" से बढ़कर तो और कुछ नहीं होता...

------------- अज्ञात.

Saturday, September 7, 2013

रेत से बुत ना बना ऐ मेरे अच्छे फनकार

रेत से बुत ना बना ऐ मेरे अच्छे फनकार,
एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूं.....

मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूं लेकिन
कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा
सुर्ख पत्थर जिसे दिल कहती है ये बेदिल दुनिया
या वो पथराई हुई आंख का नीला पत्थर,
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हो डोरे...

क्या तुझे रूह के पत्थर की ज़रूरत होगी,
जिस पे हक बात भी पत्थर की तरह गिरती है...

इक वो पत्थर है जिसे कहते है तहजीब-ए-सफ़ेद,
उसके मरमर में सियाह खून झलक जाता है...
इक इन्साफ का पत्थर भी तो होता है मगर,
हाथ में तेशा-ए-ज़र हो तो हाथ आता है...

जितने मेयार है इस दौर के सब पत्थर है,
शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर...
मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर,
इस ज़माने में हर फन का निशां पत्थर है,
हाथ पत्थर है तेरे, मेरी जुबां पत्थर है

रेत से बुत ना बना ऐ मेरे अच्छे फनकार,

एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूं.....

------------- अहमद नदीम कासमी.

Friday, September 6, 2013

अजीब पागल सी लड़की है

-----------------अजीब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है...
मुझे तुम याद करते हो...??
तुम्हें मैं याद आती हूं...??
मेरी बातें सताती है...??
मेरी नींदें जगाती है...??
मेरी आंखें रुलाती है...??
दिसंबर की सुनहरी धूप में,
अब भी टहलते हो...??
किसी खामोश रास्ते से,
कोई आवाज़ आती है...??
ठिठुरती सर्द रातों में,
तुम अब भी छत पे जाते हो...??
फलक के सब सितारों को,
मेरी बाते सुनाते हो...??
किताबों से तुम्हारे इश्क मे,
कोई कमी आई...??
या मेरी याद की शिद्दत से,
आँखों में नमी आई....???

-----------------अजीब पागल सी लड़की है,
-----------------मुझे हर ख़त में लिखती है,
-----------------जवाब उसे लिखता हूं....

मेरी मसरूफियत देखो,
सुबह से शाम ऑफिस में,
चिरागे उम्र जलता है...
फिर उसके बाद दुनिया की मजबूरियां,
पांव में बंधन डाल रखती है...
मुझे बेफिक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते...
टहलने, जागने, रोने की मोहलत नहीं मिलती...
सितारों से मिले अब अरसा हुआ...
नाराज़ हो शायद.....
किताबों से रिश्ता मेरा,
अभी वैसे ही कायम है...
फर्क सिर्फ इतना पड़ा है,
अब उन्हें अरसे में पढता हूं...

-----------------तुम्हें किसने कहा पगली,
-----------------तुम्हें मैं याद करता हूं...
के मैं खुद को भूलाने की,
मुसलसल जुस्तजू में हूं...
तुम्हें याद ना आने की,
मुसलसल जुस्तजू में हूं...
मगर ये जुस्तजू मेरी,
बहुत नाकाम रहती है...
मेरे दिन रात में अब भी,
तुम्हारी शाम रहती है....
मेरे लफ़्ज़ों की हर माला,
तुम्हारे नाम रहती है...

-----------------तुम्हें किसने कहा पगली,
-----------------तुम्हें मैं याद करता हूं....
पुरानी बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते है...
उन्हें हम याद करते है.. जिन्हें हम भूल जाते है...

------------------अजीब पागल सी लड़की है....

मेरी मसरूफियत देखो...
तुम्हें दिल से भुलाऊं तो तुम्हारी याद आये ना...
तुम्हें दिल से भूलाने कि मुझे फुरसत नहीं मिलती....

और इस मसरूफ जीवन में,
तुम्हारे ख़त का इक जुमला,
"तुम्हें मैं याद आती हूं..?"
मेरी चाहत कि शिद्दत में,
कमी होने नहीं देता...
बहुत रातें जगाता है,
मुझे सोने नहीं देता...
सो अगली बार ख़त में,
ये जुमला नहीं लिखना.....

------------------अजीब पागल सी लड़की है....
------------------मुझे फिर भी ये लिखती है....

~~~~~~~~"मुझे तुम याद करते हो...?"~~~~~~~~
~~~~~~~~"तुम्हें मैं याद आती हूं.....?"~~~~~~~~~

----------- अज्ञात. ( डायरी प्यारी के सौजन्य से. )

चाहत देश से आने वाले

साकी, शराब और मयखाने में मसरूफ रहने वाले पंकज उधास साहब ने कई बार जाम को दरकिनार कर और ग़ज़लें भी गाई है... जिनमे से कुछ बेहतरीन बन पड़ी है.... 

ऐसी ही एक ग़ज़ल पेशे-खिदमत है......

चाहत देश से आने वाले ये तो बता की सनम कैसे हैं
दिलवालों की क्या हालत है, प्यार के मौसम कैसे हैं

क्या अब अभी कोई बातों बातो में रोता है हँस देता है
उस राह की खुशिया कैसी हैं, उन गलियों के गम कैसे हैं...

क्या उसने हमारा नाम लिया, क्या उसने कभी हमें याद किया
क्या उसने कभी तुमसे पूछा, किस हाल में है हम कैसे हैं....

जुगनू, शबनम, तारे बनकर मेरे आंसू ढूंढ रहे हैं
आने वाले तू ही बता दे, मेरे हमदम कैसे हैं....



http://www.youtube.com/watch?v=tCbtNYIr4Jw

Tuesday, September 3, 2013

खतो-किताबत

बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की हमारी जनरेशन शायद वो आखरी जनरेशन होगी जिसने ख़त लिखने या ख़त पाने के रोमांच का अनुभव किया हो...( कुछ गंभीरतम मामलों में ख़त पहुंचवाने का भी रोमांच हुआ करता था.. ) हमारे बाद तो दुनिया हाईटेक हो गई... एसएमएस, ईमेल, बीबीएम, फेसबुक चैट, मोबाइल कालिंग आदि नए जमाने के संभाषण के तरीकों की ईजाद के बाद ख़त लिखना जैसे आउटडेटिड होकर रह गया है.... आजकल खतो-किताबत सिर्फ दफ्तरी कामों का हिस्सा बन कर रह गई है... dear sir/madam से शुरू होने वाले और thanking you पर ख़त्म होने वाले इन खतों में वो बात कहाँ जो उन खतों में हुआ करती थी जो, प्यारे दोस्त, आदरणीय पिताजी या जान से प्यारी बहना जैसे आत्मीय संबोधनों से शुरू होकर 'आपके प्यार के लिए प्रतीक्षारत' या 'आपकी मुहब्बतों का कर्ज़दार' जैसे जुमलों पर ख़त्म हुआ करते थे....

दूर-दराज के गांवों में रहने वाले लोगों के पास अपने परिजनों की खैरियत मालूम करने का एकमात्र जरिया हुआ करता था, पत्र लिखना.... शहर में रहते बेटे का ख़त आने पर माता-पिता को ऐसे लगता था जैसे कोई त्यौहार आ गया हो. डाकिये को गले लगाने की कसर रह जाती थी बस. अगर माता-पिता निरे अनपढ़ हो तो उस ख़त को पढ़कर सुनाने की जिम्मेदारी भी डाकिये की ही हुआ करती थी. या अगर डाकिया काबिले-यकीन ना हो तो पड़ोस के किसी बन्दे या बन्दी की मदद ली जाती थी. ऐसे मददगारों में कभी मेरा भी शुमार हुआ करता था. अपने बचपन में, पड़ोस में रहती एक आंटी को उनकी बेटी द्वारा उसकी ससुराल से लिखे गए कई ख़त मैंने पढ़कर सुनाये है. हर ख़त पढने पर एक रूपया मिला करता था. वो अनुभव अनोखा हुआ करता था. या यूं कहिये कि तब तो वो सब सामान्य ही लगता था पर आज के परिप्रेक्ष्य में वो ज्यादा अनोखा प्रतीत होता है. मेरे द्वारा पढ़े जा रहे हर शब्द को वो ऐसे ग्रहण किया करती थी जैसे गीता-पाठ हो रहा हो. उनकी बेटी के क्लिष्ट हस्तलेख को पढना यूं तो वैसे ही मसला था, ऊपर से वो शायद ख़त भी जल्दबाजी में लिखा करती थी. तो कई बार उसने क्या लिखा है ये समझना मुश्किल हो जाता था. और मैं उस समूचे वाक्य को ही गायब कर आगे बढ़ जाया करती थी. इससे होता ये था कि अगर उसमे कोई जरुरी बात लिखी हुई होती थी तो वो हमेशा के लिए राज ही रह जाती थी. ख़त पूरा करने के बाद उन आंटी के चेहरे पर जो भाव हुआ करते थे वो अद्भुत होते थे. यूं लगता था जैसे अभी अभी वो अपनी प्यारी बिटिया के गले लग के हटी हो..वो ज़माना अब सिर्फ यादों में सिमट कर रह गया है. जब की ये सिर्फ एक दशक पुरानी बात है. अब ना तो ख़त भेजने वाले रहे और ना ही उन्हें पढ़ाने वाले. बेटा शहर जाते ही अम्मा-बाबा के लिए मोबाइल भिजवा देता है. किस्सा ही ख़तम.

जब से शब्दों का अस्तित्व है लगभग तब से ही पत्रलेखन का सिलसिला चला आ रहा है. सदियों तक कागजों पर लिखे गये चंद अल्फाजों ने आत्मीय जनों के बीच की दूरियां मिटाई है. चाहे वो हज़ारों मीलों की ही क्यूं न हो. उनके तड़पते, तरसते कलेजे पर मुहब्बत भरे शब्दों का फाहा रखा है. उनकी बिछडन के दर्द को झेलती संतप्त आत्माओं को करार बक्शा है. बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की वो वैभवशाली युग समाप्ति की ओर अग्रसर है. या लगभग समाप्त ही है. और कमाल की बात ये की मानव-सभ्यता की होने वाली इस अपूरणीय क्षति की ओर हमारा ध्यान ही नहीं है.

पत्रलेखन की एक और किस्म का उल्लेख किए बिना ये दास्तान अधूरी होगी. प्रेम पत्र.... एक पीढ़ी पुराने लोगों की बात की जाए तो उनमे कोई विरला ही ऐसा होगा जिसने कभी कोइ प्रेम पत्र लिखने या पाने की अभिलाषा ना रखी हो.. प्रेम-पत्रों का तो अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है. अपने प्रेमी/प्रेमिका तक अपनी भावनाएं शब्दों के माध्यम से पहुंचाना एक लाजवाब अनुभव हुआ करता था. इसकी जगह ई-ग्रीटिंग्स,एसएमएस स्माइलीज या फेसबुक emoticons कभी नहीं ले सकते. किसी ने आपके लिए चोरी-छुपे, रातों को जागकर कुछ लिखा है ये फीलिंग ही एवेरेस्ट फतह करने के बराबर हुआ करती थी. फिर वो ख़त आपके लिए एक अमूल्य धरोहर बन जाता था. जिसको की छुपाना भी होता था और दिखाना भी. और फिर उसका जवाब लिखने का मजा तो कुछ और ही चीज़ हुआ करता था. वो लाइने लिखना, फिर उन्हें काटकर कुछ और लिखना, वो इस कशमकश में घंटो बरबाद करना की महबूब/महबूबा की तारीफ़ वाला शेर ख़त के शुरू में लिखा जाए की आखिर के लिए छोड़ा जाए. या दोनों जगह अलग अलग शेर चेंप दिए जाए. फिर ऊपर से उसमे रद्दोबदल करने की भी गुंजाइश हुआ करती थी. अब के फास्ट मेसेजिंग के दौर में फ़र्ज़ कीजिये की आपने कोई ग़ालिब का शेर टाइप किया और जल्दबाजी में send कर दिया. भेजते ही आपको कोई फराज का या फैज़ का या बशीर बद्र साहब का और ज्यादा बेहतरीन शेर याद आ गया. पर तब तक तो गाडी निकल चुकी न... तब तक तो सामने वाला उसे पढ़कर जवाब में 'मीर' का कोई शेर रवाना कर भी चुका होता है.. हट... ये भी कोई तरीका हुआ...? जरा ठहराव नहीं... जरा इत्मीनान नहीं... वो ज़माना भी क्या ज़माना था जब ख़त लिखने से लेकर उसका जवाब आने तक का वक्त एक अजीब सी बेकरारी में गुजरा करता था. पत्रों का आदान-प्रदान भी एक लम्बी प्रक्रिया हुआ करती थी. पहले तो घंटो बरबाद कर के ख़त लिखना, फिर उसे भिजवाने के लिए निश्चित किए गए बिचौलिए की जी-हुजूरी करना, उसकी जायज-नाजायज मांगे पूरी करना, फिर उससे 'सक्सेसफुल डिलीवरी' की रिपोर्ट प्राप्त करना, फिर एक लम्बा इन्तजार ( जो कुछ मामलों में वाकई लम्बा होता है और बाकी मामलों में ना होकर भी लम्बा लगता है ), फिर एक बार फिर बिचौलिए के नखरे उठाना, फिर जवाब की प्राप्ति..... कुल मिलाकर बोर्ड एक्जाम्स जितना ही गंभीर हुआ करता था ये सिलसिला.. बड़ा दुःख होता है ये जानकर की हमारी आने वाली पीढियां एक ऐसे अनुभव से विमुख ही रहेंगी जो सदियों मानव-सभ्यता का एक अभिन्न अंग रहा है...

इस मरती हुई विधा को बचाने की जरुरत है मित्रों... वरना पत्र-लेखन इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगा. वो दिन दूर नहीं जब हमारे नाती-पोते हमसे ये पूछ बैठे की ये अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के प्रिंसिपल को पत्र क्यूं लिखा था..? एक फोन कॉल क्या ज्यादा 'बेटर आप्शन' नहीं था...? उन्हें 'बेटर आप्शन' और 'बेस्ट आप्शन' का फर्क समझाने के लिए इस विधा का जिंदा रहना जरुरी है. और ये हम ही कर सकते है. इसकी जिम्मेदारी हम पर ही है. क्यूं की हम ही हैं जो आखरी पायदान पर खड़े है. हम ही है जो ये जानते है की एक सादा कागज़ पर लिखे गए सादा से अल्फाज़ कितने मायने रखते है. हमें ये जानकारी अगली पीढ़ी तक पहुंचानी ही होगी. और ये ज्यादा मुश्किल भी नहीं. माना के संचार के माध्यमों की इतनी भव्य मात्रा में उपलब्धता के बाद पत्र लिखना थोडा अटपटा लगता होगा आपको. पर यकीन जानिये इसकी सार्थकता में कोई कमी नहीं आई है. दूरदराज के रहने वाले अपने मित्रों को ख़त लिखिए.. चाहे महीने में एक बार ही सही. इत्मीनान से, ठहराव से, आप अपनी ज़िन्दगी की कई घटनाएं उनके साथ साझा कर सकते है. शब्दों के माध्यम से उन्हें अमर भी कर सकते है. पत्रलेखन यादों को जिंदा रखने का एक सशक्त माध्यम है. इसकी अनदेखी ना कीजिये. ख़त लिखिए, ख़त प्राप्त कीजिये और उस ज़माने की यादों में लौट जाइए जहां संदेसा आने में भले ही वक्त लगा करता था पर ज़ज्बात आर्टिफिशियल नहीं हुआ करते थे...

इतने जरुरी विषय की तरफ मेरा ध्यानाकर्षण करने के लिए हितेंद्र भाई को धन्यवाद.

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कुछ जरूरी टिप्पणियाँ - 

हितेन्द्र अनंत-   कुछ मित्रों का कहना है कि इस युग में पत्र लेखन की कोई भी उपयोगिता नहीं है। चूँकि संवाद के नये माध्यम (ईमेल, चैट, फोन आदि) आ गये हैं, इसलिये इस जमाने में पत्र लिखना पिछड़ेपन का परिचायक होगा।

समाचार और प्रसार के माध्यमों का उदाहरण लीजिये। रेडियो, टीवी, छपा हुआ अख़बार, ब्लॉग, इंटरनेट, सभी एक साथ जी रहे हैं। एक के बाद जब कभी अगला नया माध्यम आया तो कहा गया कि अब पुराना माध्यम खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। माध्यमों का उपयोग न्यूनाधिक मात्रा में हो सकता है, लेकिन प्रत्येक माध्यम की अपनी एक उपयोगिता होती है।

1. कुछ बातें होती हैं जिन्हें सिर्फ प्रत्यक्ष कहा जा सकता है।
2. जिन बातों को प्रत्यक्ष कहना संभव न हो उन्हें लिखकर कहा जा सकता है।
3. बहुत से समाचार फोन पर कहे नहीं जा सकते।
4. बहुत से भाव कहने से व्यक्त नहीं हो पाते, लिखने से हो जाते हैं।
5. बहुत सी बातें "तत्काल" कहीं जाएँ ऐसा आवश्यक नहीं होता, उन्हें सोच-समझकर आराम से लिखा जा सकता है।
6. प्रत्येक माध्यम का अपना सौंदर्य है। फोन पर आवाज है, तो अन्य माध्यमों में शब्द हैं।
7. पत्र के आने में जो "प्रतीक्षा" का तत्व है, वह अनेक सशक्त भावों को जन्म दे सकता है, वह संवादकर्ताओं के बीच रोमांच, व्याकुलता और धैर्य का संतुलन भी पैदा करता है।
8. फोन का अति-उपयोग हानिकारक है। कई बार तो यह बोझिल भी हो जाता है।
9. इस जमाने में यदि पत्र लिखे जाएँगे तो उनकी विषय वस्तु अलग होगी। वे संवाद के अन्य माध्यमों के बीच अपनी जगह स्वयं बना लेंगे।
10. पत्रों का संवाद के अन्य माध्यमों के साथ "सम्मानपूर्वक-सहअस्तित्व" संभव है।
11. पत्रों के पाने में स्पर्श की गर्माहट, लिखावट का सौंदर्य और अपनेपन की जो सुगंध है वह अन्य माध्यमों में नहीं।
12. पत्र वह माध्यम है जिसे जीवित रखने की आवश्यकता है। उसे कम से कम मरने से बचाने की आवश्यकता है।
-हितेन्द्र


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 इतने गंभीर विषय को छेड़ कर गायब हो जाने के लिए माफ़ी चाहूंगी मित्रों.. पर उम्मीद है आप समझते होंगे की और भी गम हैं ज़माने में फेसबुक के सिवा.....
खैर, मुझे इस बात की ख़ुशी है की ज्यादातर मित्रों ने पत्र-लेखन के महत्व को जाना है और अपने माजी के कुछ किस्सों के माध्यम से इससे अपना जुड़ाव भी व्यक्त किया है... उम्मीद है की हम इस विधा को बचाए रखने के लिए जरुरी प्रयत्नों में अपना अपना गिलहरी का हिस्सा जरुर अदा कर पायेंगे...
. मेरी मंशा आज की टेक्नोलॉजी में कीड़े निकालने की नहीं है... मैंने ये कभी नहीं कहा की हमें ये सब त्याग कर उस दौर में लौट जाना चाहिए... हर एक चीज़ का अपना महत्व है... मेरा सिर्फ इतना कहना है की हमें पत्रलेखन जैसी विधा को यूं त्याग नहीं देना चाहिए... आप माने या ना माने लेकिन अपने हाथ से लिखा गया ख़त आपकी भावनाओं की सबसे गहरी अनुभूतियां समेटे होता है.. उसकी बराबरी नहीं की जा सकती...

और आपकी ये बात की मैं चिट्ठी लिखकर अपनी बात पूरी दुनिया तक नहीं पहुंचा सकती थी मुझे समझ नहीं आई... पत्रलेखन को मैं अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का जरिया नहीं बनाना चाहती, ये तो नितांत व्यक्तिगत लेखन है सर... ख़त आप अपने किसी अज़ीज़ को लिखेंगे ना की उसका यूज पब्लिक ब्रोडकास्टिंग टूल के तौर पर करेंगे... हमें व्यक्ती से व्यक्ती के भावनात्मक जुड़ाव की जड़ें मजबूत करनी है... और मेरा दृढ़ता से मानना है की पत्रलेखन इसमें बहुत ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकता है... यकीन ना आये तो इस बार अपने उन दोस्तों को जिन्हें आप उनके जन्मदिन पर एक sms भेजकर छुट्टी पा लेते है, इस बार एक छोटा सा ख़त लिखिए... बधाई संदेस के साथ कुछ आत्मीयता जताने वाले शब्द... यकीन जानिये उस शख्स को ये एक अमूल्य भेंट प्रतीत होगी... आजमा कर देख लीजियेगा...
 

Monday, September 2, 2013

तुम्हारा ख़त मिला जानां

तुम्हारा ख़त मिला जानां
वो जिसमे तुमने पूछा है
के अब हालात कैसे है...?
मेरे दिन रात कैसे है...?
मेहरबानी तुम्हारी है
के तुमने इस तरह मुझसे मेरे हालात पूछे है
मेरे दिन रात पूछे है
तुम्हें सब कुछ बता दूंगा
मुझे इतना बता दो के...
कभी सागर किनारे पर
किसी मछ्ली को देखा है
के जिसको लहरें पानी की
किनारे तक तो लाती है
मगर फिर छोड जाती है
मेरे हालात ऐसे है...
मेरे दिन रात ऐसे है.......

-------- अज्ञात..

Sunday, September 1, 2013

दो तरह की दुनिया

दो तरह की दुनिया से मेरा वास्ता पड़ता हैं... एक हैं फेसबूकी दुनिया.... जहां अधिकतर लोग मुझे पसंद करते हैं, मेरा सम्मान करते हैं, मुझे कहते रहते है की मुझमे प्रतिभा है, मेरा स्वभाव अच्छा है, मेरी पसंद अच्छी है वगैरह वगैरह...

दूसरी दुनिया है हकीकी दुनिया... इसमें मेरी इमेज, अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की, कुछ ख़ास नहीं हैं... मेरे मोहल्ले पड़ोस की लडकियां समझती हैं की मैं किताबी कीड़ा हूं.. ( ये इल्जाम कबूल किया जा सकता है ).. आंटियां समझती हैं की उनकी गॉसिप का हिस्सा न बनकर मैं खुद को घमंडी साबित कर चुकी हूं.. और भाई-बहनों का मानना है की मैंने थोड़ी सी पढ़ाई क्या कर ली खुद को ज्यादा ही समझदार समझने लगी हूं...

और मैं हूं की इन दोनों दुनियाओं में पेंडुलम की तरह लटकी रहती हूँ... ये जाने बगैर की हकीकत के ज्यादा करीब कौन सी दुनिया हैं...

ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या हैं....???