Wednesday, December 18, 2013

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे गलत थे जवाब क्या देते

------- मुनीर नियाजी.

क्या मेरे सिवा शहर में मासूम है सारे

हर जुर्म मेरी जात से मंसूब हुआ है,
क्या मेरे सिवा शहर में मासूम है सारे....??

-------- अज्ञात.

रीढविहीन लोगों में आत्मसम्मान

ये चुनावी मौसम भी जो ना करवाये वो थोडा है...
बताओ तो, दुनिया के चौधरी को धमका दिया...
रीढविहीन लोगों में आत्मसम्मान की ऐसी भावना देख कर आँखें भर आई....

Sunday, December 15, 2013

इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है

"हिस्ट्री इज अ क्रॉनिकल ऑफ़ क्राइमस, फॉलीज़ एंड मिसफॉर्चयूनस...!"

उर्दू तर्जुमा :-
"तारीख़ जराइम, हिमाक़तों और बदकिस्मती की फ़ेहरिस्त का दूसरा नाम है...!"

हिंदी अनुवाद :-
"इतिहास और कुछ नहीं अपराध, मूर्खता और दुर्भाग्य का वृत्तांत भर है..."

----------------- बशारत मंज़िल से ( मंज़ूर एहतेशाम )

Saturday, December 14, 2013

बशारत मंजिल - मंजूर एहतेशाम

पिछले दिनों एक किताब पढ़ी. मंजूर एहतेशाम की 'बशारत मंजिल.' शुरू शुरू में इस किताब को पढ़ते वक्त थोड़ी बोरियत महसूस हुई. पर जैसा कि मेरी आदत है कि मैं किसी भी किताब को अधूरा नहीं छोडती, मैंने उसे पढना जारी रखा. थोडा आगे जाकर मेरी दिलचस्पी जागृत हुई, थोडा और आगे पढ़कर मुझे उसमे बहुत आनंद आने लगा और किताब ख़त्म होते होते ये किताब मेरी पसंदीदा किताबों की लिस्ट में काफी उंचे स्थान पर विराजमान हो गई. एक बेहतरीन अनुभव रहा इस किताब को पढना.

'बशारत मंजिल' कहानी है एक मुस्लिम खानदान कि तीन से ज्यादा पीढ़ियों के जीवन सफ़र की. ये कहानी है संजीदा अली सोज नाम के एक ऐसे इंसान की जो शायर था, गांधी-भक्त था और साथ ही साथ एक तरक्कीपसंद मुसलमान भी था. ये कहानी है एक ऐसे बड़े भाई की जो अपने छोटे भाई की मकबूलियत को बर्दाश्त ना कर सका और उससे ताजिंदगी नफरत करता रहा. ये कहानी है मुल्ला किफायतुल्लाह की जिनका मानना था कि मजहब एक साथ सलामती से रहने के बजाय दूसरों को ख़त्म करने के बहानों का नाम हो गया है और जब किताबें पढने की बजाय पूजी जाने लगे तो गड़बड़ लाजमी है. ये कहानी दरअसल कहानी है ही नहीं. ये दस्तावेज है उन जिंदगियों का जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई.

ये किताब सच, कल्पना और इतिहास का ऐसा अनोखा मिश्रण है जिसकी सराहना किये बगैर नहीं रहा जा सकता. इस उपन्यास का कालखंड सन 1900 से लेकर 1947 तक का है. ये वो दौर था जब पूरा भारत एक संघर्ष के और बदलाव के दौर से गुजर रहा था. उस ऐतिहासिक कालखंड को हमारी कहानी के किरदारों की नजर से देखना एक दिलचस्प अनुभव है. न जाने कितनी ही ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं के सन्दर्भ आपको उस दौर के भारत को करीब से समझने में मदद करते है. फिर चाहे वो वलिउल्लाही तहरीक हो, खिलाफत आन्दोलन हो, स्वराज की मांग हो, मुस्लिम लीग की गतिविधियां हो या गांधी जी का भारतीय राजनीति के पटल पर उभरना हो. एक बहुत ही विस्तृत कैनवास पर उकेरी गई खूबसूरत तस्वीर की तरह ये किताब आपकी संवेदनाओं को झकझोर देती है.

एक मुस्लिम खानदान का इतनी बारीकी से चित्रण है इसमें की मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है. वो रिवायतें, वो आदतें, वो तहजीबें और वो हिमाकतें. सब कुछ मौजूद है इस उपन्यास में. भोपाल और दिल्ली शहर का इतनी खूबसूरती से जिक्र है की आप खुद को वहां मौजूद पाते हो. मुझे नहीं पता की ये लेखक की अपनी कहानी है या नहीं. पर लेखक की भाषा और कथानक पर जो पकड़ है उसके जादू से आप बच नहीं सकते. कहानी कहने के मामले में इस उपन्यास को एक नया प्रयोग कहा जा सकता है. और इस प्रयोग को इतनी सफाई से अमल में लाया गया है कि पता ही नहीं चलता कब हकीकत और कल्पना एक दूसरे में घुल मिल गए.

लेखक की धारदार लेखनी एक ही मुद्दे को कई अलग अलग नजरियों से दिखाने में कामयाब रही है. मंजूर एहतेशाम कई विचारधाराओं को अपने किरदारों के माध्यम से एक समान बेरहमी से काटते चले जाते हैं. फिर चाहे वो खोखला राष्ट्रवाद हो, अंधी मजहब परस्ती हो या बेतुका कम्युनिज्म.. सबकी खबर ली है उन्होंने. एक जगह बिरजू नाम का एक दलित किरदार कहता है,
"शर्म से पानी पानी होना एक लक्जरी है जिसे ऊँची ज़ात वाले ही अफोर्ड कर सकते है. कभी सोचा है आपने, इस मुल्क की मिटटी में ही ये तासीर है कि बराबरी का सबक लेकर इस्लाम भी आया, तो अशरफ़, अजलफ़ और अरज़ल में बंट गया."
तो दूसरी तरफ एक और किरदार 'जेहाद का जवाब धर्मयुद्ध' वाली सोच को फटकारता है. इसी तरह कई जगह मंजूर एहतेशाम साहब अतिवाद को धुत्कारते हुए नजर आते है.

इस कहानी के किरदार मेरे ज़हन में रच बस से गए है. अमतुल कबीर, जहांआरा बेगम, बंदा अली खान, अमीना बेगम, गुलबदन, मौलवी किफायतुल्ल्लाह, फरीदा, बिल्लो, बब्बो, ग़जल और ख़ास तौर से जनाब संजीदा अली सोज... हर एक का चरित्रचित्रण इतनी गहराई से किया गया है कि आपके सामने उस किरदार की तस्वीर सजीव हो उठती है. वो दौर, वो हालात, वो जज्बात आप महसूस कर सकते हो और यही लेखक की सबसे बड़ी जीत है.

मुझे हैरानी है की इस किताब को साहित्यिक जगत में कोई स्थान क्यूँ नहीं मिल पाया. इस किताब का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना. या ये मेरी अल्प जानकारी का नतीजा है..? जो भी हो, मेरा मानना है की ये किताब must read तो है ही साथ ही सहेज कर रखे जाने लायक भी है. कम से कम मैं तो इसे अभी कई कई बार पढूंगी.

झूठ ने इस खूबी से अपनी जड़ें मजबूत कर ली

झूठ ने इस खूबी से अपनी जड़ें मजबूत कर ली,
बड़ा मुश्किल हुआ फिर सच को सच साबित करना...

----- ज़ारा.

Wednesday, December 11, 2013

रौशन मिजाज लोगों का, क्या अजब मुकद्दर है

मेरी एक बहुत ही पसंदीदा नज्म उन लोगों को समर्पित जो बिना कोई शोर शराबा किये अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन किये जाते हैं. जो बिना किसी स्वार्थ के लोगों में खुशियां बांटते रहते है और बदले में कुछ नहीं मांगते. उनके जज्बे को सलाम...!!!

रौशन मिजाज लोगों का,
क्या अजब मुकद्दर है..
जिंदगी के रास्ते में आने वाले काँटों को,
राह से हटाने में...
एक एक तिनके से,
आशियां बनाने में..
खुशबूएं पकड़ने में,
गुलिस्तां सजाने में,
उमर काट देते हैं...
और अपने हिस्से के फूल बांट देते हैं...
कैसी कैसी ख्वाहिश को,
क़त्ल करते जाते है..
दरगुजर के गुलशन में,
अब्र बनके रहते है..
सब्र के समंदर में,
कश्तियां चलाते है..

ये नहीं के उनको इस,
रोज-ओ-शब की कोशिश का,
कुछ सिला नहीं मिलता...
मरने वाली आसों का,
खून बहा नहीं मिलता...
ज़िन्दगी के दामन में,
जिस कदर भी खुशियां हैं,
सब ही हाथ आती है..
सब ही मिल भी जाती है..
वक्त पर नहीं मिलती
वक्त पर नहीं आती..
यानी उनको मेहनत का,
अज्र मिल तो जाता है..
लेकिन इस तरह जैसे,
कर्ज की रकम कोई
किश्त किश्त हो जाये..
अस्ल जो इबारत हो,
पस-ए-नविश्त हो जाये...
फस्ल-ए-गुल के आखिर में,
फूल उनके खिलते है...
उनके आंगन में सूरज,
देर से निकलते है...

उनके आंगन में सूरज देर से निकलते है....!!!

----------------- अफ़सोस के साथ ये भी अज्ञात.

Tuesday, December 10, 2013

बेख्वाब सआअतों का का परस्तार कौन है

बेख्वाब सआअतों का का परस्तार कौन है ?
इतनी उदास रात में बेदार कौन है ?

सब कश्तियां जलाके चले साहिलों से हम,
अब तुम को क्या बताये के उस पार कौन है ?

ये फैसला तो शायद वक्त भी ना कर सके,
सच कौन बोलता है अदाकार कौन है ?

( और ये आखिरी शेर आज के दौर की राजनीति को समर्पित )

किसको है ये फ़िक्र के कबीले का क्या हुआ,
सब इस पे लड़ रहे है के सरदार कौन है ?

--------- अज्ञात.

जरा सी देर को आये थे ख्वाब आँखों में

जरा सी देर को आये थे ख्वाब आँखों में 
फिर उसके बाद मुसलसल अजाब आँखों में
वो जिसकी निसबत से रौशन था सारा वजूद,
खटक रहा है वही आफताब आँखों में...

--------- अज्ञात.

Sunday, December 8, 2013

ईलाका तेरा, धमाका मेरा

मुख्यमंत्री जी जिस भी सीट से कहे वहीं से लडूंगा और जीत के भी दिखाऊंगा.

--------- अरविन्द केजरीवाल. ( कुछ महीनों पहले )

आज उसे साबित भी करके दिखा दिया. नई दिल्ली सीट से मुख्यमंत्री जी को ( उफ्फ भूतपूर्व मुख्यमंत्री जी को ) बड़े मार्जिन से हराया. भारतीय राजनीति में ये भी एक दुर्लभ उदाहरण रहा कि किसी आम आदमी ने तीन बार की मुख्यमंत्री को चैलेंज दे के हराया. मज़ा आ गया.

पता नहीं क्यूँ एक डायलॉग याद आ रहा है....

""ईलाका तेरा... धमाका मेरा...""


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अगर भाजपा सरकार बना लेती है तो कोई बात ही नहीं लेकिन हंग हाउस की स्थिति में दुबारा चुनाव तय है. जनता ने आप को परिवर्तन के लिए वोट दिया है. वो लोग जहीन है, इस बात को समझते है. वो लोग खुद की भ्रूणहत्या नहीं करेंगे. अगर अपने स्टैंड पर डटे रहे तो कल इनका है.

इस बात से सहमत की केजरीवाल साहब ने अभी कुछ किया नहीं है.. पर एक बात जरुर की है. आज उस बन्दे की वजह से विधायकों की खरीद-फरोख्त करने का खेल दिल्ली में नहीं हो पा रहा. ये भी एक शुभ संकेत है की नेता लोग अब समझने लगे है की जनता को जवाब भी देना पड़ सकता है. 

आम आदमी पार्टी और दिल्लीवालों को बधाई

सवा सौ साल पुरानी पार्टी को उसके गढ़ में धुल चटाकर आम आदमी पार्टी ने साबित कर दिया कि अगर विकल्प हो तो जनता उसे अपनाने में नहीं हिचकेगी. ये भारतीय राजनीति में निस्संदेह एक नई शुरुआत है. ये सही मायनों में और कई पैमानों पर लोकतंत्र की जीत है. ये एक सबक है दो प्रमुख पार्टियों के लिए कि वो जनता को ग्रांटेड लेना छोड़ दे. जब भी, जहां भी मौका मिलेगा लोग उन्हें उखाड़ फेकेंगे. काश ऐसे विकल्प सारे भारत में उपलब्ध हो जाए.

खैर, फिलहाल आम आदमी पार्टी और दिल्लीवालों को बधाई...

p.s. मुझे नहीं पता था की मेरी तुच्छ सी अपील को इतना सीरियसली लिया जाएगा. शुक्र है मेरे एक मित्र के कहे अनुसार मुझे 'शर्मिंदा' नहीं होना पड़ा.


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हम भाग्यशाली है की भारत जैसे देश में रहते है. जहां हम अपने रहनुमा बेबाकी से चुन सकते है. चुनाव धांधली, प्रलोभन, जातीय समीकरण आदि आदि मुद्दों के होने बावजूद भी अगर देश का प्रबुद्ध माना जाने वाला तबका एक साल भर पुरानी पार्टी को दिल खोल के वोट करता है तो ये शुभ संकेत है. और मैं फिर दोहराती हूँ  कि लोकतंत्र की जीत है.

सरकार बनाने की पोजीशन में होने के बावजूद भी ये लोग कह रहे है की हम जनमत का सम्मान करेंगे. ये अच्छी शुरुआत तो यकीनन है. बाकी जो आपकी शंकाएं हैं वो सही भी हो सकती है पर ये अगर मगर की बातें है. ये सब हम इन्हें परखने के बाद कहें तो बेहतर. वैसे भी अगर ये नहीं तो कौन वाला सवाल भी है ही.

रहा सवाल मोदी का तो उसके बारे में सर धुनने का क्या फायदा..? जो खिलाफ है वो रहेंगे ही. जो समर्थक है वो तो हैं ही. जो होगा सामने आ जाएगा. कल के चुनावों से मेरा भरोसा बढ़ा है लोगों में.
 

Saturday, December 7, 2013

मंदिर मस्जिद

एक नास्तिक मंदिर तोड़ने की बात करता है. लोग उसे गरियाते हैं, उसको भला बुरा कहते है और आगे बढ़ जाते हैं. कोई सीरियसली नहीं लेता.
एक नास्तिक मस्जिद तोड़ने की बात करता है. लोग उसे गरियाते हैं, उसको भला बुरा कहते है और आगे बढ़ जाते हैं. कोई सीरियसली नहीं लेता.

एक मुस्लिम मंदिर तोड़ने की बात करता है. तुरंत हिन्दू अस्मिता जाग जाती है. साले मुल्ले की हिम्मत कैसे हुई ? जिस आदमी ने महीनों से मंदिर की शक्ल भी ना देखी हो वो भी आस्तीनें चढ़ाकर मैदान में कूद जाता है. भगाओ इन म्लेच्छों को बाहर. आतंकी साले. देश का सत्यानास कर रखा है. एक तरह का कम्पटीशन शुरू हो जाता है कि कौन इस शख्स को सबसे ज्यादा गन्दी और यूनिक गाली देगा. एक पागल का प्रलाप पूरे मजहब को परखने का पैमाना बन जाता है. औरंगजेब, बाबर, जिन्ना, लादेन और पता नहीं किन किन मरे हुए लोगों के किये की सफाई जिंदा लोगों से मांगी जाती है. और अंतिम निष्कर्ष ये निकलता है कि ये लोग वफादार हो ही नहीं सकते. इन्हें तो दूर ही रखो.

एक हिन्दू मस्जिद तोड़ने की बात करता है. तुरंत इस्लाम खतरे में आ जाता है. काफिर की इतनी जुर्रत..? ये दोजखी कीड़ा खुद को समझता क्या है ? इसका तो वजूद मिटा देंगे हम. वो शख्स जिसने जुमे के अलावा कभी मस्जिद में कदम ना रखा हो वो भी मस्जिद का सबसे बड़ा मुहाफिज बनकर जंग में कूद जाता है. खूब तरीके से अगले की माँ बहनों से पारिवारिक रिश्ते स्थापित किये जाते है. ये भूल कर की पब्लिक फोरम पर गाली-गलौच कर के हम अपने ही संस्कार उजागर कर रहे हैं. अगले की आस्थाओं का भरपूर मजाक उड़ाकर और मारने, काटने, पीटने की करोड़ों धमकियां जारी करने के बाद अंतिम निष्कर्ष ये निकलता है कि ये कौम किसी की सगी नहीं हो सकती. इन्हें तो दूर ही रखो.

अजीब सर्कस है यार..!!

नफरत का बीज बोकर हम लोग मुहब्बत कि फसल की उम्मीद कैसे कर सकते है ? वही तो पायेंगे जो देंगे. गाली देंगे तो गाली ही वापस आएगी. लेकिन फूल देंगे तो यक़ीनन गुलदस्ता आएगा. इत्ती सी बात समझने के लिए कोई आलिम फाजिल होना पड़ता है ? हम अपने अपने धर्म की न जाने कितनी बातें खोज निकालते है जो हमारी नफरत को जस्टिफाई करती है. पर जो बेसिक शिक्षा है वो हम किस सफाई से नजरअंदाज़ कर जाते है. हर धर्मग्रन्थ की जो बुनियादी सीख है वो यही है की प्राणिमात्र से प्रेम करो. इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं है की कुत्ते-बिल्लियों को गले लगाओं और इंसानों के गले काट दो. जब तक हम इंसान को धर्म/रंग/नस्ल आदि आदि चश्मे से देखना बंद नहीं कर देते तब तक हमारी इबादतों का, हमारी प्रार्थनाओं का कोई मोल नहीं. फिर भले ही पूरी दुनिया को मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों से पाट दो. अगर हमारे दिल में उस परमात्मा की करुणा का कोई अंश नहीं बचा है तो ये तय मानिए हम उसके द्वारा निर्मित सबसे बेहतरीन कृति से एक निकृष्ट प्रजाति में तब्दील हो गए है. और ये हमारा ही किया धरा है. इसे हमें ही सुधारना होगा.

"मंदिर की सीढ़ियों पे बैठके, मस्जिद से आती अजां सुनी मैंने
जहां नफरतों का वजूद ना हो, ऐसी दुनिया की तस्वीर बुनी मैंने
वो रास्ता जिस पे चल के, हुआ इंसानियत का कत्लेआम,
छोड़ उस रहगुजर को, राह अमन-ओ-मुहब्बत की चुनी मैंने."

Friday, December 6, 2013

कायरता

ये जानते हुए भी कि क्या सही है, उसे ना करना कायरता है.

------ कन्फ्यूशियस.

हम करे बात दलीलों से तो रद होती है

हम करे बात दलीलों से तो रद होती है
उसके होठों की ख़ामोशी भी सनद होती है

अपनी आवाज़ के पत्थर भी ना उस तक पहुंचे,
उसकी आँखों के इशारे में भी जद होती है

सांस लेते हुए इंसान भी है लाशों की तरह,
अब धड़कते हुए दिल की भी लहद होती है

जिस की गर्दन में है फंदा वहीं इंसा है बड़ा,
सूलियों से यहां पैमाइश-ए कद होती है

कुछ ना कहने से भी छीन जाता हैं ऐजाज़े सुखन,
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है

सर से गुजरा भी चला जाता है पानी की तरह,
जानता भी है कि बर्दाश्त की हद होती है

मैंने हर सांस में काटी है मुज़फ्फर सदियां,
मेरे इमरोज़ में तारीख अबद होती है

~~~~~~~ मुज़फ्फर वारसी.

Thursday, December 5, 2013

मम्मो : फिल्म समीक्षा

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'... 

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है. 

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का. 

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा. 

श्याम बेनेगल एक बेहतरीन फिल्मकार हैं. भारतीय सिनेमा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है. सिनमा की और इंसानी ज़िन्दगी की जितनी गहरी समझ उन्हें है वो भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम देखने को मिलती है. अंकुर, भूमिका, जूनून, कलयुग, सूरज का सातवा घोडा जैसी कई बेहतरीन फ़िल्में दी है उन्होंने. कल रात उनकी एक और मास्टरपीस फिल्म देखने का मौका मिला. 'मम्मो'...

मम्मो कहानी है एक ऐसी महिला की जो जन्म से भारतीय है पर बंटवारे के वक्त जिसे अपने पति के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा था. अपनी दो बहनों से दूर, अपनी जड़ों से दूर.. अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. अपने ससुराल वालों के बुरे सुलूक से तंग आकर वो अपनी बहन के पास हिन्दुस्तान आई हैं. तीन महीने के अस्थाई वीजा पर. पाकिस्तान लौटने की उसकी कतई मंशा नहीं है. पर उसे यहां रहने कौन देगा..? पहले तो वो बीमारी का बहाना बनाकर वीजा की मियाद बढ़वाती है, फिर पुलिस अफसर को रिश्वत देने जैसे तरीके इस्तेमाल करती है. अंत में उसे जबरन डिपोर्ट कर पाकिस्तान भेज दिया जाता है.

महमूदा बेगम उर्फ़ मम्मो की ये कहानी जितनी मर्मस्पर्शी है उतनी ही विचारोत्तेजक भी. इस फिल्म के कई पहलू हैं. मम्मो की बहन का एक नवासा है. रिजवान उर्फ़ रिज्जू. रिज्जू की माँ मर चुकी है और बाप उसे छोड़ कर जा चुका है. उसकी नानी ने उसे बड़ी जद्दोजहद से पाला है. अच्छे स्कूल में दाखिल कराया है. जहां वो फ़र्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता है और एक जिज्ञासु किशोर से आत्मविश्वासी युवक बनने की ओर अग्रसर है. मम्मो से उसका रिश्ता अजीब तरह का है. शुरू शुरू में वो मम्मो को अपनी निजता पर आक्रमण समझता है पर बाद में काफी घुल मिल जाता है. रिज्जू लेखक बनना चाहता है. वो खलील जिब्रान को पढता रहता है. अंग्रेजी से अनजान मम्मो उसे बदले में फैज़ अहमद फैज़ की नज्में सुनाती है. फैज़ को गुनगुनाते वक्त मम्मो के चेहरे के एक्सप्रेशंस अनमोल है. वो आंखों में उभर आई चमक, वो ख्वाबीदा लहजा आपको सम्मोहित कर लेता है.

ये फिल्म इस बात को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है कि सरहदें जज्बात नहीं समझती. सरकारी मशीनरी को भावनाओं से कोई सरोकार नहीं. सन सैंतालिस के बंटवारे ने न जाने कितने लोगों को उस दोराहे पर लाकर पटक दिया जिसमे दो प्यारी चीजों में से सिर्फ एक चीज को चुनने की आज़ादी थी. न जाने कितने लोग अपनी मिट्टी, अपने लोगों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिए गए. न जाने कितनी महमूदा बेगमें होंगी जिनकी कहानियां सामने नहीं आई. आजाद हिंदुस्तान या पाकिस्तान में पैदा हुए हम लोग उस दर्द को शायद महसूस भी नहीं कर सकते. जिन्होंने ये सहा उनके लिए इस पीड़ा का क्या मतलब होगा ये सोचना भी असंभव है. मम्मो एक जरिया है उस दर्द को समझने की कोशिश करने का.

अभिनय की बात की जाए तो फरीदा जलाल जी ने शीर्षक भूमिका को अक्षरशः जिया है. वो सिर्फ और सिर्फ मम्मो लगी है, और कुछ नहीं. महमूदा बेगम के कई रूपों को उन्होंने इतनी सफाई से दर्शाया है की आप हैरान रह जाते हो.. बातूनी लेकिन समझदार, गुस्सैल लेकिन नर्मदिल. हर भाव उन्होंने बड़ी ही कन्विक्शन के साथ परदे पर साकार किया है. उन्हें मम्मो के रूप में देखना एक शानदार अनुभव है. निसंदेह फरीदा जी के करियर की ये सबसे बेहतरीन फिल्म है. उनकी बहन के किरदार में सुरेखा सिकरी लाजवाब है. रिज्जू जब अपनी नानी से बोलचाल बंद कर देता है, उस वक्त उसकी फ़िक्र में अधमरी हुई जा रही और उसकी बेरुखी से झुंझलाई हुई नानी मम्मो से बिना बात लड़ पड़ती है. खूब जली कटी सुनाती है. फिर फ़ौरन बाद अपनी गलती समझ भी जाती है. मम्मो को लिपटा कर कहती है की मैं गुस्से में न जाने क्या क्या बोल गई.. इसपर मम्मो पलट कर कहती है की बात का बतंगड़ बनाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी बहाने फिर वो दोनों अपना बचपन याद करने लगती है. और एक दूसरे को लिपटाकर मुस्क्रुराती है, रोती भी है. उस वक्त उनके चेहरे पर छाया हुआ हंसी और आंसू की धूप छांव का मंजर देखने लायक है. किशोरवयीन रिज्जू की भूमिका में अमित फाल्के बेहद अच्छा चुनाव है. एक उत्साही लेकिन समझदार किशोर की भूमिका में वो खूब जंचे है. बाकी सारे सहयोगी कलाकार भी अपनी अपनी जगह शानदार है. श्याम बेनेगल साहब की शान में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. जिस संवेदनशीलता से उन्होंने इस फिल्म को बनाया है वो काबिलेतारीफ है.

जब मम्मो को पुलिस जबरन मुंबई सेंट्रल से जाने वाली ट्रेन में बिठा देती है तब रिज्जू उन्हें ढूंढता हुआ वहां पहुंच जाता है. इतने में ट्रेन चल पड़ती है. मम्मो रोती बिलखती, रिज्जू के हाथों को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती कुछ कहने की कोशिश कर रही है. ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है. बैकग्राउंड में जगजीत सिंह की आवाज गूँज रही है. रिज्जू रो रहा है, मम्मो रो रही है और शायद आप भी. वो दृश्य आपके जहन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. स्तब्ध कर देता है. और उस लम्हे शायद आप मम्मो के दर्द के एक हिस्से को जी लेते हो. फिल्म ख़त्म होने के बार काफी देर तक आपका कुछ और करने को जी नहीं चाहता. यही इस फिल्म की उपलब्धि है.

लीक से हटकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन, अच्छी फिल्मों के कद्रदान इसे जरुर जरुर देखे. शानदार अनुभव रहेगा.
 Youtube link :

Wednesday, December 4, 2013

होठों पे हंसी आंख में तारों की लड़ी है

होठों पे हंसी आंख में तारों की लड़ी है
वहशत बड़े दिलचस्प दो-राहे पे खड़ी है

दिल रस्म-ओ-राह-ए-शौक से मानूस तो हो ले
तकमील-ए-तमन्ना के लिए उम्र पड़ी है

चाहा भी अगर हम ने तेरी बज्म से उठना
महसूस हुआ पांव में जंजीर पड़ी है

आवारा-ओ-रूसवा ही सही हम मंजिल-ए-शब में
इक सुबह-ए-बहारां से मगर आंख लड़ी है

क्या नक्श अभी देखिए होते हैं नुमायां
हालात के चेहरे से जरा गर्द झड़ी है

कुछ देर किसी जुल्फ के साए में ठहर जायें
‘काबिल’ गम-ए-दौरां की अभी धूप कड़ी है

--------- काबिल अजमेरी.

Tuesday, December 3, 2013

लेट्स मेक अ राईट चॉइस गाइज

दिल्लीवालो....

कल 4 दिसम्बर है. अपनी अपनी झाड़ू तैयार रखियेगा. पूरे देश में आप ही हो जिन्हें कोई विकल्प मिला है इस बार. उसे अपनाकर भारतीय राजनीति का चेहरा बदल दो. पूरे देश को बेलगाम होकर रौंदती आई मुख्य धारा की पार्टियों को सबक सिखाने का मौका है आप लोगों के पास. इसे गंवा न देना. इस चुनाव से बहुत बड़ा बदलाव भले ही ना आये पर देश को एक दिशा-निर्देश तो यकीनन मिलेगा. भारतीय राजनीति में विश्वास खो चुके हम जैसे लोग शायद अपने अपने वोट की कीमत समझने लगे. दिखा दो इन राजनेताओं को कि हम लोग अगर ठान ले तो आप लोगों के तिलिस्म को तोड़ने की हिम्मत भी रखते है. और ये भी बता दो की हम हर बार बेवक़ूफ़ नहीं बनने वाले..

हो सकता है की आम आदमी पार्टी में कमियां हो. होंगी ही. पर एक चांस उनका सरासर बनता है. जिन लोगों ने एक साल से भी कम समय में देश की दो प्रमुख पार्टियों की सांस फूला दी उनमे कुछ तो बात होगी. आजमाने में हर्ज ही क्या है..? ख़ास तौर से तब जब बाकियों को हम कई कई बार आजमा चुके है और खता खा चुके है. आम आदमी पार्टी एक संजीदा पहल है. उसके हाथ मजबूत करने से ही हमारी आवाज मुखर होने के चांसेस ज्यादा है. और कुछ नहीं तो ये लोग हमें सीधे तौर पर जवाबदेय तो होंगे.

तो दिल्लीवालों,
हैरी पॉटर बनने का वक्त आ गया है. हो जाओ सवार जादुई झाड़ू पर.प्रोफ़ेसर डम्बलडोर ने कहा था कि It is our choices that show us who we truly are, far more than our abilities. सो लेट्स मेक अ राईट चॉइस गाइज.

और हां,
बदलाव बदलाव का नारा लगाने के बाद, लगाते रहने के बाद जब सचमुच बदलाव का क्षण आ गया है उस वक्त अगर हम उससे मुंह मोडेंगे तो मुझे दुःख के साथ यही कहना पड़ेगा की जस्टिस काटजू सही थे.

तमंचे पे डिस्को

कौन कहता है के 'शॉटगन' सिन्हा साहब की अब कहीं नहीं चलती.. बॉलीवुड में तो खूब चलती है. अगर ऐसा ना होता तो हर तीसरी फिल्म में बिटिया रानी नज़र आती भला...?? कोई भी म्यूजिक चैनल लगा के सिर्फ दस मिनट देख लीजिये. अगर उतने समय में आपको सोनाक्षी के दर्शन नहीं हुए तो समझ लीजियेगा की आप फ्रेंच या अमेरिकन चैनल देख रहे है. जब देखो तब मैडम किसी ना किसी चैनल पर जलवाअफरोज हुई होती है. कहीं तमंचे पे डिस्को कर रही है तो कहीं किसी से गन्दी बात कर रही है. और तो और वाहियात कपडे पहन कर जन्माष्टमी पर मटकी भी फोड़ आई मैडम..

जब ये मोहतरमा आई थी तब इन्होने ऐलान किया था की इन्हें थप्पड़ से डर नहीं लगता. अब तमंचे से भी नहीं लगता. इसी तरह तरक्की करती रही तो वो दिन दूर नहीं जब राइफल, हथगोले, तोप और तो और परमाणु बम से भी इम्यून हो जायेंगी. ऐसी स्थिति में क्या इनका उपयोग राष्ट्रीय सीमा सुरक्षा दल के लिए किया जा सकता है ये भी एक विचारणीय मुद्दा होगा. रक्षा विशेषज्ञ कृपया अध्ययन करें.

एक और बात.. इनके डांस स्टेप्स जो भी कोरियोग्राफ करता है क्या उसके खिलाफ मानसिक उत्पीडन का मुकदमा किया जा सकता है इसका भी पता लगाना होगा. मेरी मित्रता सूची में अगर कोई काबिल वकील हो तो कृपया मदद कीजिये. राऊडी राठौड में इनका डांस देखकर ही पता चलता है की अक्षय के इतने भयानक अभिनय के पीछे वजह क्या थी.. इनकी सोहबत में रहकर मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया होगा खिलाड़ी कुमार का.

वैसे एक अन्दर की बात बताती चलूं की लूटेरा हमें पसंद आई थी. पर उसका जिक्र नहीं करुँगी आज. आज तो रजत शर्मा के स्टाइल का मुकदमा चलेगा मैडम पर. मेरी लिस्ट में जो भी मित्र सोनाक्षी के प्रशंसक है वो कृपया Dheeraj बनाएं रखे. और खुद को ये यकीन दिलाने की कोशिश करें की मैडम का हर वक्त टीवी पर दिखाई देना उनके लोकप्रिय होने की निशानी है. बाकी बुराई करना हम फुरसती फेसबूकीयों का धर्म है. और हम उसे निभाते रहेंगे. और हमें आता ही क्या है.?
— feeling मैं अमिताभ तो नहीं पर कभी कभी मेरे दिल में भी ख़याल आ ही जाता है... :p.

Friday, November 29, 2013

क्या इतना ही मुश्किल था दिल का साफ़ होना

अब दिल भी चाहता है उसके खिलाफ होना
मुमकिन नहीं रहा कसूर उसका माफ़ होना


फ़रिश्ता न बन पाते, कोई बात नहीं थी
क्या इतना ही मुश्किल था दिल का साफ़ होना.

इस दौर में दुश्मनी को, बस इतनी वजह है काफी,
किसी से दिल ना मिलना, किसी से इख्तेलाफ होना...


  ------ ज़ारा.

Thursday, November 28, 2013

दुनिया को हकीकत मेरी पता कुछ भी नहीं

दुनिया को हकीकत मेरी पता कुछ भी नहीं
इल्जाम हजारों है और खता कुछ भी नहीं
मेरे दिल में क्या है ये कभी पढ़ ना सकोगे,
सारे पन्ने भरे हुए है और लिखा कुछ भी नहीं

------- कभी कभी तुकबंदी भी काफी राहत दे जाती है.

हमारे समाज की सोच

हेमराज-आरुषि हत्याकांड के सन्दर्भ में एक जगह मेरे द्वारा की हुई टिप्पणी -
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हमारे समाज की सोच :-

लड़के ने मुंह काला किया तो समझिये आपने घर में बैठकर गली में थूका...
और वही हरकत लड़की ने की तो समझिये गली में से घर में थूका....

अब इस पैमाने पर जब परखा जाएगा तो मरेंगी तो आरुषियां ही ना...?
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उसकी जगह कोई आरुष होता तो थोड़ी सी डांट खाकर बच जाता. शायद पिता अकेले में अपनी पत्नी से कहता की लड़का जवान हो गया है. वो आरुषि थी इसीलिए मारी गई.
तो moral of the story ये की आरुषि बनने में नुकसान ही नुकसान है. फिर भले ही आप जहीन हो, स्मार्ट हो, टीचर्स की दुलारी हो आपका आरुषि होना ही आपके वजूद पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी है..

'परछाइयां' के कुछ अंश

पिछली सदी के महान शायर साहिर लुधियानवी को जब भी पढ़ा हर बार निगाहों के आगे एक नई राह रौशन हुई है. ज़िन्दगी को देखने का उनका नजरिया कितना आला था ये उनकी नज्मों और ग़ज़लों से बखूबी देखा जा सकता है. आम आदमी के दर्द को जुबां देने में उनका कोई सानी नहीं.. पेश है उनकी एक लम्बी नज़्म 'परछाइयां' के कुछ अंश........
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बहुत दिनों से है ये मशगला सियासत का,
कि जब जवान हो बच्चे तो क़त्ल हो जायें
बहुत दिनों से है ये खब्त हुक्मरानों का,
कि दूर दूर के मुल्कों में कहत बो जायें

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीरां है,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूंढती है
बहुत दिनों से सितम-दीदा शाहराहों में,
निगारे जीस्त की इस्मत पनाह ढूंढती है

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहे कि अपने हर इक ज़ख्म को जवां कर लें
हमारा राज हमारा नहीं, सभी का है,
चलो की सारे ज़माने को राजदां कर लें

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहे,
कि हमको जंगो-जदल के चलन से नफरत है
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास ना आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफरत है

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे जमीं तंग होती जायेगी
हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है
हमें किसी की जमीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी जमीं पर हलों की हाजत है

कहो की अब कोई ताजिर इधर का रुख ना करे,
अब इस जा कोई कुंवारी न बेचीं जायेगी
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फसलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेचीं जायेगी

यह सरजमीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्जे-पाक पे वहशी ना चल सकेंगे कभी
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर ना पल सकेंगे कभी

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहें,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं
जुनूं की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
जमीं की खैर नहीं, आसमां की खैर नहीं

गुजश्ता जंग में घर ही जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयां भी जल जायें
गुजश्ता जंग में पैकर जलें मगर इस बार,
अजब नहीं कि परछाइयां भी जल जायें

----- साहिर लुधियानवी.

खब्त - उन्माद
सितम-दीदा शाहराहों में - अत्याचार-पीड़ित रास्तों में
पायमाल - कुचली हुई
मुकामिरों से - जुएबाजों से
हयात - जीवन, जिंदगी
पैरहन - लिबास, पोशाक
मौजे हवा - हवा की लहर
रगे-संग - पत्थर की रग
हाजत - जरुरत, आवश्यकता
ताजिर - व्यापारी
जा - जगह
अर्जे-पाक पे - पवित्र भूमि पर
नस्ले-नौ - नई पीढ़ी
खाकदाँ - धरती
गुजश्ता - पिछली
पैकर - शरीर

Monday, November 25, 2013

सच्चा देशभक्त

जो चायनीज कप में ब्राजील की कॉफ़ी पीता है, इटैलियन सोफे पर बैठकर फ्रेंच पेस्ट्री खाता है, इंग्लिश फिल्म देखकर अपनी जापानी कार पर घर पहुंचता है, कोरियन मोबाइल में गेम खेलते हुए पत्नी को स्पेनिश पास्ता बनाने का हुक्म सुनाता है, स्विस घडी में टाइम देखकर अमेरिकन पैन से, जर्मन पेपर पर प्रधानमन्त्री को कड़े शब्दों में चिट्ठी लिखता है कि उनकी सरकार स्वदेशी जागरण के विषय में कुछ नहीं कर रही थी.

क्यूँ देखे ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम

ले-देके अपने पास फकत इक नज़र तो है,
क्यूँ देखे ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम....

------- ऐसी मानीखेज़ बात 'साहिर' के अलावा कौन कह सकता है..?

Saturday, November 23, 2013

मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे

आज एक बार फिर जिगर मुरादाबादी के इन शब्दों में पनाह तलाशनी पड़ रही है...

"उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने,
मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे.."

Friday, November 22, 2013

सेक्युलर वुमन

कल अपनी प्रोफाइल पिक चेंज की थी. पिक में 'सेक्युलर वुमन' शब्द है. कुछ दोस्तों ने सराहा, कुछ ने ऐतराज उठाया तो कुछ ने जानबूझकर दूरी बनाए रखी. कुछ अजीब कमेन्ट आये तो किसी कमेन्ट का इन्तजार होने के बावजूद नहीं आया. खैर, अब जरा इस शब्द का पोस्टमार्टम करते है.

सेक्युलर..... शाब्दिक अर्थ 'धर्मनिरपेक्ष'. मेरे लिए सेक्युलर होने का अर्थ किसी भी धर्म या विचारधारा का समान भाव से सम्मान करना है. और इसमें बुराई क्या है ये मेरी समझ में नहीं आता. पता नहीं कब और कैसे हमने इस शब्द को एक पार्टीविशेष की बपौती बना डाला है. क्यूँ सेक्युलर व्यक्ति का मतलब एक पार्टी का हिमायती और दूसरी पार्टी का दुश्मन बन गया है ? और सबसे बड़ा सवाल, ये शब्द राजनीतिक कब से बन गया..?

मेरे तीन सौ से ज्यादा दोस्तों में एक भी ऐसा नहीं है जिसे मैंने नाम देखकर ऐड किया हो. मेरे लिए धार्मिक पहचान कभी भी अहम नहीं रही. और ना ही रहेगी. कोई मेरा महज इसलिए ज्यादा करीबी नहीं हो सकता की उसने उसी मजहब में जनम लिया जिसमे मैंने लिया है. मेरे लिए हितेंद्र भाई, वर्षा ताई या आलोक जी उतने ही करीबी है जितने हैदर जी, शब्बीर जी या संजीदा बाजी. मेरे मन में उनके लिए भी सम्मान है जिनसे मेरी विचारधारा मेल नहीं खाती. इसीलिए आशीष भाई जैसे मित्रों से घनघोर असहमति के बाद भी वो आज भी मेरे मित्र है.

सेक्युलर शब्द आज एक गाली सा बन गया है. या यूं कहिये जबरन बना दिया गया है. मेरी नजर में सेक्युलर होना कोई गुनाह नहीं है. हां सेक्युलर होने का पाखण्ड करना जरुर जरुर गुनाह है. हमारे स्वार्थी राजनेताओं ने इस शब्द की आड़ लेकर अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं खूब पूरी की है इस बात से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ. पर क्या महज इसीलिए हम एक अच्छी चीज में अपनी आस्था त्याग देंगे ? आसाराम ने धर्म को कलंकित किया तो क्या लोगों ने ईश्वर में विश्वास रखना छोड़ दिया ? सेक्युलर होना यानी सभी को एक ही तराजू पर तौलना कहां से गलत हो गया ? मुझे कोई समझाए प्लीज.

मेरी निगाह में गलत क्या है ये मैं आपको बताती हूँ. धर्म के नाम पर लोगों में फर्क करना गलत है. मजहब का पैमाना लेकर लोगों की विश्वसनीयता परखना गलत है. किसी एक ही सम्प्रदाय की भलाई के दावे करना गलत है. इसीलिए ओवैसी गलत है. तोगड़िया गलत है. हर वो शख्स गलत है जो इस देश के एक भी व्यक्ति को मजहब के आधार पर अपने से अलग समझता हो. ऐसी विचारधारा जो फूट डालने का काम करती हो - चाहे किसी भी आधार पर हो - गलत है. और जो गलत है वो गलत है, भले ही उसे 'राष्ट्रवाद' जैसा फैंसी नाम दिया जाए.

हमारे देश में सैंकड़ों समस्याएं है. जिन्हें सुलझाने में आम आदमी शायद कोई सक्रीय मदद नहीं कर सकता. पर वो कम से कम इतना तो कर ही सकता है की इस मुल्क की फिजाओं में धार्मिक विद्वेष का जहर ना फैलने दे. ये हमारा नैतिक और सामजिक दायित्व है की हम इस देश की एकता को बनाए रखे. और ऐसा तभी किया जा सकता है जब हमारे चश्मे के शीशे साफ़ हो. उसपर किसी का कोई रंग ना चढ़ा हुआ हो.

मैं सेक्युलर हूँ. और ताजिंदगी ऐसे ही बने रहना चाहती हूँ. इसपर गर्व करके अपने आप को महान साबित करने की मैं ख्वाहिशमंद नहीं. मुझे लगता है की ये मानवता के प्रति मेरा फ़र्ज़ है. और मैं इसका ताजिंदगी निर्वाहन करती रहूंगी.

Tuesday, November 19, 2013

हम मर्दों ने नारी तुझको कितने रूप दिए

कितने अफ़सोस की बात है की जिन्हें कविता का मतलब भी नहीं पता वो फेसबुक पर सेलेब्रिटी बने घूम रहे है और Gurvinder Singh जी जैसी प्रतिभा एकाध कमेन्ट के लिए भी तरस रही है.... एक बेहतरीन कविता.. और भी अच्छी कविताओं के लिए इनकी वाल पर जरुर विजिट करे. सीधे सादे, आडम्बररहित शब्दों में गहरी से गहरी बात कह जाने की इनकी प्रतिभा को सलाम... ऐसी प्रतिभाओं का अलक्षित सा गुजर जाना अन्याय होगा. 
हम मर्दों ने नारी तुझको कितने रूप दिए....

कभी रौंद दिआ..कभी मस्ल दिआ...
कभी काट दिआ..कभी कत्ल किया..
कभी धक्का दे दिया गाड़ी से
कभी आग लगा दी साड़ी पे....
कभी कौख़ मे मार दिया
कभी गोद़ मे मार दिया
कभी श़क मे मार दिया
कभी शौक़ मे मार दिया.....
कभी भाई ने मार दिया
कभी बाप ने मार दिया
तू फिर भी बच्च निकली
तो ख़ाप ने मार दिया..........
तुझ़े कैैद़ किया तुझ़े हरम़ दिए
झूठे वादे और भरम दिए.....
तू पूजे जिसेे सिदूंरो मे
वही भूने तुझे तंदूरो मे.....
हर मन मे काम की आग यहां
इक तरफा ईश्क रिवाज़ यहां
तू मना करे तेरी ताब़ कहा
हर हाथ में है तेज़ाब यहां.....
तू मां है बहन है सबला है आचंल मे दूध लिए
हम मर्दो ने नारी तुझको कितने रूप दिए......
.......बसंत विहार काडं के सदर्भं मे......
..........गुरविदंर...........

Monday, November 18, 2013

क्या आप पत्रकार है

सबसे ज्यादा मजा मुझे तब आता है जब कोई मुझसे इनबॉक्स में पूछता है, क्या आप पत्रकार है..? अब तक बहुत से नए मित्र मुझसे पूछ चुके है ये सवाल. मेरी समझ में नहीं आता की मुझे इस सवाल से खुश होना चाहिए या परेशान. मैं और पत्रकार....???

खैर, मैं हर मित्र को समझाती हूँ की नहीं भई मैं तो एक मामूली सी लड़की हूँ.. पर हां इस सवाल से उसी तरह खुश होती हूँ जिस तरह वो कवि हुआ था जिससे किसीने पांच सौ रुपये के छुट्टे मांग लिए थे. उस कवि ने भावुक स्वर में कहा था कि, मेरे पास छुट्टे तो नहीं है पर आपने ये समझा की मेरे पास पांच सौ रुपये हो सकते है इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद....

तो दोस्तों, आपका भी तहेदिल से शुक्रिया....
feeling important.

Sunday, November 17, 2013

थैंक यू सचिन

************सचिन को भारतरत्न***********

महान क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर को भारतरत्न मिलने की घोषणा होने के बाद फेसबुकी दुनिया में खलबली मची हुई है. बहुत लोग है जो इस घोषणा से खुश है तो बहुत से ऐसे भी है जिनको कड़ा ऐतराज है. सबसे पहले यही स्पष्ट करती चलूं के मैं उनमे से हूँ जो खुश है. ये पुरस्कार एक ऐसे खिलाड़ी को दिया गया है जिसने अपने अप्रतिम खेल और शालीन आचरण से दुनियाभर में भारत का सम्मान बढ़ाया है. वो इस पुरस्कार के सच में हक़दार है.

सचिन को भारतरत्न मिलने पर कई तरह के ऐतराज उठाये जा रहे है. पहला ऐतराज ये की सचिन को भारतरत्न देकर कांग्रेस ने अपनी डूबती नैया बचाने की कोशिश की है. कबूल. बिल्कुल की है. पर इसमें सचिन का क्या दोष.? क्या इससे 24 सालों से अनवरत की हुई सचिन की मेहनत मिटटी हो गई.? अगर यही पुरस्कार भाजपाई शासन में मिलता तो ? तो ये की तब यही ऐतराज कांग्रेसी करते. इन लोगों का काम ही ये है. कांग्रेस की नीयत भले ही सचिन नाम के गरम तंदूर पर अपनी रोटियां सेंकनी हो, इससे सचिन का योगदान कम नहीं हो जाता.

दूसरा ऐतराज कुछ यूं होता है. सचिन सिर्फ एक खिलाड़ी है. खेलना उनका पेशा है. क्या उनको सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना जायज है ? मुझे लगता है सरासर जायज है. हम भारतीयों की रोजमर्रा की संघर्षपूर्ण ज़िन्दगी में राहत के पल प्रदान करने वाले दो प्रमुख उत्सव है. सिनेमा और क्रिकेट. अनगिनत बार इन दोनों ने हमें गहरे अवसाद से निकाला है. अगर सिनेमा/संगीत के क्षेत्र में महानता प्राप्त कर चुकी लता दीदी को ये पुरस्कार मिल सकता है तो सचिन को क्यूँ नहीं ? आखिर लता जी ने भी तो विशुद्ध कमाई के लिए ही गीत गाये है. फिर भी भारतरत्न उन्हें देकर हमने उनके योगदान को सराहा है. इसी तरह सचिन ने भी भारत का नाम पूरी दुनिया में रौशन किया है. धर्म, जात, प्रान्त, राजनीति के नाम पर बंटे हुए इस देश को अगर कोई एक शख्स एक सूत्र में जोड़कर रखने में कामयाब हुआ है तो वो सचिन ही है. कई भारतीयों के किस्से हम सबने पढ़े हुए है की कैसे उन्हें विदेशों में "सचिन के देश का व्यक्ति' होने की वजह से सम्मान मिला.

20 साल पहले लोग खेल-कूद को फुरसत का काम और वक्त की बरबादी समझा करते थे. सचिन ने लोगों की सोच बदल दी. अब लोग अपने बच्चों को खेल में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करने में जरा भीं नहीं झिझकते. सचिन ने ना सिर्फ क्रिकेट बल्कि समूचे खेल जगत का उपकार किया है. ऐसा कोई मार्केटिंग गुरु नहीं है जो अपने शिष्यों से ये न कहता हो की उसे अपनी फील्ड का 'सचिन तेंडुलकर' बनना है. सचिन सफलता की सर्वोच्च कसौटी के प्रतिक बन गए है. सिर्फ चालीस साल की उम्र में. इससे भी पहले. क्या ये कोई उपलब्धि नहीं है ?

सचिन ने हम भारतीयों को सिखाया की समर्पण क्या होता है. 'कर्म' का महिमामंडन करने वाले हमारे देश को सचिन ने सोदाहरण दिखाया की कर्म में आस्था किस प्रकार रखी जाती है. 24 सालों तक सचिन ने सिर्फ और सिर्फ अपने काम पर ध्यान दिया. जितने बेहतरीन वो खिलाड़ी है उससे बेहतरीन वो इंसान साबित हुए है. बेशुमार प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद भी उनका मैदान और मैदान के बाहर भी शालीन बने रहना अद्भुत है. ये वही सचिन है जिन्होंने राज ठाकरे जैसे संकुचित मनोवृत्ति के अवसरवादी नेता की घटिया राजनीति का ये कहकर जवाब दिया था, "मैं मुम्बईकर हूँ पर भारतीय पहले हूँ. मुंबई सबकी है." जब बड़े बड़े दिग्गज चुप थे तब सचिन का ये कथन बेहद सुकून भरा था.

सचिन को भारतीय जनता का बेशुमार प्यार प्राप्त हुआ है. कोई हैरानी नहीं है कि कल पूरा वानखेड़े स्टेडियम रो रहा रहा. पूरा देश रो रहा था. एक महान शख्सियत को ये एक अद्भुत, अकल्पनीय विदाई थी. जिस शख्स से 100 करोड़ लोग इतना प्यार करते हो उसकी अहमियत कैसे नकारी जा सकती है ? आपको क्रिकेट नापसंद हो सकता है कबूल पर क्या आपको अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान तक पहुंचे अपने किसी देशवासी पर गर्व नहीं महसूस होता ? आज पूरे विश्व में सचिन की चर्चा है. अमेरिका जैसा देश जहां क्रिकेट खेली भी नहीं जाती, सचिन की विदाई को लेकर उत्सुक है. टाइम मैगज़ीन ने सचिन के योगदान को भरपूर शब्दों में सराहा है. क्या इन सब बातों से हमारे भारत का गौरव नहीं बढ़ा ? और क्या पैमाना होता है श्रेष्ठ भारतीय होने का ?

एक ऐतराज न सिर्फ सचिन पर बल्कि क्रिकेट पर ही उठता आया है की क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसकी वजह से अन्य खेल पिछड़ गए है. ये एक मिथ्या आरोप है. (बहस आमंत्रित है). लोगों को क्रिकेट बन्दूक की नोक पर नहीं पसंद करवाया गया. जिसमे लोगों की रूचि है वो वही देखते है. क्रिकेट भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है तो वो सिर्फ इसे पसंद करने वाले करोड़ों लोगों की वजह से. और जो चीज ज्यादा पसंद की जायेगी वही आगे रहेगी ना.. क्या क्रिकेटर्स को कम मेहनत करनी पड़ती है ? उनके समर्पण और लगन में किसी भी अन्य खेल के खिलाड़ी से कमी होती है ? क्रिकेट को पानी पी पीकर कोसने वालों से आप कुछ सवाल पूछ कर देख लीजिये. मसलन, क्या आप हॉकी के सारे मैच देखते हो ? भारतीय हॉकी टीम के सदस्यों के नाम क्या है ? क्या आपने हाल ही में संपन्न हुई बैडमिंटन लीग पर कोई ध्यान दिया ? क्या आपको पता है इस वक्त विश्वनाथन आनंद चेन्नई में कार्लसन के हाथों अपनी बादशाहत गंवाने के मुहाने पर है ? देख लीजियेगा 90 प्रतिशत लोग बगलें झांकते नजर आयेंगे. मेरे कई मित्र फेसबुक पर सालों से है. वो याद करके बताएं की हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन, शतरंज या किसी भी और खेल से सम्बंधित कितने स्टेटस अपडेट उन्होंने देखे है ? पर जब एक क्रिकेट मैच होता है तो हर दूसरी वाल पर स्टेटस अपडेट आते रहते है. इतना ही लोकप्रिय है क्रिकेट भारत में. और इसे नकारा नहीं जा सकता. और वैसे भी तनावभरी ज़िन्दगी से जो चीज आपको कुछ पलों का डायवर्जन दे और 'स्ट्रेस बस्टर' का काम करे वो बुरी नहीं है. मुझे पता है मेरी लिस्ट में शामिल कई गुणी मित्रजन मुझसे घोर असहमत होंगे. पर मैं स्पष्ट करना चाहूंगी की मैं एक आम लड़की हूँ. जिसकी छोटी छोटी खुशियां है और छोटे छोटे ही गम है.

सचिन सही मायनों में भारतरत्न के हकदार है. कई जगह ये भी सुनाई आ रहा है की अब वो कांग्रेस का प्रचार करेंगे. तो करने दीजिये भई. वक्त आने पर उनसे भी पूछेंगे की किस बिना पर वो एक भ्रष्ट सरकार का समर्थन कर रहे है. हालांकि वो उनका निजी अधिकार होगा कि वो किसका समर्थन करे, ठीक उसी तरह जिस तरह लता जी को मोदी का समर्थन करने का हक़ है. फिर भी सवाल उनसे भी पूछे जायेंगे. पर आज, इस घडी तो उनकी महत्ता स्वीकार कीजिये. वो वक्त जब आएगा तब आएगा. तब तक तो एक बेहतरीन भारतीय की कल्पनातीत सफलता की कद्र कीजिये.

हां मुझे इस बात का जरुर जरुर मलाल है की हॉकी के जादूगर ध्यानचंद अब तक इस सम्मान से विमुख है. अब तक सरकारें इस बहाने की आड़ में छुप जाया करती थी की खेल जगत इस पुरस्कार के लिए पात्र नहीं है. पर अब जब पहल हो गई है तो उन्हें भी जल्द से जल्द ये उपाधि देकर इस उपाधि का सम्मान बढ़ाया जाए. उनको ये पुरस्कार ना मिलना एक दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी.

दरअसल हमें इस वक्त सभी तर्क कुतर्क एक तरफ रखकर एक बेहतरीन शख्सियत की महत्ता को खुले दिल से स्वीकारना चाहिए. पर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा. दरअसल हमारा देश आलोचकों का देश है. हमें हर चीज में कमी ढूँढने की आदत पड़ चुकी है. जब सारी दुनिया हमारे हीरोज को सम्मान दे रही होती है, हम उनमे कीड़े निकाल रहे होते है. ये खुद को अलग दिखाने की अंधी होड़ है जो घातक है. बेहतर होगा हम इस आदत को त्याग दे.

सचिन का वापस लौटकर पिच को सम्मान देना दर्शाता है कि उन्होंने अपने काम को ही अपना धर्म माना था. धार्मिक विद्वेष से जहरीली हो चुकी हमारे देश की हवाओं में 'कर्म ही धर्म है' का खामोश सन्देश पहुंचाने वाले अतुलनीय व्यक्ति को उसकी एक अदना सी प्रशंसक का सलाम.. उनका वो पिच को चूमना भारतीय संस्कृति का निचोड़ था. मेरे देश की सभ्यता को विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने के लिए सचिन बधाई के और भारतरत्न के भी सरासर पात्र है.

आलोचक चाहे कुछ भी कहे, कहते रहे.... सचिन रमेश तेंडुलकर, आप करोड़ों भारतीयों के भारतरत्न थे, है और रहेंगे....

""थैंक यू सचिन.""


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एडिट - हमारे सचिन को livevns.com वालों ने भी सर माथे बिठा लिया. मेरे द्वारा लिखे मामूली लेख को इतना सम्मान देने के लिए दिल से शुक्रिया...


http://www.livevns.com/?p=3343#more-3343

ऐ 'साहेब' ये ठीक नहीं

पीछा कराना, बाते सुनना
ऐ 'साहेब' ये ठीक नहीं....

विशेष सूचना : जिस फिल्म के गीत पर आधारित ये तुकबंदी है उस फिल्म का नाम "खलनायक" था.

Saturday, November 16, 2013

गुस्सा तो नहीं है आप

कोई आपसे पूछता है, "गुस्सा तो नहीं है आप ?"

आप कहते है, "नहीं तो."

वो फिर कहता है, "शायद हो आप."

आप समझाते है, "नहीं भई'"

वो फिर भी लगा रहता है, "मुझे लग रहा है."

आप चिढ़ जाते है, "खामखा लग रहा है ?"

फिर वो विजेता के स्वर में कहता है, "देखा, मैंने कहा था ना ?"

बताइये ऐसी सिचुएशन में क्या किया जाए...?
— feeling irritated.

The Modi-fied discovery of india

तकरीबन सत्तर साल पहले आगे चल कर भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने जवाहरलाल नेहरु जी ने एक किताब लिखी थी...."The discovery of india."

अब लग रहा है की आने वाले दिनों में इसी तरह की एक और किताब पढने को मिल सकती है...
"The Modi-fied discovery of india."

हे राम....!!!!

Friday, November 15, 2013

दुनिया का दस्तूर

पैगम्बरों को पत्थर से मारना और फिर बाद में उनकी याद में गिरजाघर बनवाना बहुत जमाने से दुनिया का दस्तूर रहा है. आज हम ईसा मसीह की पूजा करते है लेकिन जब वो जीते जागते हमारे बीच मौजूद थे तब हमने उन्हें सूली पे चढ़ा दिया था.

Thursday, November 14, 2013

सवाल क्या, जवाब क्या

सवाल क्या, जवाब क्या..
इससे बड़ा अजाब क्या

खोल भी दे दिल का कमरा
मुझसे अब ये हिजाब क्या

सबक था जिसमे रस्मे-वफ़ा का
खो गई है वो किताब क्या

हर बाजी हारना मुकद्दर था
अब शिकायत कैसी, हिसाब क्या

कच्चे घड़े पर तैरना मुश्किल
गंगा क्या और चनाब क्या

जो रूह को कैद कर ले गये
कभी लौटेंगे वो जनाब क्या

------- जारा खान .
14/11/2013.

Tuesday, November 12, 2013

तमाम उम्र चले और घर नहीं आया

अजाब ये भी किसी और पर नहीं आया
तमाम उम्र चले और घर नहीं आया...

---- अज्ञात.

Saturday, November 9, 2013

शर्त भरा लहजा तो मेरी आदत है

ये शर्त भरा लहजा तो मेरी आदत है,
तू बात बात पर यूं नम ना किया कर आँखें...

-------- अज्ञात.

Friday, November 8, 2013

ज़िन्दगी के नाम पर वो चाहते है मारना

सितमगरों के दरमियां ये ज़िन्दगी गुजारना
बड़ी अजीब जंग है ना जीतना ना हारना

कोई कसूर हम करे तो सिर्फ मौत की सजा,
जो दूसरे खता करे तो आरती उतारना

मेरे 'मुहाफ़िज़ों' को अब मेरा ज़मीर चाहिए,
के ज़िन्दगी के नाम पर वो चाहते है मारना

Tuesday, November 5, 2013

बाजार फिल्म

"नजमा, इस ज़मीन पर मर्द सबसे बड़ा दरिंदा है. उसने अपनी नाइंसाफी, अपने जुर्म, अपने गुनाहों को छुपाने के लिए कुछ रस्में, कुछ रीती-रिवाज बनाए है. इन रस्मों को कभी वो मजहब या धर्म का नाम देता है और कभी कानून का. और इनकी आड़ में छिपकर वो इज्ज़तदार और शरीफ बना रहता है. अगर शाकिर अली खान किसी शरीफ आदमी से ये कहे कि मैं आपकी बेटी को खरीदना चाहता हूं तो वो उसका खून कर देगा. लेकिन अगर यही शाकिर अली खान रस्मोंरिवाज़ का सहारा लेकर उस आदमी की पंद्रह साल की बेटी से शादी करना चाहे तो वो आदमी इंकार नहीं करेगा क्यूंकि ये ज़माने का दस्तूर है. वो अपने हाथों से उस लड़की को डोली में बिठा देगा. ये समझकर कि यही इस लड़की का मुकद्दर है. यही इसकी किस्मत है."

"मैं...मैं कहां से आ गई..? मैं क्या कर रही हूं..? मैं इंकार क्यूं नहीं करती.? मुझे गुस्सा क्यूं नहीं आता..? मैं कौन हूं..? मैं क्या हूं..? इस बाज़ार में कहीं मैं तो खरीददार नहीं..?

"तुम खरीददार नहीं हो नजमा, तुम इस बाज़ार में बिकने वाली इक शय हो. तुम वो खिलौना हो जिसे ख़रीदा जा चुका है. अपने जिस्म को किसी दुकान की शोकेस से बचाने के लिए तुमने अख्तर के घर की सजावट बनाना पसंद किया है. तुम इस मरते हुए समाज की गिरती दीवार हो नजमा. तुम घर की चारदीवारी में घुट घुट के मरती रहोगी और मर्दों का खिलौना बनती रहोगी. जब तक जीने के लिए किसी मर्द का सहारा चाहिए, चाहे वो अख्तर हो चाहे सलीम, तुम खिलौना बनी रहोगी."

ये संवाद सलीम ( नसीरुद्दीन शाह ) और नजमा ( स्मिता पाटिल ) के बीच घटित हुआ है और आपने सही पहचाना ये एक फिल्म का हिस्सा है. पर हमारे समाज की नंगी सच्चाई भी यही है. कल रात सागर सरहदी की फिल्म बाज़ार देखी. दिमाग सुन्न हो गया. हमारे मुल्क में गरीब तबके की लड़कियों के लिये (कहीं कहीं तो साधन संपन्न घरों की लड़कियों के लिए भी) शादी कैसे एक बाज़ार है, एक मंडी है इसकी जिन्दा तस्वीर है ये फिल्म. किस तरह शादी के नाम पर ताउम्र के लिए नौकरानी हासिल की जाती है, कैसे लड़कियों को अपने ख्वाब, अपनी आरजुओं का क़त्ल करने पर मजबूर किया जाता है, कैसे समाज का हर शख्स एक अकेली लड़की के मुखालिफ हो जाता है और लड़की को उसकी सलीब तक धकेलने में कैसे समाज का हर हिस्सा जाने अनजाने शिरकत करता है इसे जानना हो तो ये फिल्म देख लीजिये.

सदियों से इस मुल्क की धरती ने हजारों लाखों शबनमों की चीखें अनसुनी की है. लाखों नजमाओं को इतना मजबूर किया है की उनको अपना किरदार तक बदलना पड़ा. और समाज की साजिश में शरीक होना पड़ा. अनगिनत सिरजूं अपनी मुहब्बत की बेवक्त मौत पर जार जार रोये है पर इस धरती ने, इसके बाशिंदों ने, इसके रीतिरिवाजों ने उनके तपते हुए कलेजे पर ठंडक का एक फाहा रखना भी जरुरी नहीं समझा. न जाने कितनी आरजूएं, कितनी मुहब्बतें, कितनी हसरतें दफ्न है इन हवाओं में की अगर सच में ही बद्दुआओं में असर होता तो ये दुनिया कब की जल के ख़ाक हो चुकी होती.. अपने तमाम रस्मोंरिवाजों समेत. कभी इज्जत, कभी रिवायत तो कभी मजहब के नाम पर औरत हर दौर में छली गई है. छली जा रही है. हमारे देश में ये आम बात है की भले ही खानदान कितना ही नामी-गिरामी क्यूं न हो, कितना ही फौलादी क्यूं न हो, उसकी इज्जत का दारोमदार उस खानदान की सबसे कमजोर कड़ी के सबसे कमजोर कंधों पर ही टिका होता है. वो बेचारी इतने बड़े बोझ को सहते सहते ख़त्म हो जाती है और उसकी कुर्बानी का कोई नोटिस तक नहीं लेता. जन्म से लेकर मौत तक के लम्बे सफ़र में एक लम्हा भी वो इस बात से गाफिल नहीं हो सकती की उसके ऊपर इतने लोगों की सामूहिक इज्जत का टोकरा संभालने की जिम्मेदारी है. जरा सी चूक हुई नहीं और मरने से पहले ही जहन्नुम का मज़ा हाजिर. सोते जागते ये एहसास कि उसके सर के ऊपर एक तलवार हमेशा के लिए लटका दी गई है उसे कभी भी पूरी तरह पनपने नहीं देता. उसके वजूद को इतना दोयम बना के रखा जाता है की उसे अल्लाह की रहमत, ईश्वर का न्याय या गॉड की अनुकम्पा मिथ्या ही प्रतीत होती है.

बाज़ार तकरीबन तीस साल पुरानी फिल्म है. पर बेहद दुखद बात ये है की ये आज भी प्रासंगिक है. और भविष्य में भी इसकी प्रासंगिकता ख़त्म होती नहीं दिखाई देती. न जाने क्यूं ये फिल्म बहुत अपनी सी प्रतीत हुई. कोई भी ड्रामेटिक सीन ना होने के बावजूद मैं फूट फूट के रोई. ये कहानी सिर्फ शबनम की नहीं है. इस मुल्क में बसी हजारों शबनमों, नजमाओं, नसरीनों और जाराओं की कहानी है ये. परिस्थितियां भले ही अलग अलग हो पर इस बाज़ार में बिकती सभी है. किसी का बिकना दिखाई देता है तो किसी का बेशुमार चमक-धमक में खो जाता है. शबनम तो ख़ुदकुशी कर के आज़ाद हो गई अंत में, पर अभी लाखों ऐसी शबनमें मौजूद है जिनके पास मरकर निजात पाने का रास्ता भी मौजूद नहीं है और जिन्होंने अपना सलीब ढोना ही ढोना है.

आइये दुआ करते है की खुदा हर उस शबनम की ज़िन्दगी आसान करे जिसे महज इस बात की सजा मिली है की वो एक लड़की बनकर पैदा हुई.

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया-२
हमें आप से भी जुदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

जबीं सजदा करते ही करते गई-२
हक़-ए-बंदगी यूँ अदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे-२
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
दिखाई दिए यूँ

बहुत आरजू थी गली की तेरी-२
सो यास-ए-लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ

Friday, November 1, 2013

ख़ुदा करे कि किसी को भी ऐसी प्यास न हो

मिलेंगे अब हमें हर सू डरावने मंज़र,
हमारे साथ वो आए, जो बदहवास न हो
न जाने कब से लहू पी रहा है वो अपना,
ख़ुदा करे कि किसी को भी ऐसी प्यास न हो..

- अमीर कज़लबाश

Wednesday, October 30, 2013

मेरी तलाश को बेनाम,बेसफ़र कर दे

मुझे बुझा दे, मेरा दर्द मुख़्तसर कर दे
मगर दिये की तरह मुझको मोतबर कर दे
मेरे वजूद के हर जर्रे का कोई निशां न बचे,
मेरी तलाश को बेनाम,बेसफ़र कर दे....

Tuesday, October 15, 2013

लहू का नाम न था खंजरों के सीनों पर

लहू का नाम न था खंजरों के सीनों पर,
मगर लिखी थी कथा सारी आस्तीनों पर...

-------- अज्ञात.

Monday, October 14, 2013

इंसान शादी के बिना अधूरा है

एक महान ज्ञानी संत ने अपना प्रवचन कुछ इस तरह शुरू किया,

"इंसान शादी के बिना अधूरा है.............."

बस इतना सुनना था की लोगों में भगदड़ मच गई. हर कोई इस शाश्वत सत्य को लपककर गोली की रफ़्तार से रफूचक्कर हो गया. इतनी गहरी और सारगर्भित बात को अपने यारों, प्यारों और दुलारों को सुनाने की जल्दी में आगे का हिस्सा सुनना किसी ने भी जरुरी ना समझा.. सब सत्य का हिस्सा पाकर ऐसे बौराए हुए थे की जल्द से जल्द उसे सारी दुनिया में फैला देना चाहते थे.. एक भी ना रुका वहां... सिर्फ हम थे जो वहां रुके रहे... हमें इस सत्य में झोल दिखाई दे रहा था.. सोचा महात्मा जी से पूछ लेते है की क्या वो सच में ही इस बात को मानते है.. 'आर यू क्रेजी ..?' जैसा कोई इल्जामनुमा सवाल उनके सर पर मारने का इरादा था हमारा. पर उसकी नौबत ही नहीं आई... महात्मा जी कुछ देर तो हक्के बक्के होकर लोगों का बौराना देखते रहे. कई बार उनका मुंह खुला, बंद हुआ, फिर खुला, फिर बंद हुआ. ऐसा लगा की वो और भी बहुत कुछ कहना चाहते है पर कोई सुनके राजी नहीं था. सब लोग उस एक फिकरे में छुपे अर्ध-सत्य को झपटकर फरार हो गए. पूरा पंडाल खाली हो गया.
दुःख के मारे महात्मा जी की शक्ल विधवा के पति जैसी हो गई थी. फिर उनकी नज़रें हम पर पड़ी. उनकी आँखों में यूं ख़ुशी की चमक उभर आई जैसे हमने उन्हें प्याज मुफ्त में दिलाने का वादा कर दिया हो. उन्होंने हमारी तरफ नज़र भर कर देखा. ( आसाराम वाली नज़र नहीं ). अपने आप को व्यवस्थित किया. और फिर पहले जितने ही जोश से अपना वाक्य पूरा किया.

"इंसान शादी के बिना अधूरा है.... पर.... शादी के बाद मुकम्मल तौर से ख़त्म हो जाता है.."

फिर उन्होंने यूं हमारी तरफ देखा जैसे अपने कथन का प्रभाव हमारे चेहरे से पढना चाहते हो. हम तो पहले ही उनके स्टेटमेंट के दूसरे हिस्से से भयंकर रूप से सहमत हुए बैठे थे. हमने आँखों ही आँखों में उन्हें आश्वासन दिया की इस बार उन्होंने प्रकृति के महानतम रहस्यों में से एक पर से बड़ी कामयाबी से पर्दा उठाया है. और उनकी महानता का महिमामंडन करने वाले हज़ारो, लाखों शादी-पीड़ित लोग उन्हें इस भारतवर्ष में मिल ही जायेंगे.. बस उनके इस क्रांतिकारी विचार को आम जन तक पहुंचाना होगा .. अपने एकमात्र श्रोता की मूक सहमती को प्राप्त कर महात्मा जी धन्य टाइप हो गए और तुरंत समाधि में लीन हो गए..

तो मेरे कुंवारे मित्रों, आगे से अगर कोई आपको शादी के बारे में प्रवचन दे और शादी के फायदे गिनवाएं तो उसके सर पर महात्मा जी के ये अनमोल बोल परमाणु बम की तरह पटकना ना भूलियेगा. इंसान शादी के बिना अधूरा है पर शादी के बाद मुकम्मल तौर से ख़त्म हो जाता है. और मुकम्मल ख़त्म होने से बेहतर है आधा अधूरा ही सही बने रहना..

समझे के नाही...?

Saturday, October 12, 2013

मेरी इन आंखों से अश्कों का समंदर निकला

दिल के ज़ज्बात जो भर आये तो बाहर निकला...
मेरी इन आंखों से अश्कों का समंदर निकला....

ख्वाहिश-ए-दीद में देखा किये हर चेहरे को,
एक चेहरा भी नहीं तेरे बराबर निकला...

जिसको इक उम्र खुदा जानकर पूजा हमने,
क्या बताएं तुझे ऐ दोस्त वो पत्थर निकला...

इस तरह तीर चलाया था किसी जालिम ने,
दिल में पैबस्त हुआ, रूह को छूकर निकला....

उम्र भर दस्त-ए-हिमायत जिसे समझे रक्खा,
पुश्त पर दीद जो डाली तो वो खंजर निकला...

गर्दिश-ए-वक्त तू कर अपनी निगाहें नीची,
काफिला फिर से कोई आज खुले सर निकला...

अपनी उल्फत को अमर करने की खातिर वो शख्स,
तेरे कूचे से गया ऐसे के मर कर निकला....

----------- अज्ञात.

Friday, October 11, 2013

हम से जब भी गुनाह होता है

हम से जब भी गुनाह होता है,
उसे फितरत की भूल कहते है...
कितने पुरऐतमाद है हम लोग,
लगजिशों को उसूल कहते है....

-------अज्ञात.

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

मोमबत्तियां ख़त्म हो गई क्या बाज़ार से...? नैना साहनी और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के पीड़ितों के लिए तो एक भी ना जली...?
खैर, होता है... और भी ग़म है ज़माने में....

"क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ.."

सड़क के किनारे

औरत रो सकती है, दलील नहीं दे सकती. उसकी सबसे बड़ी दलील उसकी आँखों से ढलका हुआ आंसू है. मैंने उससे कहा - "देखो, मैं रो रही हूँ. मेरी आँखे आंसू बरसा रही है. तुम जा रहे हो तो जाओ. मगर इनमे से कुछ आंसुओं को तो अपने ख्याल के कफ़न में लपेटकर साथ ले जाओ. मैं तो सारी उम्र रोती रहूंगी लेकिन मुझे इतना तो याद रहेगा कि चंद आंसुओं के कफ़न-दफ़न का सामान तुमने भी किया था.. मुझे खुश करने के लिए...."

उसने कहा, "मैं तुम्हें खुश कर चुका हूं. क्या उसका आनंद, उसका एहसास, तुम्हारी ज़िन्दगी के बाकी लम्हों का सहारा नहीं बन सकता ? तुम कहती हो कि मेरी पुष्टि ने तुम्हें अधूरा कर दिया है. लेकिन ये अधूरापन ही क्या तुम्हारी ज़िन्दगी को चलाने के लिये काफी नहीं ? मैं मर्द हूं, आज तुमने मेरी पुष्टि की है. कल कोई और करेगा. मेरा अस्तित्व ही कुछ ऐसे धूल-पानी से बना है. मेरी ज़िन्दगी में तुम जैसी कई औरतें आयेंगी जो इन क्षणों की पैदा की हुई खाली जगहों को पूरा करेंगी..."

मैंने सोचा.... ये कुछ लम्हे जो अभी-अभी मेरी मुट्ठी में थे.. नहीं मैं इन लम्हों की मुट्ठी में थी... मैंने क्यों खुद को उनके हवाले कर दिया..? मैंने क्यों अपनी फडफडाती रूह उनके मुंह खोले पिंजरे में डाल दी.. इसमें मज़ा था, एक लुत्फ़ था, एक कैफ था - जरुर था - और यह उसके और मेरे संघर्ष में था - लेकिन यह क्या..? वह साबूत और सालम रहा और मुझमे तरेड़ें पड़ गई. वह ताकतवर बन गया है, मैं कमज़ोर हो गई हूं.. यह क्या कि आसमान में दो बादल गले मिल रहे हो, एक रो-रोकर बरसने लगे, दूसरा बिजली का टुकड़ा बनकर उस बारिश से खेलता, कोड़े लगाता भाग जाए... यह किसका क़ानून है...? आसमानों का...? या इनके बनाने वालों का...??

---- सड़क के किनारे.
सआदत हसन मंटो.

Thursday, October 10, 2013

सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं

तलब को अज्र न दूं, फ़िक्र-ए-रहगुजर ना करूं....
सफ़र में अब के हवा को भी हमसफ़र ना करूं...

उभरते डूबते सूरज से तोड़ लूं रिश्ता,
मैं शाम ओढ़ के सो जाऊं और सहर ना करूं...

अब इससे बढ़ के भला क्या हो एहतियात-ए-वफ़ा,
मैं तेरे शहर से गुजरूं तुझे खबर ना करूं...

ये मेरे दर्द की दौलत, मेरे अश्कों का जहां,
इन आंसुओं की वजाहत मैं उम्र भर ना करूं...

उजाड़ शब की खलिश बन के कहीं खो जाऊं,
मैं चांदनी की तरह खुद को दरबदर ना करूं...

---------- अज्ञात.

Wednesday, October 9, 2013

बड़े लोग

ये बड़े लोग इतने छोटे क्यूँ होते है....???  

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ब्राण्डी का जला हुआ बियर भी फूंक फूंक कर पीता है.....

Tuesday, October 8, 2013

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है

"ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है.."

-------- ज़फर गोरखपुरी.

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है

उदासी गीत गाती है, मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है

अजब है रब्त की दुनिया, ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

------ ज़फर गोरखपुरी.

Monday, October 7, 2013

उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था

अन्सार-ए-सिदक-ओ-वफ़ा उसकी मुहब्बत में न था...
वो जो दिखता था मेरी जान वो हकीकत में न था...

रोज़ होता था हर एक रुख पे दिलो जान से फ़िदा,
एक दिलबर से निभाना भी तो फितरत में न था....

सुबह शीरीं के लिए, शाम थी लैला के लिए,
और शब में भी एक ही सोहबत में न था....

ज़हन पे छाया था लम्हों के मरासिम का नशा,
सोचते क्या वो हद्द-ए-फहम-ओ-फरासत में न था....

मैंने उसकी हकीकत को अयां कर तो दिया,
पर उसे राह पे लाना मेरी किस्मत में न था...


-- अज्ञात

Sunday, October 6, 2013

रूह से छू ले इसे जिस्म का मन्तर न बना

अपनी औक़ात समझ खुद को पयम्बर न बना...
देख बच्चों की तरह रेत पे अक्षर न बना...

मुझसे मिलना है तो मिल आके फ़क़ीरों की तरह,
मुझसे मिलने के लिए ख़ुद को सिकन्दर न बना...

दस्तकें देता रहेगा कोई आतंक सदा,
वारदातों की गली में तू कोई घर न बना...

प्यार के गीत का ये शब्द बहुत सच्चा है,
रूह से छू ले इसे जिस्म का मन्तर न बना....


--अज्ञात

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा मांगे...
ये तो बस प्यार से जीने का सलीका मांगे...

ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है,
जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगे...

सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा,
कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगे...

ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूं है हर सू,
ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगे...

ये तआल्लुकहै कि सौदा है या क्या है आखिर,
लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगे...

कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ ‘अज़ीज़’
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा मांगे...

--------- अजीज आज़ाद..

Saturday, October 5, 2013

मेरी हसरतों को सुखन सुना, मेरी ख्वाहिशों से ख़िताब कर.

न सन्नाटों में तपिश घुले, न नज़र को वक्फ-ए-अजाब कर...
जो सुनाई दे उसे चुप सिखा, जो दिखाई दे उसे ख्वाब कर...

अभी मुंतशिर न हो अजनबी, न विसाल रुत के करम जता,
जो तेरी तलाश में गुम हुए, कभी उन दिनों का हिसाब कर...

मेरे सब्र पर कोई अज्र क्या, मेरी दोपहर पे ये अब्र क्यूँ ?
मुझे ओढने दे अज़ीयतें, मेरी आदतें न ख़राब कर...

कहीं आबलों के भंवर बजे, कहीं धूप रूप बदन सजे,
कभी दिल को थल का मिज़ाज दे, कभी चश्म-ए-तर को चनाब कर...

ये हुजूम-ए शहर-ए-सितमगरां , न सुनेगा तेरी सदा कभी,
मेरी हसरतों को सुखन सुना, मेरी ख्वाहिशों से ख़िताब कर...

-------- मोहसिन नकवी.

Thursday, October 3, 2013

हम वो बेशर्म है

हम वो बेशर्म है,
हम वो बेदर्द है,
ख्वाब गंवाकर भी जिन्हें नींद आ जाती है.....
सोच सोच कर भी,
जिनके ज़हनों को कुछ नहीं होता....
टूट फूट के भी,
जिनके दिल धड़कना याद रखते है...
हम वो बेशर्म है,
हम वो बेदर्द है,
टूट कर रोने की कोशिश में जो,
बात बे बात मुस्कुराते है...
शाम से पहले मर जाने की ख्वाहिश लिए,
जीते है...
और...
जीते चले जाते है...

-------- अज्ञात.

Wednesday, October 2, 2013

बापू और शास्त्री

आदरणीय बापू और शास्त्री जी,

आज आप दो महान हस्तियों का जन्मदिवस है.... और मैंने अब तक ये भी नहीं सोचा की मुझे किसके जन्मदिवस की बधाई देनी है और किसको नज़रअंदाज़ कर देना है... आज कल के 'ट्रेंड' को ध्यान में रखते हुए आप दोनों में से सिर्फ एक को ही चुना जा सकता है ना...हमने तो अपने आदर्श भी बाँट लिए हैं अब... गांधी जी, आप को याद करने वालों को हमारे हिंदूवादी भाइयों की फटकार खाते आम देखती हूँ.. फिर बदले में हिंदूवादी भाई लोग शास्त्री जी पर कब्ज़ा कर लेते है.... वो तो अच्छा हुआ की खुदा ने आप दोनों को अपने पास बहुत पहले ही बुला लिया था.. अगर आज आप हमारे बीच होते तो शर्म से फिर मर जाते..

बापू, आपको तो क़त्ल किया था ना हमने... पर वो तो आपके शरीर को मारना था सिर्फ... आपकी आत्मा, आपके विचार, आपके सपनों की हत्या हम रोज किए दे रहे है... पूरी बेशर्मी से... अच्छा ही है जो आज आप नहीं है... वरना आपको गालियां दे देकर बुद्धिजीवी कहलाने वाले हम कृतघ्नों को देख कर आप की निगाह शर्म से झुक जाती...

और शास्त्री जी, जितनी संदिग्ध परिस्थितियों में आपकी मौत हुई थी उससे ज्यादा संदिग्ध आज हमारे ज़हन हो चुके है... आपका वो नारा जो कभी पूरे देश को इकठ्ठा करने के काम आया करता था, चुनावी हथकंडा बन के रह गया है... आप भी वक्त रहते परलोक सिधार गए.. अच्छा ही हुआ...

वैसे हम इस बात के लिए आपके जरुर शुक्रगुजार है की आपने हम आलसियों के देश को एक छुट्टी मुहैया कराई... आपका हमारे जीवन में बस इतना ही योगदान है.... बस वो ड्राई-डे वाला पंगा डाल के आपने बनी-बनाई खीर में मक्खी डाल दी.. पर हमने उसका तोड़ भी निकाला हुआ है... नो प्रॉब्लम...

और हां, इस मुगालते में मत रहिएगा की हम आपको सच्ची श्रद्धांजलि देने के चक्कर में अपनी जीवनशैली बदलेंगे... हम तो ऐसे ही रहेंगे... और अगर कोई हमें ज्ञान बांटने आएगा तो उसपर वो सामूहिक हमला करेंगे की सारा ज्ञान भूल जाएगा...

विनीत,

आपके पीछे सच में ही बनाना-रिपब्लिक बन चुके एक देश में मौजूद हजारो मैंगो पीपल्स में से एक अहमक,
ज़ारा अकरम खान...

Saturday, September 28, 2013

इक जरा सी रंजिश से

इक जरा सी रंजिश से,
शक की जर्द टहनी पर
फूल बदगुमानी के,
कुछ इस तरह से खिलते है...
ज़िन्दगी से प्यारे भी,
अजनबी से लगते है...
उम्र भर की चाहत को,
आसरा नहीं मिलता....
हाथ छूट जाते है,
साथ टूट जाते है,
और...
सिरा नहीं मिलता....
..................इक जरा सी रंजिश से....

Friday, September 27, 2013

मेरे सरहाने जलाओ सपने

कुछ गीत दिल से कभी जुदा नहीं होते... ऐसे ही चुनिन्दा गीतों में से एक गीत ये भी है.... गुलजार साहब के जादुई बोल जो सीधे दिल में उतर जाते है और आंसूओं का स्विच ऑन कर देते है.... हृदयनाथ मंगेशकर जी का बेजोड़ संगीत.... और उसपर लता की मखमली आवाज़..... किलर कॉम्बिनेशन......



https://www.youtube.com/watch?v=OGxGpqnr4AA

बोल कुछ यूं है.....

मेरे सरहाने जलाओ सपने
मुझे जरा सी तो नींद आये....

ख़याल चलते हैं आगे आगे,
मैं उन की छांव में चल रही हूं....
न जाने किस मोम से बनी हूं,
जो कतरा कतरा पिघल रही हूं...
मैं सहमी रहती हूं नींद में भी
कही कोई ख्वाब डस ना जाये.....

कभी बुलाता हैं कोई साया,
कभी उड़ाती हैं धूल कोई..
मैं एक भटकी हुई सी खुशबू,
तलाश करती हूं फूल कोई...
ज़रा किसी शाख पर तो बैठू
ज़रा तो मुझ को हवा झुलाये....

मेरे सरहाने जलाओ सपनें
मुझे जरा सी तो नींद आये......

तेरे जैसी आंखों वाले

तेरे जैसी आंखों वाले जब साहिल पर आते है,
लहरें शोर मचाती है लो आज समंदर डूब गया....!!

Thursday, September 26, 2013

नसीम - फिल्म समीक्षा


Photo: अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब.... 

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...
अभी हाल ही में सईद अख्तर मिर्ज़ा जी की 'नसीम' देखी... 1992 की बाबरी मस्जिद घटना के इर्द-गिर्द बनी एक खूबसूरत फिल्म... फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका मूर्तिमंत उदाहरण... सभी कलाकार अपने अपने रोल से पूरा न्याय करते हुए... मयूरो कांगो जैसी बाद में सुपर-फ्लॉप रही अभिनेत्री की पहली फिल्म.. पर इस फिल्म में उसने कमाल का अभिनय किया है... उसका समूचा चेहरा एक किशोरी के मन में उमड़ रहे अनगिनत सवालों का आईना है... शीर्षक भूमिका में मयूरी का चयन वाकई सार्थक रहा है... नसीम-जिसका मतलब सुबह की ताज़ी हवा है-वाकई एक ताजगी भरा एहसास है...

नसीम अजीम शायर कैफ़ी आज़मी साहब को पहली और आखिरी बार परदे पर देखने का इकलौता मौका है... बीमार दादाजान के किरदार में कैफ़ी साहब ने जान डाल दी है... उनकी अपनी पोती नसीम के साथ बातचीत के सीन सोने में तौलने लायक है... सारी फिल्म में वो नसीम को अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहते है... कुछ सच्चे, कुछ झूठे... मकसद सिर्फ ये की नसीम के होठों पर मुस्कराहट बनी रहे... उनकी आवाज़ का करारापन आपको दंग कर देता है जब वो एक अतिवादी मुस्लिम युवा ज़फर (के.के.मेनन) को ये बताते है की दंगों में कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं मरता, मरता है सिर्फ गरीब....

नसीम देखे हुए करीब एक हफ्ता हुआ पर उसका एक संवाद अब तक ज़हन से चिपका पड़ा है.. भूलाये नहीं भूल रहा.... मुहल्ले में पार्वती नाम की एक औरत की स्टोव फटने से मृत्यु हो गई है... नसीम की अम्मी ( सुरेखा सिकरी ) को पूरा पूरा शक है की इसमें उसके पति का हाथ है... नसीम के पिता ( कुलभूषण खरबंदा ) उन्हें आगाह करते है की वो उनका आपसी मामला है, तुम कुछ मत कहो... वहीं मौजूद जफ़र गुस्से में कहता है की हम कुछ ना बोले पर वो ( यानी की हिन्दू ) तो हमारे मामलों में हमें बड़े बड़े उपदेश देते है... आगे वो सवाल करता है की पता नहीं इन हिन्दू दुल्हनों के स्टोव ही ज्यादा क्यूँ फटते है....? उसपर पलट कर नसीम की अम्मी जो जवाब देती है वो आपकी चेतना को झकझोर देता है.. ख़ास कर एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मुझे तो वो एक करारे थप्पड़ की तरह लगा... वो कहती है,
"हमारे लिए तो बुरका और तलाक ही काफी है, ज़फर साहब...!"

इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनी होने के बावजूद ये फिल्म अतिनाटकीयता से बचने में कामयाब रही है... ना तो इसमें चीखते हुए किरदार है ना ही धार्मिक उन्माद दिखाते हिंसक दृश्य.... बहुत ही सादगी से इंसानियत का संदेस देती ये फिल्म हर हाल में देखने लायक है... इस फिल्म को 1996 को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था जिसके की ये सरासर काबिल थी... सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाने वाले सईद अख्तर मिर्ज़ा साहब का ये आखिरी काबिलेजिक्र क्रिएशन है... अच्छी और सार्थक फ़िल्में देखने के शौक़ीन मित्रों को नसीम फ़ौरन से पेश्तर देख लेनी चाहिए...

Wednesday, September 25, 2013

किसी के वास्ते खुद को संभाल रक्खा है

बिखर ना जाए कहीं ये ख़याल रक्खा है....
किसी के वास्ते खुद को संभाल रक्खा है....

हमारे हंसने हंसाने से यूं फरेब ना खा,
के हमने दर्द का दरिया खंगाल रक्खा है....

जुदा ही होना है तुम को तो जल्द हो जाओ,
न जाने अश्कों को कैसे संभाल रक्खा है....

तुम्हारा लम्स अकेले में हम को छूता है,
तो नाम हिज्र का हम ने विसाल रक्खा है...

वफ़ा है बाकी हमारे ही दम से दुनिया में,
तुम्हारा नाम तो यूं ही उछाल रक्खा है...

जवाब देते नहीं बन रहा है आज हमसे,
ये उसकी आंखों में कैसा सवाल रक्खा है....

---------- अज्ञात.

तू बहुत दूर, बहुत दूर गया था मुझसे

दश्त-ए-दरिया के उस पार कहां तक जाती....
घर की दीवार थी, दीवार कहां तक जाती....

मिट गई दीदार की हसरत भी रफ्ता-रफ्ता,
हिज्र में हसरत-ए-दीदार कहां तक जाती....

थक गए होंठ भी तेरा नाम लेते लेते,
एक ही लफ्ज़ की तकरार कहां तक जाती....

रहबर उसको सराबों में लिए फिरते है,
खलकत-ए-शहर की बीमार कहां तक जाती....

हर तरफ हुस्न के बाज़ार लगे थे यारो,
हर तरफ चश्म-ए-खरीदार कहां तक जाती....

तू बहुत दूर, बहुत दूर गया था मुझसे,
मेरी आवाज़, मेरे यार कहां तक जाती....

------------ अज्ञात.

Sunday, September 22, 2013

उसको छुट्टी ना मिली जिसको सबक याद हुआ

मकतब-ए-ईश्क में इक ढंग निराला देखा
उसको छुट्टी ना मिली जिसको सबक याद हुआ....

Saturday, September 21, 2013

मुझे दुःख है हमदम

मुझे दुःख है हमदम,
के तुम्हारे पास...
मुझे देने के लिए,
मुहब्बत का सिक्का तो है....
मगर मेरी मजबूरी है के,
मेरे पास वो कशकोल नहीं
जिसमे तुम.....
ये इनायत उछाल सको....
मुहब्बत की ये भीक डाल सको.....!!!

----------- अज्ञात.

बोलो तुमको गैर लिखे या अपना मीत लिखे

इक इक जीवन बनकर गुजरा प्यास का इक इक मील,
प्यास के हर हर मील पे आई आंसू की इक झील,
होठों के सूखे खाते में हार कि जीत लिखे....
बोलो तुमको गैर लिखे या अपना मीत लिखे.....


Friday, September 20, 2013

नज़र और नसीब

नज़र और नसीब का इत्तेफाक ऐसा है कि नज़र को अमूमन वही चीज पसंद आती है जो नसीब में नहीं होती.

Monday, September 16, 2013

ठोकर लगी तो अपने मुकद्दर पे जा गिरा

ठोकर लगी तो अपने मुकद्दर पे जा गिरा...
फिर यूं हुआ के आईना पत्थर पे जा गिरा...

एहसास-ए-फ़र्ज़ जब भी हुआ नींद आ गई,
चलना था पुल-सरात पे, बिस्तर पे जा गिरा...

खुशबू कसूरवार नहीं, उसको छोड दो,
मैं फूल तोड़ते हुए खंजर पे जा गिरा...

सहराओं में फिरता रहा पानी की जुस्तजू लिए,
जब प्यास मर गई तो समंदर पे जा गिरा....

-------------- अज्ञात.

Sunday, September 15, 2013

मैंने ठीक किया ना

मैंने ठीक किया ना....??????

कहते है जब घर में अचानक
ऐसी आग भड़क उठे
जो घर में मौजूद
हर एक शय को
अपनी लपेट में ले ले...
आग बुझाना मुश्किल हो और,
घर को बचाना नामुमकिन....
तो ऐसे में,
एक ही रास्ता रह जाता है...
जो बचता हो वो बचाओ..
घर की सबसे कीमती चीज़ें,
हाथ में लो,
और
उससे दूर निकल जाओ.....
मेरे दिल में भी ऐसी ही आग लगी थी...
मैंने जल्दी जल्दी,
आँख में तेरे बुझते 'ख्वाब' समेटे,
तेरी 'याद' के टुकड़े चुनकर ध्यान में रखे,
और उस आग में,
'दिल' को जलता छोड के,
दूर निकल आई हूँ.....

मैंने ठीक किया ना....??????????

------------ अज्ञात.

Friday, September 13, 2013

जाने ये लोग मुहब्बत को कहां रखते है

इतनी शिद्दत से इंतज़ार तो मुझे अपने दूल्हे का भी नहीं जितनी शिद्दत से मुझे 2014 का इन्तजार है.... आ के ही नहीं दे रहा कमबख्त.... आ जाए तो फेसबूकिया बुद्धिजीवियों से कुछ राहत मिले.... आ भी जाओ दुष्ट.... वरना फेसबुक पर नेट वीरों की अकल के टूटते तारे देख देख कर मैं पागल हो जाउंगी....

अपने सीने में तो नफरत को बहा रखते है...
जाने ये लोग मुहब्बत को कहां रखते है.....

Thursday, September 12, 2013

उसे ये कौन समझाए

उसे ये कौन समझाए....?

वो दश्त-ए-ख़ामोशी में
उँगलियों में सींपे पहने
किसी सूखे समंदर की
अधूरी प्यास की बातें
बहुत चुपचाप सुनता है...
बहुत खामोश रहता है...

उसे ये कौन समझाए....?

ख़ुशी के एक आंसू से,
समंदर भर भी सकते है....
बहुत खामोश रहने से,
ताल्लुक मर भी सकते है....

उसे ये कौन समझाए.....?

-----------------अज्ञात.